कृषि सुधारों का विरोध! 

धर्मपाल धनखड़ 

सरकार ने कृषि को लेकर पहले तीन अध्यादेश जारी किये और पिछले दिनों आनन-फानन संसद में इन बिलों को पारित भी करवा दिया। बिना बहस और बिना मत विभाजन के बिलों को पारित करवाये जाने से यह कयास भी लगाए जा रहे हैं कि सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। बिल पारित करवाने की हड़बड़ी को देखते हुए सरकार की मंशा पर संदेह होना भी लाजिमी है। कृषि संबंधी बिलों का संसद के अंदर और बाहर खूब विरोध हुआ, लेकिन अंतत: ध्वनिमत से इन्हें पारित करवा दिया गया।

देश के अन्न भंडार में सर्वाधिक योगदान देने वाले पंजाब-हरियाणा के किसान कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ सड़कों पर हैं। ज्यादातर राज्यों के किसान संगठन कृषि सुधार कानूनों के विरोध में हैं। 25 अगस्त को किसानों के भारत बंद का देशभर में असर देखने को मिला। किसानों के इस विरोध के पीछे सरकार विपक्षी दलों, खासकर कांग्रेस की साजिश बता रही है। लेकिन यह सवाल भी उठता है कि सरकार को इतने महत्वपूर्ण सुधार करने से पहले किसानों और किसान संगठनों को विश्वास में लेने से किसने रोका था! सरकार इन कृषि बिलों को किसानों के फायदे का बता रही है। किसानों को मंडी और आढ़तियों के चंगुल से मुक्ति दिलवाने बात कह रही है। लेकिन किसानों और उनके संगठनों को ये क्रांतिकारी परिवर्तन और इनसे होने वाले लाभ क्यों नहीं दिखाई दे रहे! सरकार के रवैये से लगता है कि किसान महज कांग्रेस के भड़काने से ही विरोध कर रहे हैं। नि:संदेह हर विरोध के पीछे राजनीति होती है और विपक्ष में रहते हुए भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दल भी ऐसी ही राजनीति करते रहे हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना है कि विपक्ष में रहते हुए जो मसले जनविरोधी लगते हैं, सत्ता में आने के बाद वो जनहितैषी लगने लगते हैं।

ये मान भी लें कि विपक्ष विरोध की राजनीति कर रहा है, लेकिन राजग के घटक दल भी इसका विरोध कर रहे हैं। बिलों के विरोध में पहले अकाली दल (बादल) की हर सिमरत कौर बादल ने इन केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया और बाद में अकाली दल ने राजग से नाता ही तोड़ लिया। दूसरे बडे़ सहयोगी जनता दल यूनाइटेड ने भी एमएसपी से कम पर खरीद को दंडनीय अपराध बनाने की मांग सरकार से की है। सवाल ये भी है कि जब सरकार कृषि सुधार बिलों के बारे में अपने घटक दलों को ही विश्वास में नहीं ले पायी तो फिर विपक्ष पर किसानों को बरगलाने का आरोप बेमानी हो जाता है। किसान इन बिलों में केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलवाने की गारंटी का प्रावधान करने की मांग कर रहे हैं। इन कानूनों के प्रभावी होने पर मंडी और आढ़तियों के चंगुल से तो किसान मुक्त हो जायेंगे, लेकिन इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकार उन्हें पूरी तरह कारपोरेट्स के रहमो-करम पर छोड़ दे।

ये सामान्य समझ का विषय है कि जो किसान सरकारी मंडियों में आढ़ती और निजी व्यापारियों, जिनमें कारपोरेट्स भी शामिल हैं, से उचित रेट नहीं ले पाता है। वो क्या मंडी से बाहर बड़ी-बड़ी कंपनियों से उचित मोल भाव कर पायेगा। और फिर प्राइवेट कंपनियां बिना कानूनी बाध्यता के किसानों को एमएसपी से ज्यादा भाव क्यों देंगी! व्यापार का सीधा सा नियम है कम रेट पर खरीदना और ज्यादा पर बेचना। जाहिर है कारपोरेट्स अधिकतम लाभ कमाने के लिए किसान की जिंस खरीदेंगी ना कि समाज सेवा के लिए। दूसरी बड़ी आशंका है कि निजी मंडियां कर मुक्त होने से क्या सरकारी मंडियां उनसे मुकाबला कर पायेंगी। जब कुछ समय बाद स्पर्धा के चलते सरकारी मंडियां दम तोड़ देंगी, अर्थात बंद हो जायेंगी, जिसकी प्रबल आशंका भी है, तो इस बात की क्या गारंटी है कि प्राइवेट कंपनियां किसानों की मजबूरी का फायदा नहीं उठायेंगी!

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और कृषि मंत्री भी भविष्य में एमएसपी जारी रखने और सरकारी मंडियों को चालू रखने का आश्वासन दे चुके हैं। साथ ही, उन्होंने 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने की अपनी वचनबद्धता को भी दोहराया। बावजूद इसके देशभर के किसान आंदोलन की राह पर हैं। तमाम किसान संगठनों के नेता, पूरा विपक्ष और राजग के घटक दल भी किसान की जिंस, एमएसपी से कम रेट पर खरीदने को दंडनीय अपराध बनाने की मांग कर रहे हैं। इस पर सरकार का कहना है कि पहले भी एमएसपी को लेकर कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। लेकिन पहले ऐसे कृषि उपज वाणिज्य को लेकर ऐसे सुधार नहीं किये गये थे। यहां सरकार की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि 128 करोड़ देशवासियों के लिए खून-पसीना एक करके अन्न उगाने वाले किसानों के हित सुरक्षित रहे।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ये मान चुके हैं कि सरकार इन बिलों से होने वाले फायदे किसानों को नहीं समझा पायी है। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से छोटे किसानों से मिलकर नये कानूनों के फायदे समझाने की अपील की है। खैर, देर आयद, दुरुस्त आयद। किसानों के व्यापक हित को लेकर जो कानून सरकार लेकर आयी है, उनके बारे में किसान संगठनों से पहले चर्चा की जानी चाहिए थी। व्यापक विचार-विमर्श के बाद डंके की चोट पर संसद के दोनों सदनों में बहस करवा कर, बिल ध्वनिमत से पारित करवाये जाते तो सरकार की मंशा पर सवाल नहीं उठते और इसका दूरगामी राजनीतिक लाभ भी सत्तारूढ़ दल को मिलता। अब एक तरफ जहां विपक्ष को बैठे-बैठाये मुद्दा मिल गया है, वहीं किसान आंदोलन के चलते भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता भी खंडित हुई है।

 

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