मंडलवाद के बाद बंटा बिहारी समाज

  • जातीय समीकरण अंतर्गत अगड़ों, पिछड़ों और दलितों का सामाजिक ध्रुवीकरण तेजी से हुआ
  • इतिहास बताता है कि लालू के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री सर्वसमाज का प्रतिनिधित्व करते रहे  

 संवाददाता

पटना (बिहार):इतिहास साक्षी है, देश की आजादी के लिए स्वाधीनता आंदोलन में बिहार के सर्वसमाज ने आगे बढ़कर सम्मिलित योगदान किया था। इसके बाद 1974 में संपूर्ण क्रांति आंदोलन और 1975 में आपातकाल के जरिये तानाशाही थोपने का विरोध भी प्रदेश के सर्वसमाज ने मिलकर ही किया और अपना समर्थन दिया। लेकिन मंडलवाद के उभार के बाद जातीय समीकरण के अंतर्गत अगड़ों, पिछड़ों और दलितों का सामाजिक ध्रुवीकरण बिहार में तेजी से हुआ। मंडलवाद युग के आगमन के बाद 1990 में लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने से पहले बिहार के सभी 23 मुख्यमंत्रियों में 12 सवर्ण समाज, तीन पिछड़ा वर्ग, दो दलित वर्ग और एक मुस्लिम समाज के थे। जाहिर है कि लालू के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री सर्वसमाज का प्रतिनिधित्व करते दिखते हैं, भले ही सर्वसमाज का विस्तार व्यापकता से नहीं रहा हो। आजादी मिलने के बाद 1952 से गुजरे 68 सालों में अब तक नीतीश कुमार को मिलाकर बिहार में 19 मुख्यमंत्रियों के हाथों में राज्य सरकारों की बागडोर रही है। इनमें चार मुख्यमंत्रियों श्रीकृष्ण सिंह, लालू प्रसाद यादव, लालू प्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी और नीतीश कुमार के पास 38 साल सत्ता रही है। 1990-2005 तक लालू-राबड़ी और 2005-2020 तक नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं।
ऐसे थे बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री
बिहार केसरी के नाम से मशहूर श्रीकृष्ण सिंह प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे, जो श्रीबाबू के नाम से भी लोकप्रिय थे। अपने उसूल से समझौता नहीं करने वाले श्रीबाबू चुनाव में अपने क्षेत्र (शेखपुरा जिला का बरबीघा) में वोट मांगने नहीं जाते थे। नवादा जिला के खनवां गांव निवासी श्रीकृष्ण सिंह ने बतौर मुख्यमंत्री 1946 से 1961 तक 15 साल बिहार की बागडोर संभाली थी। भारत को अंग्रेजी राज से आजादी मिलने से तीन साल पहले से ही बतौर मुख्यमंत्री रहे श्रीबाबू को बिहार में औद्योगिक क्रांति के लिए याद किया जाता है और आधुनिक बिहार का शिल्पकार भी कहा जाता है। उन्हें बिहार से जमींदारी प्रथा खत्म करने का श्रेय जाता है। मुख्यमंत्री रहते हुए जब वह अपने गांव आते थे, तब अपने सुरक्षाकर्मियों को बाहर ही छोड़ देते थे और कहते थे कि यह मेरा गांव है, यहां मुझे कोई खतरा नहीं है। वह हमेशा लोगों के लिए सुलभ रहते थे।
रामविलास के दो निर्णय बने मील के पत्थर
रामविलास पासवान, लालू यादव, और नीतीश कुमार को एक ही वंशवृक्ष का राजनीतिक वंशधर माना जा सकता है, क्योंकि तीनों ही 1974 के जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में करीब आए और बिहार में नए राजनीतिक अध्याय का आरंभ किया। तीनों ने गरीबी से संघर्ष करते हुए शीर्ष सियासी मुकाम हासिल किया। रामविलास पासवान को इस बात का मलाल रहा कि वह बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बन सके। रामविलास पासवान ने गांव शहरबन्नी में स्कूली पढ़ाई के बाद पटना विश्वविद्यालय से एमए और एलएलबी किया। समाजवादी नेता राम संजीवन के संपर्क में आकर राजनीति का रुख किया और 1969 में अलौली विधानसभा से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे। 1974 में वह राज नारायण और जयप्रकाश नारायण के अनुयायी के रूप में लोकदल के महासचिव बने। 1975 की इमरजेंसी में वह गिरफ्तार हुए और 1977 में जेल से छूटने के बाद जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। सर्वाधिक मतों से चुनाव जीतकर संसद में पहुंचने का वल्र्ड रिकार्ड उनके नाम दर्ज है। उन्होंने 1983 में दलित सेना की स्थापना की। उनके दो राजनीतिक निर्णय मील का पत्थर बने। पहला, बिहार के हाजीपुर में रेलवे का जोनल कार्यालय खोलना और दूसरा केन्द्र में अंबेडकर जयंती पर छुट्टी घोषित कराना।
मलाल मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री नहीं बन पाने का
रामविलास पासवान के प्रधानमंत्री बनने का भी संयोग साकार नहीं हो सका। पांच दशकों तक बिहार और देश की राजनीति में शीर्ष पर रहे रामविलास पासवान पहली बार 1989 में केन्द्रीय श्रम मंत्री बनने के बाद  देश के 6 प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में मंत्री रहे। दलित समाज से आने वाले इस नेता ने ऊंची जाति के लिए ऐसा शब्द प्रयोग नहीं किया, जिससे समाज में कटुता या अलगाव पैदा हो। साल 1996 की बात है। अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की अल्पमत सरकार गिर गई थी। कांग्रेस के समर्थन से केंद्र में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनाने की तैयारी हो रही थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री बनने से मना कर दिया था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की सहमति नहीं दे रही थी। रामविलास पासवान के देश के पहले दलित प्रधानमंत्री बनने की संभावना बनी थी, मगर मुस्लिमों-पिछड़ों के बड़े नेता मुलायम सिंह यादव ने दक्षिण भारत के नेता एचडी देवेगौड़ा का नाम आगे कर दिया। सियासत में आगे क्या हो सकता है, इसे रामविलास भांप जाते थे। इसीलिए राजद सुप्रीमो लालू यादव ने उन्हें राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा था। अब पासवान के निधन से चिराग पासवान पर खुद को साबित करने का दबाव बढ़ गया है। चिराग ने कहा है कि पापा का अंश हूं, इसलिए पता है कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में सफल होते हैं।
सदियों के वंचितों को दी हक की आवाज
बिहार में पत्नी पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के साथ 15 साल तक शासन करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का सियासी सफर 1970 के दशक में जेपी आंदोलन में शुरू हुआ। उन्होंने सड़क से सदन तक दलितों-वंचितो, पिछड़ों के लिए की लड़ाई लड़ी है। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि बिहार के सदियों से दमित दलितों-वंचितों के कंठ में हक की आवाज भरी। पहले बढ़ते अपराध और फिर चारा घोटाला मामले में फंसने पर लालू प्रसाद यादव का वोट बैंक उनसे दूर होता गया और अंततः 2005 में उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा। एक बार फिर 2015 में नीतीश कुमार के जदूय से समझौता कर लालू यादव सत्ता में वापस लौटे तो साबित हुआ कि वह सियासी दांवपेंच के कुशल खिलाड़ी हैं।
चारा घोटाले में दोषी करार होने के बाद लालू यादव पिछले तीन सालों से रांची जेल में हैं। बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे लालू यादव के छोटे पुत्र नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के सामने अब चुनावी रणनीति के नेतृत्व की चुनौती है, क्योंकि लोकसभा चुनाव 2019 में उनकी पार्टी राजद को शून्य पर आउट होना पड़ा था। चुनावों में लालू यादव का गंवई अंदाज वाला चर्चित भाषण समाज के निचले पायदान के मतदाताओं को उनसे जोड़ता रहा है। मगर 2020 के विधानसभा चुनाव के परिदृश्य में खास अंदाज वाला उनका भाषण नहीं होगा। फिर भी लालू यादव ने कहा है, सियार के हंसने से हाथी को फर्क नहीं पड़ता, संकट आया है तो जाएगा भी। नीतीश कुमार के लिए उन्हीं का दिया हुआ जुमला है पलटीमार, क्योंकि 2017 में राजद को अधर में छोड़कर नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ सरकार बना ली थी।
मुख्यमंत्री बने छह बार, 15 साल से लगातार
भाजपा के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी के साथ एनडीए सरकार का बिहार में नेतृत्व कर रहे मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उनके सात निश्चय कार्यक्रम के कारण फेम इंडिया और इंडिया पोस्ट सर्वे-2020 ने 16वें पायदान पर स्थान दिया है। बिहार के बख्तियारपुर निवासी नीतीश कुमार का चयन 1972 में बिहार कालेज आफ इंजीनियरिंग से बैचलर डिग्री हासिल करने के बाद राज्य बिजली बोर्ड में हो गया था। मगर वह राजनीति में चले गए और प्रदेश के पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में छह बार शपथ लिया यानी छह बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। 1974-1977 में जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में सक्रिय रहने के बावजूद वह लगातार दो बार विधानसभा चुनाव हार गए और तीसरी बार 1985 में चुने जा सके। 1987 में युवा लोकदल के अध्यक्ष और 1989 में बिहार जनता दल के सचिव बनाए गए। 1989 में 9वीं लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और 1990 में केन्द्रीय मंत्रीमंडल में बतौर कृषि राज्यमंत्री शामिल हुए। वह 1998-1999 में केन्द्रीय रेल एवं भूतल परिवहन मंत्री रहे। अगस्त 1999 में गैसाल रेल दुर्घटना के बाद मंत्रीपद से इस्तीफा दे दिया था। पहली बार 2000 में बिहार के मुख्यमंत्री बने, लेकिन सात दिन बाद ही त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद 2001-2004 में केन्द्रीय रेलमंत्री रहे। नीतीश कुमार नवंबर 2005 में राष्ट्रीय जनता दल की पंद्रह साल पुरानी सत्ता को उखाड़ फेंकने में सफल हुए। वह लगातार तीन बार से विधान परिषद सदस्य हैं, जिनका कार्यकाल 2024 तक है। उनका बेटा बिरला प्रौद्योगिकी संस्थान से इंजीनियरिंग स्नातक निशांत कुमार रामविलास पासवान या लालू यादव के बेटों की तरह सक्रिय राजनीति में नहींहैं।

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