गलती किसी की सजा किसी को

राजीव कटारा, वरिष्ठ पत्रकार

अहिल्या की क्या गलती थी…
रंभा की क्या गलती थी…
द्रौपदी की क्या गलती थी…
और आज तमाम निर्भयाओं की क्या गलती थी। किसकी गलती की सजा भुगतती रहीं ये सब। क्या उनकी यही गलती थी कि उन्होंने नारी देह में जन्म लिया था। और उस समाज का हिस्सा थीं, जहां नारी को देवी माना जाता है। मानो औरत होने की सजा भुगत रही हों। एक पुरूष से कुछ होता है तो समाज कैसे बर्ताव करता है। और जब औरत से कुछ होता है तो किस तरह पेश आता है!
इसे अपराध का मसला कहें या सामाजिक। एक नजर में ये अपराध का मामला है। लेकिन समाज में उसके बीज हम देख सकते हैं। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि पूरा समाज उसे खारिज करने को तैयार नहीं है। कही-कहीं तो लगता है कि ये अपराध नहीं, शान है। वाह! क्या काम किया है! बदला ले लिया बेटे ने। अपने परिवार की खातिर किया है ये काम। या ‘छोटी-मोटी गलती लड़कों से हो जाती है।’
बलात्कार भी एक अपराध है। लेकिन उसकी सबसे खराब बात यह है कि जो पीड़ित है वही खुद को दोषी महसूस करता है। मानो उसने कोई गलती कर दी है। एक ऐसी गलती जिसमें उसकी कोई भूमिका नहीं, जो हुआ उसमें उसकी कोई रजामंदी नहीं। यदि जबर्दस्ती कोई चीज हो गई है तो उसमें दोषी मानने का क्या मतलब। यहां तो जबर्दस्ती हो जाए तो सबसे ज्यादा पीड़िता को ही झेलना पड़ता है। उसके साथ सहानुभूति होनी चाहिए। उसके साथ हमदर्दी होनी चाहिए। समाज उससे गुनाहगार की तरह पेश आता है।
यही समाज है जो वीर भोग्या वसुंधरा जैसे वाक्य गढ़ता है। यानी वीर ही वसुंधरा का भोग करते हैं। यह जो युद्ध के दौरान बलात्कार करने की खुली छूट होती है, उसका रिश्ता इसी तरह के महान वाक्यों से जुड़ता है। समाजशास्त्री इस तरह की हरकतों को कबीलाई रुझान से जोड़ते हैं। लेकिन उस पर भी ध्यान देना चाहिए। क्या यह जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसा नहीं है। यदि सभ्यता के किसी दौर में यह सच भी हो तो आज उसे नहीं माना जा सकता। उस रूझान के जरिए हमें बताया जाता है कि हमारा मूल स्वभाव ही हिंसक है। दलाई लामा तो हमारे स्वाभाव को हथेली और मुट्ठी से समझा देना चाहते हैं। वह कहते हैं कि जब हम सहज होते हैं तो मुट्ठी खुली रहती है। वह कोमल ही रहती है। हमें जब गुस्सा करना होता है तो मुट्ठी भींचते हैं। बौद्ध गुरु यही समझाना चाहते हैं कि हमारा मूल स्वभाव कोमल ही है, कठोर नहीं। खैर, यह समझ बदलनी जरूरी है। हमें यह बताने की जरूरत है कि हमारा मूल स्वभाव हिंसक नहीं है। हमारे मूल स्वभाव में प्यार है। हमारा मूल स्वभाव कोमल है। और हिंसक होने का मतलब है कि हम गलत काम को सही ठहरा रहे हैं।
समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया का कहना था कि नारी-पुरुष के रिश्ते में बलात्कार को छोड़ कर सब जायज है। बलात्कार तो किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है। हमारा हर रिश्ता लोकतांत्रिक होना चाहिए। कोई जोर-जबर्दस्ती की गुंजाइश ही न हो। ‘हां’ का मतलब ‘हां’ और ‘ना’ का मतलब ‘ना’। न मन पर कोई जबर्दस्ती होनी चाहिए और न शरीर पर। या तो औरत को हम देवी मानते हैं या फिर कोई वस्तु। खिलौना नहीं है वह। वह हाड़ मांस का जीव है। उसकी भी धड़कन है। वह जिसके लिए धड़कती है उसके सिवाय किसी को हाथ लगाने का हक नहीं है उसे। जब हम यह मानते हैं, तब रिश्ते खूबसूरत होते हैं। समाज बेहतर होता है।
नवरात्रि आ गयी है। हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम अपनी बेटियों को तो देवी मानते हैं लेकिन दूसरों की बेटी को बेटी तक नहीं मानते। यही त्रासदी है। हम कन्या पूजन करते हैं। लेकिन उस कन्या को कुछ हो जाए तो उसे खड़ा करने की कोई कोशिश नहीं करते। उसकी परेशानी में साथ नहीं होते। अष्टमी-नवमी पर हम उनका पूजन करते हैं। उन्हें खाना खिलाते हैं।
मत खिलाओ खाना। मत करो पूजन। बस उन्हें अपने ढंग से जीने दो। उन पर बलात कुछ भी न करो। उनकी सहमति के बगैर कुछ न करो। कम से कम उनके किसी भी मसले में बलात करने की कोशिश न करो। हम अपनी जिंदगी में जीवित जीवंत शक्ति का अपमान कर रहे हैं। हमें औरतों को एक खास दर्जा नहीं देना चाहिए। हम उन्हें न देवी मानें और न भोग्या। उन्हें बस औरत की तरह देखें। खास मानने का मतलब ही अतियों में जीना है। हमें उन अतियों से बचना होगा। इन अतियों में ही औरतों की त्रासदी के बीज छिपे हुए हैं। हम बच्ची को कन्या मान कर पूजन करते हैं। मां को देवी मानते हैं। लेकिन एक भरीपूरी औरत को कायदे से जीने का सामान नहीं देते। पीरिएड्स शुरू होने से उसके अंत हो जाने तक हम औरत के साथ बिल्कुल दूसरी तरह का सुलूक करते हैं। यही वह समय है, जब उसे सबसे ज्यादा बंधनों में रहना पड़ता है। कोई ऊंच नीच न हो जाए।
आज आप औरत के देवी होने का दर्जा खत्म कर दें। अचानक हमारी गालियों का रुख ही बदल जाएगा। गाली दी ही तब जाती है जब यह तय हो कि किसी के मर्म को चोट पहुंचाएगी। मां-बहन की गाली इसीलिए दी जाती है। और इसीलिए उनके साथ बलात्कार भी होता है। मान लो एक अपराध हो गया तो हो गया। लेकिन वह मामूली अपराध नहीं रह जाता क्योंकि समाज का ढांचा ही ऐसा है। क्या अपना समाज उनके साथ खड़ा हो पाएगा। अपनी बेटी को फिर से खड़ा कर पाएगा या अपने यहां उसे बहू बनाकर लाना चाहेगा। इन सवालों से भाग कर हम कहीं नहीं पहुंच सकेंगे।
एक तरफ मन खुश होता है कि समाज में औरतों के हालात बेहतर हो रहे हैं। अपनी जिंदगी में इससे बेहतर समय उनके लिए मैंने तो महसूस नहीं किया। हर बीतते दिन उनके हालात और बेहतर होते जा रहे हैं। ऐसे में ये बलात्कार की घटनाएं समाज में घट रहे एक चुपचाप बदलाव की जड़ें खोद रही हैं। हर सोलह मिनट में एक बलात्कार। हद है यह तो। यह समाज किधर जा रहा है। खैर, हो गया तो कम से कम अफसोस तो हो। कुछ लोगों को तो अफसोस तक नहीं होता। अब जो किया है, उसकी सजा तो मिलनी ही चाहिए। हर हाल में!

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