लोकतंत्र की महिमा निराली है। बड़े-बड़े धरती पकड़, बड़े-बड़े कुर्सी पकड़ विदा हो जाते हैं चुपचाप। कोई तूफान नहीं आता। धरती नहीं हिलती। ट्रंप साहेब विदा हो गये। जो बिडेन आ गये। दुनिया के सबसे चर्चित लोकतांत्रिक देश अमेरिका में। राष्ट्रपति के चुनाव हुए अमेरिका में। लेकिन इसकी धड़कनें दुनिया भर में सुनी गयीं। ट्रंप साहब अपने साहब की तरह बड़े बतोले रहे हैं। कभी बोले थे, चुनाव हार भी गया तो राष्ट्रपति भवन से नही निकलूंगा। हारने के बाद सदमे में हैं। उन्होंने कितना कुछ किया था। लेकिन उतना काम नहीं आया। उनके राष्ट्रवाद को जोकराना डायलाग समझा गया। कितने बेदर्द होते हैं, मतदाता? वे धुर राष्ट्रवादियों की चीत्कार भी नही सुनते। बेदर्दी कहीं के?
कहते हैं, उसमें परम दुष्ट कोरोना वायरस की भूमिका है। इसकी साजिश रही है। ऐन चुनाव के वक्त इसने दोबारा अटैक कर शुरू कर दिया, ताकि भले मानुस ट्रंप साहेब बदनाम हो जाएं। वैसे भी यह वायरस चीनी मूल का है। ये चीनी किसी के हुए हैं? धुर पड़ोसी देश भारत के तो हुए नहीं! जहां भारत-चीन भाई-भाई का नारा लगा था। फिर भी इसने दशकों पहले अटैक कर दिया था। और शरीफ देश की तमाम जमीन कब्जा ली थी। लैंड माफिया कहीं का! कुछ साल पहले ही भारत के अवतारवादी साहेब ने इनके राष्ट्रपति को खुद पालने में झुलाया था। सारी दुनिया ने देखा था। दोस्ती की पैंगें बढ़ी थीं। अकेले में भी दोनों यारों ने चर्चा की थी। हालांकि, दोनों एक दूसरे की भाषाएं जानना तो दूर समझते भी नहीं, लेकिन ये बड़ों की बातें हैं। जो बगैर भाषा के हो जाती हैं। बहाने भी मारे जाते हैं।
अरे, इतना भी नहीं समझे? प्रेम की गुफ्तगू हो और तीसरा कोई न हो तो संवाद हो ही जाता है। प्रेम बगैर भाषा की बैसाखी के छलांग लगा लेता है। ठीक यही हुआ था। हमारे वाले तो आत्मनिर्भर रहे। टीवी के देषभक्त चारण भाशाहीन संवाद का मतलब बताते रहे। पूरा महादेश बोलने वाले के कौषल से गदगद रहा। न भूतो, न भविश्यतिः ! वाले भाव से पड़ोसी से प्रेम का नया इतिहास बना था। लेकिन एक गैर लोकतांत्रिक देश क्या जाने? अदरक का स्वाद! वही हुआ। इसने हमारे लद्दाख में कई जगह सेंधमारी कर ली। हम तो लोकलाज वाले देश हैं। चुप भी रह लेते। लेकिन नाश हो! सेटेलाइट पत्रकारिता का। देसियों पर तो हमारी चाबुक का डर था, लेकिन लंदन, अमेरिका में बैठकर लोगों ने चुगली कर दी। हमारे यहां भी कुछ पत्रकार बौरा गये। खोलने लगे पोल। हमारे लोकतंत्र की उदारता देखो। हमने धैर्य नहीं खोया। हमारे सत्यवादी साहेब ने प्रेम बचाने की आखिरी कोशिश की। डंके की चोट पर कह दिया कि न हमारे देश में कोई घुसा और न सेंध मारी की। जमीन जहां थी, वही है। वो कहीं नहीं गयी। वे झूठ भी नहीं बोले। सच भी नहीं बोले। पड़ोसी से प्रेम बचाने में लगे रहे। भला प्रेम से बढ़कर कोई लोकाचार हो सकता है? नहीं न!
प्रेम में पड़कर झूठ क्या और सच क्या! जो भी प्रेम में नहीं पड़े। पचास पार गये। वे भले नाम के युवराज हों क्या समझेंगे प्रेम रस? अरे! हमारे तमाम स्वनामधन्य पुरखों ने भी तो बड़ी-बड़ी जागीरें लुटा दीं, इसी प्रेम के लिए। ये चलें हैं। साहेब पर सवाल उठाने, चिल्ला रहे हैं कि साहेब सच्ची बात देश को नहीं बता रहे। चीन ने 56 इंच नहीं, 56 कोस से ज्यादा धरती हड़प ली। गैर राष्ट्रवादी पत्रकार भी यही कह रहे हैं। अब जनाब! लोकतंत्र है। किस-किस नामुराद का मुंह वे बंद करें? इतना सारा काम, क्या क्या बंदा करे? वो चीन को संभाले या लोकतंत्र संभाले ?
खैर, लोकतंत्र की महिमा है निराली। नीतीश को बिहार की जनता ने सबक सिखा दिया। वैसे भी वे कहां हैं? तो फिर उनको संकट से बचाने के लिए कौन ‘हनुमान’ आता। तो ये होती हैं कि घुप्प अंधेरे में चिराग ऐन वक्त पर जलाया। प्रेम में जलने के पहले, अपनी ‘लंका’ को सबक सिखा गया। बिहारी हनुमान चाहे इस बार संजीवनी बूटी न ला पाए हों, कोई बात नहीं। उनके हनुमान होने पर उनको कोई रार नहीं? तो आप कौन होते हैं? चिलगोजे बिखेरने वाले? अरे! वे कह तो चुके हैं। उनका सीना फाड़कर देख लें। वहां राम मिल जाएंगे। हर सुपुत्र के सीने में मरहूम पिताश्री का वास होता है। उनके पिताजी भी तो राम विलास ही थे। अब घर में पूरा नाम तो लिया नहीं जाता। तो बस राम ही हुए। इसमें झूठ क्या? वे अपने राम के हनुमान हैं। आप गलत समझे तो इसमें हमारा क्या कुसूर!
खैर चिराग के पास खोने को क्या है? जिसका तेल होगा, उसके लिये रोशन होता रहेगा। चिराग का यही धर्म भी है। वो धर्मनिष्ट हैं। मौसम वैज्ञानिक के कुल दीपक हैं। उनका भी टाइम फिर आएगा। एक वोट बैंक का अल्लादीनी चिराग उनके पास है। मजा मारने का सुख उन्हें मिलता रहेगा। क्योंकि उन्हंे मौसम विज्ञान विरासत में मिला है। भारतीय लोकतंत्र की यही खुबसूरती हैं। यहां पलटूराम गाली नहीं है। बल्कि प्रगतिशीलता की निशानी है। आप कभी सेक्यूलर बन सकते हैं, और कभी संतरापुरी राष्ट्रवादी। धुर राष्ट्रवादी से सेक्यूलर-सेक्यूलर नहीं बन सकते। अपने नीतीश महाशय की तरह। दो नावों में एक नाव में रहने का करिश्मा भी कर सकते हैं। कभी-कभी रंगे हाथ पकड़े जाने का भी जोखिम रहता है। उनके ताजा घाव पर नमक नहीं छिड़कना चाहिए, क्योंकि ये करूणा के सिद्धांत के खिलाफ है।
बात करूणा की आती है, तो अपने अकड़म गोस्वामी की बात कर लेते हैं। मैं नाम बिगाड़ने में विश्वास नहीं रखता। भारतीय संस्कृति के हिसाब से सहेजता लाने में विश्वास रखता हूं। ठेठ यश्स्वी मुख्यमंत्री योगी जी की तरह। अकड़म भाई! को पुलिस उठा ले गई, वो भी धुर राष्ट्रवादी पत्रकार होते हुए भी। वे उनके ‘हनुमान’ थे। फिर भी नहीं बचे। ऐसा लोकतंत्र भी किस काम का? जहां राम के हनुमान उनसे उपर न हों? आओ और खेलते हैं।
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