वीरेंद्र सेंगर
ग्राउंड जीरो पर डरावने संदेश भी गए, लालच की डोरें भी खींचीं गई लेकिन सब फेल। ऐसे में राष्ट्र भक्तों की टोलियां निकलीं। इन्होंने गालियां देकर भड़ास निकाली, लेकिन सब फुस्स, जुटान बढ़ती गई। किसानों का क्या? वे तो अड़ गए, लेकिन विश्व गुरु बनने वालों के मुल्क को चिंता है…
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इंडिया का दौर है, हर वर्ग में बदलाव का जमाना है। यदि आपने किसी को नापने का आईना कई दशक पहले का लगा रखा है, तो ये आपके चश्मे का लोचा है। कुछ ऐसा ही हो रहा किसानों के आंदोलन के साथ। इन्हें कई अलग–अलग चश्मों से देखा गया। कुछ चश्मों ने देखा कि अरे! ये तो असली किसान ही नहीं हैं, ज्यादातर बिचौलिए और वामपंथी हैं। यह भी दिखाई पड़ा कि कनाडा और पाकिस्तान से आए माल से इसकी पिकनिक हो रही है। भांगड़ा हो रहा है, जींस और जैकेट पहने हैं। पैरों में स्पोर्टस शू भी हैं। इनके पास ट्रैक्टर ही नहीं, अपनी कारें भी हैं। भला ये देश के किसान कैसे हो सकते है, क्योंकि प्रेमचंद के जमाने में तो किसान फटेहाल था नंगे पांव ही घर से चलकर अन्न पैदा करता था। कभी सरकार से शिकायत नहीं करता था। जो मांगना है वो हाथ उठाकर ऊपर वाले से मांगता था, गिड़गिड़ता था और फिर जुट जाता था अपने काम में। पुरातन भारतीय संस्कृति भी यही थी।
लेकिन आज के किसान को देखो…कैसे नखरे हैं, कैसे तीखे तेवर हैं। विश्व गुरु बनने जा रही सरकार को सरेआम हलकान किये हैं। वो भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आकर। सरकार रोज कहती है कि अरे लौट जाओ तुम्हें कांग्रेस ने भ्रमित कर दिया है। वे नहीं लौटे, सरकार फिर भी कहती है, तुम्हें टुकड़े–टुकड़े गैंग ने भ्रमित कर दिया है। पर वे नहीं लौटे, जो बहुत दूर थे, वे भी आ जुटे और संख्या लाखों में पहुंचती गई।
सरकार ने अन्नदाताओं की खोज खबर रोज ली। बातचीत करने को पाती भेजी, बस ये जता दिया कि प्रधान सेवक ने तीन नए कानूनों का जो खूंटा गाड़ दिया है वो नहीं उखड़ेगा, बाकि सभी राय सिर माथे पर। सुझाव दिया गया कि सरकार की उदारता की बेकद्री न करो। नए कानूनों के फायदे समझने की कोशिश करो। पूरा सरकारी अमला जुट गया। समझदार की पाठशाला लगाने में एक–एक दिन में लाखों–लाख किसानों को सरकारी मंत्र से दीक्षित किया गया। दरबारी मीडिया ने जमकर इसके नगाड़े बजाए। कोशिश रही कि शायद इससे बहके हुए किसानों को कुछ प्रेरणा मिले, कहां मिली?
मौसम ने भी खूब बेरहमी की फिर भी वे खुली सड़कों पर जमे रहे, हर पल उनकी जुबान तल्ख होती गई। विनती का भाव, योद्धा के आने से बदल गया। सरकार के चतुरों ने झांसे में लेकर तमाम जाल बिछाए, लेकिन बात लंबी होती गई। सरकार के चतुर इस बात से परेशान हैं कि आखिर अन्नदाता नए कानूनों का असली मर्म समझ कैसे गया? और वो अपनी सरकार पर विश्वास करने को तैयार क्यों नहीं है? इस पर मंत्रणा के लिए पूरा सरकारी तंत्र सक्रिय हुआ तो ये पाया गया कि पढ़े लिखे किसान भी नासमझ हैं। वे ही सरकार की नीयत पर शक कर रहे है। क्योंकि ज्यादा पढ़ाई लिखाई, सरकार से सवाल करना सिखाती है। ज्यादा सवालों का सामना हो तो औरों को अपने पवित्र एजेंडों से भटकना पड़ता है।
कहते हैं एक शाम सरकार के उच्च दरबार में उच्चस्तरीय मंत्रणा हुई। पहला सवाल यही था कि कैसे आंदोलन से निपटा जाए? बड़ी पदवी वाले दरबारी ने राय रखी कि सरकार का इकबाल कायम रखना ज्यादा जरूरी है। संदेश यही जाना चाहिए कि ये सरकार दृढ़ संकल्प वाली है। एक बार जहां खूंटा गाड़ दिया तो गाड़ दिया, यानि ‘नो यू–टर्न‘ तरह–तरह के प्रयोग किए जाने लगे राष्ट्रवादियों को भी अलर्ट! दिया गया। लगभग हर शाम दरबार में मंत्रणाएं होती रहीं। माहौल की समीक्षा होने लगी। यही खबर आती रही, जुटान बढ़ रही है। एक दिन दरबार में एक अति वफादार दरबारी ने कहा कि डंडों के देवता, बातों से नहीं मानते। सयाने दरबारी ने समझाया ये तो आखिरी उपाय रिजर्व ही समझो। कुछ ऐसा उपाय हो जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। कहते हैं उस दिन से दरबार स्थगित है। उस राष्ट्र भक्त उस्ताद की खोज है जो आंदोलनकारियों को अपने मोहमाया में बांध ले वो भी बगैर किसी शोरगुल के।
इधर, आंदोलनकारियों में गजब का भाईचारा, नया पहनावा और शक्लें भले अलग–अलग हों लेकिन स्वर एक जैसे होते गए? हिसाब–किताब होने लगा कि कांग्रेस ने ज्यादा छला या राष्ट्रवाद का लाबादा पहनने भाजपा ने? प्रश्न हुए, प्रति प्रश्न हुए। इस बात पर सहमति बनी कि सवाल तो सत्ता से ही होंगे? इसीलिए तो अटकने–भटकने की जरूरत नहीं है। किसानों के बीच ऐसी संवेदनशील गहन मंत्रणाओं की सूचनाएं खूफिया तंत्र से मिलती रहीं। चिंता हुई कि अन्नदाता इतने ज्ञानी बन गए तो पूरी सत्ता व्यवस्था का ढांचा ही बदल जाएगा, फिर तो बात बात पर भी सवाल करेंगे, तो कभी मजदूर। ऐसे में जरूरी है कि इस आंदोलन पर असफल होने कि चिप्पी जरूर चस्पा लें।
ग्राउंड जीरो पर डरावने संदेश भी गए, लालच की डोरें भी खींचीं गई लेकिन सब फेल। ऐसे में राष्ट्र भक्तों की टोलियां निकलीं। इन्होंने गालियां देकर भड़ास निकाली, लेकिन सब फुस्स, जुटान बढ़ती गई। किसान अड़ते गए। उधर, कई विकसित मुल्कों से भी सवाल आए, कनाडा से लेकर अमेरिका के राजनयिक हलकों से सवाल आए। किसानों का क्या? वे तो अड़ गए, लेकिन विश्व गुरु बनने वालों के मुल्क को चिंता है। बताइये! किसान, छोटी सी मांग के लिए अंतरराष्ट्रीय जगत में किरकिरी करा रहे हैं? ऐसे में इन्हें क्या कहा जाए? ऐसे राष्ट्र भक्त संप्रदाय के मित्र ने कहा कि देश पुरातन संस्कृति से भटका नहीं होता, तो किसान सरकार के प्रति इतना कठोर नहीं होता। वो सरकार को झुकाने के लिए अंगद का पांव नहीं बनता। वो दिल्ली की तरफ चलने की भी नहीं सोचता। इसीलिए तो हम पंडित नेहरू की रोज खबर लेते हैं। जय हिंद–जय किसान!