- राहुल फिर से अध्यक्ष पद की संभाल सकते हैं जिम्मेदारी
- पार्टी राष्ट्रीय स्तर का चिंतन शिविर आयोजित कर तय करेगी आगामी रणनीति
वीरेंद्र सेंगर
नई दिल्ली: राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में चैतरफा मोर्चों पर नाराज किसान डटे रहे। तीन नए कृषि कानूनों को लेकर उनका गुस्सा व्यापक स्तर तक पहुंच चुका है। वे मोदी सरकार पर कानूनों को सिरे से रद्द करने का दबाव बनाए हुए हैं। हल्के-फुल्के संशोधनों के प्रस्तावों को पहले ही खारिज कर चुके हैं। पहले एक महीने में आंदोलन तमाम उकसावों के बावजूद शांतिपूर्ण ही रहा है। घोषित तौर पर यह आंदोलन अराजनीतिक है, लेकिन मामला धुर राजनीति का है। प्रधानमंत्री की टोली आंदोलन को ठंडा करने के लिए तरह-तरह की रणनीतियां बनाती रही, लेकिन आंदोलन कमजोर नहीं पड़ा। ऐसे में यह मामला केंद्र के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है। इसे भुनाने में कांग्रेस ने भी अपना दम लगाने की कोशिश शुरू की, लेकिन दूसरी कोशिशें प्रतीकात्मक ही रहीं।
दरअसल, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस अपने अंदरुनी संकटों से उबर ही नहीं पाती। सालों से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का संकट जारी है। अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी, हरसंभव जिम्मेदारी निभाती आई हैं। लेकिन अब सेहत के चलते वे पार्टी में नए जोश को उभार नहीं पायी हैं, जबकि मुकाबले में भाजपा अपना प्रभाव क्षेत्र लगातार बढ़ाती जा रही है। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी सक्रिय जरूर हैं, लेकिन उनकी पुरानी कार्यशैली में अंतर नहीं देखा जा रहा। वे छुट्टियों के नाम पर जब तब लंबे समय के लिए ‘लापता’ हो जाते हैं। जबकि उनकी इसी कार्यशैली से पार्टी किसी राजनीतिक चुनौती का मुकम्मल मुकाबला नहीं कर पाती। छिटपुट सफलताएं जरूर मिलती हैं, लेकिन व्यापक राजनीतिक मुहिम बीच-बीच में हिचकोले लेने लगती है। यह सिलसिला चलता आ रहा है। 2019 लोकसभा के चुनाव पार्टी ने राहुल के नेतृत्व में ही लड़े थे। चुनाव परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा 2014 के मुकाबले और ज्यादा सीटों से जीती थी। कांग्रेस को नहीं, देश के सभी विपक्षी दलों को जोर का झटका लगा था। भाजपा ने ‘राष्ट्रवाद‘ का चुनावी कार्ड बखूबी खेल लिया था। जबकि कांग्रेस ने महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दों पर रणनीति फोकस करने की कोशिश थी।
इन चुनावों में कांग्रेस पस्त जरूरी हुई थी, लेकिन 2014 के मुकाबले उसकी कुछ सीटों में इजाफा भी हुआ था। लेकिन राहुल इतने निराश हुए कि उन्होंने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था। यदि ये इस्तीफा केवल प्रतीकात्मक होता तो गनीमत रहती, लेकिन यहां भी वे कच्चे खिलाड़ी साबित हुए। कई दिनों तक उनकी मनुहार चली। इस्तीफा वापस लेने के लिए दबाव पड़ा। पूरी पार्टी में मनुहार के लिए स्यापा का ड्रामा चलता रहा। अंतत: राहुल दोबारा जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं हुए थे। इसी के साथ उन्होंने यह ‘लक्ष्मण रेखा‘ भी खींच दी थी कि अगला अध्यक्ष उनके परिवार से नहीं होगा।इस विकट स्थिति में सवाल उठा था कि पार्टी का अध्यक्ष गांधी-नेहरू परिवार से नहीं हुआ? तो कांग्रेस की एकता को बड़ा खतरा होगा। अंतत: वैकल्पिक व्यवस्था के तहत सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था। लक्ष्य रखा गया था कि एक साल के भीतर चुनावी प्रक्रिया से नया अध्यक्ष चुन लिया जाएगा। उसी समय से यह बहस और तेज हुई है कि गांधी-नेहरू परिवार के नेतृत्व बिन पार्टी का भविष्य क्या होगा?इधर के महीनों में पार्टी के लिए राजनीतिक चुनौतियां लगातार बढ़ी हैं। राज्यों में भी पार्टी की अंदरुनी गुटबाजी तेज हुई है। मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार आपसी गुटबाजी का शिकार हुई थी। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के टकराव से सरकार चली गई। इतना ही नहीं, कांग्रेस को अपने एक स्टार नेता से भी हाथ धोना पड़ा। सिंधिया महाशय अब भाजपा के पाले में हैं। कुछ ऐसी ही व्यूह रचना राजस्थान में भी अशोक गहलोत सरकार को गिराने के लिए हुई थी। सचिन पायलट गुट बगावती तेवर में आ गया था। वहां भीे मध्य प्रदेश दोहराने की मुकम्मल तैयारी थी। ऐन मौके पर गांधी परिवार ने पायलट को मना लिया था। सरकार बच गई। लेकिन खतरा पूरी तरह टला नहीं है, क्योंकि दोनों गुटों में खींचतान की खबरें आती रहती हैं। खुद मुख्यमंत्री गहलौत हर महीने दो महीने में कहते रहते हैं कि उनका नेतृत्व उनकी सरकार गिराने की साजिश रच रहा है। जाहिर है कि भाजपा यह खेल, बगैर पायलट गुट विधायकों को साधे नहीं कर सकती है।दूसरे तमाम राज्यों में अंदरूनी कलह कम होने का नाम नहीं ले रही। बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आए ज्यादा समय नहीं बीता। यहां पार्टी सिर्फ 19 सीटें जीती जो कि पिछले चुनाव में भी आठ कम रही। जबकि राजद नेतृत्व में महागठबंधन ने जोरदार मुकाबला किया था। थोड़े से अंतर से सत्ता हाथ आते-आते खिसकी थी। राजनीतिक प्रेक्षकों का आमतौर पर यही मानना है कि यदि कांग्रेस ने चुनाव में दबाव डालकर ज्यादा सीटें नहीं ली होती, तो परिणाम कुछ और होते। राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने तो खुलकर राहुल गांधी पर निशाना भी साधा था। यहां पर महागठबंधन 243 सीटों में से 110 पर जीत हासिल कर पाया था। कांग्रेस के खराब प्रदर्शन की केंद्रीय नेतृत्व ने समीक्षा करने का संकल्प लिया था। समिति भी बनी थी, लेकिन डेढ़ महीने बाद ही समीक्षा रिपोर्ट तैयार नहीं हुई। नेतृत्व के ढीले-ढाले रवैये का यह एक उदाहरण भर है।
पिछले वर्ष अगस्त महीने में 23 वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी को एक महत्वपूर्ण यह पत्र भेजा था। इसमें अंदरूनी सांगठनिक चुनाव न कराने से लेकर नेतृत्व की टोली पर तमाम झन्नाटेदार सवाल उठाए गए थे। यह पत्र मीडिया में ‘लीक‘ हो गया था। इसको लेकर 10 जनपथ के वफादारों ने पत्र में हस्ताक्षर कराने वालों सयानों के खिलाफ भी जमकर बयानबाजी की थी। कुछ इस तरह का माहौल बनाया गया, मानों पत्र लिखने वाले वरिष्ठ नेता कोई साजिश कर रहे हों। इन नेताओं ने सोनिया गांधी से मुलाकात करनी भी चाही थी, लेकिन संभव नहीं हुआ।
पिछले महीने ‘10 जनपथ‘ को 23 नेताओं के चर्चित पत्र की याद आयी। सूत्रों के अनुसार, पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की पहल पर ‘असंतुष्टों‘ के साथ विमर्श की कार्य योजना बनी। इसी के तहत 19 दिसंबर को बैठक हुई थी। इसमें पत्र लिखने वाले कई स्वनामधन्य नेता भी हाजिर हुए थे। बैठक में सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका गांधी ने भी हिस्सा लिया था। दावा किया गया कि तमाम ज्वलंत मुद्दों पर विमर्श हुआ। अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी फिर से संभालने के लिए राहुल को सर्वसम्मति से कहा गया है। इसके जवाब में राहुल ने कहा कि पार्टी सर्वसम्मति से जो जिम्मेदारी निभाने के लिए कहेगी, उसे वे सिर झुकाकर स्वीकार करेंगे। पार्टी के वरिष्ठ नेता ए.के. एंटोनी ने अनौपचारिक बातचीत में दावा किया है कि जल्दी ही राहुल गांधी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल लेंगे। कार्ययोजना पर तैयारी चल रही है। कोविड का संकट कम होते ही पार्टी राष्ट्रीय स्तर का एक चिंतन शिविर भी आयोजित करेगी इसमें विस्तार से तमाम मुद्दों पर खुलकर विमर्श होगी।
‘10 जनपथ‘ में हुई इस बैठक के दावों को एकदम सही मानें, तो राहुल के हाथ एक बार फिर औपचारिक रूप से पार्टी की कमान आ जाएगी। बाकि औपचारिकताएं पूरी कर ली जाएंगी। संभव है इसी महीने इस संदर्भ में कोई निर्णायक पहल हो जाए। उल्लेखनीय है कि राहुल व्यवहारिक तौर पर कई महीनों से पार्टी की वैसे भी अगुआ भूमिका निभाते रहे हैं। वे मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक तेवर तो दिखाते हैं लेकिन वे अपना ज्यादा ‘युद्ध कौशल‘ ट्विटर हैंडिल पर ही दिखाते हैं। इसकी कुछ चर्चा मीडिया में जरूर हो जाती है लेकिन इतने भर से कोई देशव्यापी सरकार विरोधी मुहिम शुरू नहीं हो पाती है जिससे पार्टी के अंदर उत्साह का कोई नया रक्त संचार हो पाए।
इधर, भाजपा की गति बहुत तेज है। मोदी सरकार की कोशिश है कि उसकी लोकप्रियता में कोई कटौती न हो पाए। उसने अच्छी तरह समझ लिया है कि जब तक विपक्ष ज्वलंत मुद्दों पर आकर संघर्ष करने की स्थिति में नहीं होगा, तब तक उसे कोई बड़ा खतरा नहीं होगा। एक हद तक यह सच्चाई भी है। तमाम प्रदेशों के विपक्षी क्षत्रप सरकार से भयाक्रांत हैं। उन्हें सरकारी एजेंसियों के शिकंजों से डर लग रहा है। वे मोदी सरकार के खिलाफ कोई धारदार मुहिम चलाने की हिम्मत नहीं कर पाते। बिहार में राजद प्रमुख लालू यादव ने पिछले वर्षों में ऐसी ही हिम्मत की थी, नतीजा है कि वे गंभीर बीमारियों के बावजूद सालों बाद भी जेल से बाहर नहीं आ पाए। लालू यादव का हश्र भी तमाम विपक्षी नेताओं का रहा है।
राष्ट्रीय स्तर पर संसद से लेकर सड़क तक कांग्रेस ही मोदी सरकार से कुछ भिड़ती नजर आती है। लेकिन उसके पास जमीनी कार्यकर्ताओं की भारी कमी है और यह क्षरण जारी है। पार्टी नेतृत्व किसी मुद्दे पर सड़कों पर उतरने का एलान करती है, तो मुहिम ज्यादा व्यापक नहीं बन पाती। इसमें कुछ भूमिका मुख्यधारा की मीडिया की भी रहती है। यह मीडिया, गोदी मीडिया में भी बदल गया है। यह आज की सच्चाई भी है। लेकिन ज्यादा बड़ी सच्चाई यह है कि कांग्रेस की संस्कृति में कभी जमीनी कार्यकर्ताओं को वास्तविक तरजीह नहीं मिली। ऐसे में एकाएक जमीनी धरातल मजबूत करना एक बड़ी चुनौती होगी।
2018 में कांग्रेस को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान में सफलता मिली थी। यह अलग बात है कि मध्य प्रदेश की सरकार अंदरूनी फूट के चलते चली गई। कांग्रेस ने मोदी जी के गृह प्रदे गुजरात में भी अच्छी टक्कर थी। इससे कांग्रेस का हौसला काफी बढ़ा था, लेकिन लोकसभा चुनाव ने राहुल गांधी का आत्मविश्वास ही हिला दिया। इतना कि वे रण छोड़कर ही चले गए थे। अब फिर से उनका ‘राजतिलक‘ होने वाला है। इस नई पारी में उनके लिए चुनौतियां और कंटीली हैं। इसी साल मार्च-अप्रैल में पश्चिम बंगाल के चुनाव हैं। यहां 2011 से तृणमूल कांग्रेस सत्ता में है। इस बार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ भाजपा नेतृत्व ने पूरा जोर पकड़ रखा है। सरकार पर भाजपा ने काफी दबाव भी बनाया है। लोक सभा के चुनाव में भाजपा ने 18 सीटें जीती थी जिससे उसका हौसला बढ़ा है।
यहां ‘हिंदुत्व‘ का कार्ड भी चलाया जा रहा है। तृणमूल के सुवेंद्र अधिकारी जैसे कई कद्दावर भाजपा में शामिल हो गए हैं। गृहमंत्री अमित शाह ने अपने चुनावी कौशल को पूरी ताकत लगा रखी है। प्रधानमंत्री मोदी के खास निशाने पर ममता हैं। कांग्रेस ने 2016 का चुनाव वामदलों के साथ लड़ा था, लेकिन तृणमूल को 293 सीटों में से 211 सीटें मिली थीं। कांग्रेस को 44 और वामदलों को 33 सीटें मिल पायी थीं। भाजपा को केवल तीन सीटों पर सफलता मिली थी, लेकिन इस बार अमित शाह का नारा है ‘भाजपा 200 के पार‘। इस आक्रामक शैली ने सभी दलों की चुनौती बढ़ा दी है। कांग्रेस ने इस बार भी वामदलों के साथ चुनाव लड़ने का फैसला लिया है, हालांकि लोकसभा का चुनाव अलग लड़ा था।
कांग्रेस सूत्रों के अनुसार, इधर सोनिया गांधी और ममता के निजी रिश्ते और सुधरे हैं। ऐसे में कांग्रेस और तृणमूल के गठबंधन बनने की बात चली थी लेकिन लोकसभा में पार्टी नेता अधीर रंजन और स्थानीय नेताओं ने इस पहल का विरोध किया था। राहुल का भी यही रुख समझा गया। ऐसे में वामदलों के साथ साझेदारी तय हुई है। यदि राहुल तय कार्ययोजना के तहत अध्यक्ष पद की कमान संभालते हैं, तो उनकी पहली अग्निपरीक्षा यही चुनाव बनेंगे।
किसानों के आंदोलन को राहुल ने खुलकर समर्थन दिया है। 24 दिसंबर को उन्होंने राष्ट्रपति से भी मुलाकात की थी। मीडिया से यहां तक बोल गए कि मोदी जी के राज अब देश में लोकतंत्र बस कल्पना में हीं रह गया है। राजनीतिक प्रेक्षक कहते हैं कि राहुल का यह रणनीतिक ‘अतिवाद‘ हानिकारक है। ऐसे में बड़ा सवाल है कि पार्टी के लिए राहुल गांधी तारणहार बनेंगे या…?