विरेंद्र सेंगर
हम जानते हैं तुम्हारा यह असली नाम नहीं है। तुम बार-बार चीत्कार करोगी, मरोगी भी। मरने के बाद तुम वाकई में निर्भया हो जाओगी। तुमसे सालों पहले राष्ट्रीय राजधानी में कुछ इंसानी राक्षसों ने भयानक दरिंदगी करने के बाद उसे लहूलुहान करके छोड़ दिया था। अंततः उसने सिंगापुर के एक अस्पताल में दम तोड़ा था। पूरा देश बेचैन हो पड़ा था। देशव्यापी आंदोलन हुए, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भी आंसू छलके थे। राष्ट्रीय बेचैनी के बीच कड़े कानून बने थे, ऐसे दरिंदों को फांसी की सजा का प्रावधान हुआ था। बलात्कारियों के खिलाफ पूरा देश एक बार उठ खड़ा हुआ था। कुछ ऐसा लगा था कि इस देश में फिर कोई बेटी ‘निर्भया’ नहीं बनेगी। निर्भया बेटी हम शर्मिंदा हैं तुम्हारे जाने के बाद भी हर साल तुम्हारी कितनी छोटी-बड़ी बहने ‘निर्भया’ बन जाती हैं ? हम ठीक-ठीक जान भी नहीं पाते। हम बेशर्म समाज हैं। बातें हम सनातन संस्कृति की करते हैं, जुमलों के हम बहुत अमीर हैं। हर नारी में शक्ति स्वरूपा मां के दर्शन करते हैं। पूजनीय होने का ढिंढोरा पीटते हैं। गर्भ में भी तुम्हारा वध करते हैं, हम हैं वैदिक हत्यारे!
खांटी सच, अक्सर कटु होता है। हमारी पुरातन संस्कृति क्या कम निर्भया थीं। सती के नाम पर नारियों को पति की चिता में जिंदा बैठा दिया जाता था, धू-धू जलने के लिए। वो चीत्कार करतीं। तो वे सती मैया के जयकारे की गूंज करके तड़फने की हाय छिपा लेते। हम ऐसे पाखंडी हिंदू समाज रहे हैं। चार दशक पहले बांदा के जारी गांव में सती मैया के नाम पर पाखंड लीला मैंने भी देखी थी। धर्मांध लोगों का मेला, लाखों नारियल का चढ़ावा, चिता पर उत्सव की लीला, वो मेरी पत्रकारिता का शुरुआती दौर था। तौर-तरीके भर बदले। अब वोट बैंक के थोकदार भी जुट गए, इन धत्कर्मों में। हम और ज्यादा जाहिल हुए हैं, बातें करते हैं विश्व गुरु, बनने की। बैक गियर में हम बहुत पीछे जा रहे हैं। हम पिछड़ेपन पर नाज करते हैं, भजन करते, कीर्तन करते हैं। बेशरमी का मृदंग बजाते हैं।
वो निर्भया! यह कॉलम है तो व्यंग्यात्मक टिप्पणियों का, लेकिन बात तुम्हारी चित्कार की हो तो, व्यंग्य कैसे फूटे? खाटी सच कई बार व्यंग्य और तंज का ही आइना बन जाता है। तुम हाथरस में जन्मी थीं। चली गईं, कहां हो? हम नहीं जानते। हम जानना भी नहीं चाहते। लेकिन इतना भरोसा है, जहां भी होगी पहले से अच्छी होगी। सुना है वहां हाथरस वाले दरिंदे नहीं पाए जाते, तो तुम सचमुच निर्भया बन गई हो। खुलकर विचरण करो। ऊपर से जरूर देखती होगी, हमारी मातम लीला।
प्रदेश में रामराज्य वाली सरकार है, इसने तुम्हारी लाश को भी नहीं बख्शा। तुम्हारी अम्मा और बप्पा भी अंतिम विदाई नहीं दे पाए। जानती हो क्यों? क्योंकि तुम मर कर बहुत शक्तिरूपा हो गई। इतनी ताकतवर की बजरंगबली से भी ज्यादा यह ताकतवर सरकार डर गई थी। थर-थर कांपने लगी थी, ऐसा कुछ ना होता तो रातो-रात तुम्हारी लाश पेट्रोल डाल कर क्यों जला देते? तुम जब थीं तो अनामा थीं, कोई नहीं जानता था तुम्हें, अब देश-दुनिया में बहुत सारे लोग जानते हैं। यही कि तुम उस पाखंडी देश में पैदा हुईं जहां कहने को कहा जाता है ‘यत्र नारी, तत्र देवा! लेकिन जमीनी हकीकत यह है जो तुमने झेली। सामूहिक दुष्कर्म हुआ, तुम्हारी जुबान तक काट दी गई, कई दिन की भयानक पीड़ा झेलने के बाद तुम निर्भया बन र्गइं। ऊपर से जमकर देखो हमारी लीला।
तुम्हारे घर-गांव, शहर में कितना तमाशा है। कमाल का जमावड़ा है। मीडिया का मेला है। चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा के लिए हथियारबंद पुलिस हैं। तुम जाते-जाते कितना खतरा बढ़ा गई हो, निर्भया? सरकार असुरक्षित, डीएम असुरक्षित, आला अफसर लग गए पड़ताल में, वह खांटी सच लाएं, तो नपें। फरेब करें तो मीडिया सवाल मिसाइल दागे! निर्भया! तुम्हें हंसी तो आती होगी, समाज की फूहड़ संवेदनशीलता पर, दरियादिली पर, सरकार कितनी मेहरबान है तुम्हारे बिलखते परिवार पर, पूरे 25 लाख दे दिये, तुमने जीते जी कभी कल्पना भी की थी इतने बड़े खजाने की? नहीं ना! बप्पा ने तो तुम्हें चार हजार रूपल्ली का मोबाइल भी लाकर नहीं दिया था। गरीबी का हवाला देकर, लेकिन तुम्हारे भाई को मोबाइल दिला दिया था, क्योंकि वह लड़का था। घर का चिराग था। पिता के घर से ही जाने-अनजाने दंश तुमने सहे। जब तुम जवान हुईं तो तुम्हारी बोटी-बोटी पर मर्दों की नजर लग गई तुम्हारा क्या दोष था?
अब ऊपर से खूब ठहाका लगाओ निर्भया! इतने ठहाके की देश की धरती हिल जाए। वे कायर दरिंदे सहम जाएं, जो बुरी नजर रखते हैं। जीते जी तुम पवित्र थी। सुकन्या थी। बचपन में नवरात्र में उन्हीं राजपूतों के घर ‘नन्ही देवी’ बनकर खाने जाती थी। व्रती चाचियां तुम्हें 2 रुपये का नोट भी देती थीं, और पैर भी छूकर आशीर्वाद लेती थीं। लेकिन यह मजाल नहीं था, कि भक्तिन चाची या चाचा तुम्हारा छुआ एक गिलास पानी भी पी लें। तुमने तो भुगता है, हमने तो केवल अनुभव किया है निर्भया! मैं भी निजी तौर से माफी मांगता हूं, क्योंकि मैं भी एक राजपूत घराने से हूं, यानी ठाकुर परिवार से। पड़ोसी ठाकुर परिवार के हरामजादों ने ही तुम्हें मौत की सौगात दी, शर्मिंदा हूं, निर्भया!
तुम जानती हो कि कौन कहां जन्म ले? यह किसी के वष में नहीं होगा। मैं ठाकुर परिवार में जन्मा तो ठाकुर, तुम दलित परिवार में जन्मीं तो दलित। जाति इस देश की नंगी हकीकत है। जातीय दर्द केवल जुमलो से नहीं मिट सकता। इसे संविधान कमजोर नहीं कर सका। क्योंकि वोट बैंक के गिद्ध बढ़ गए हैं।
निर्भया तुम मरी नहीं हो। शहीद हुई हो। जहां हो वहां दूसरे देशों की बहनों से जरूर मिली होगी। उन्हें खुल कर बताना कि तुम एक पाखंडी देश से मुक्त होकर आई हो। तुम्हारी चीत्कारें बेकार नहीं जाएंगी। वह गुस्से का लावा पैदा करेंगी। आज नहीं तो कल फिर बालिका ‘निर्भया’ नहीं बनेगी।