लोकतंत्र ‘शोर’ के कंधों पर!

  • इन दिनों संसद से सड़क तक ध्वनि मत का मुद्दा ही जेर-ए-बहस है। हुआ यह कि राज्यसभा यानी सयाने सांसदों के सदन में ध्वनि का ही राष्ट्रीय पंगा हो गया। मनुहार के लिए किसानों को तरह-तरह के लुभावने पैकेज दिये जा रहे हैं। इस साल की एमएसपी महीनों पहले ही बढ़े दामों में घोषित हो गयी। लेकिन हंगामा बरपा है…

वीरेंद्र सेंगर

बात बहुत पहले की है। पंडित नेहरू का दौर था। अपन प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। स्कूल को गांव-घर के लोग मदरसा ही बोलते थे। इस मदरसे में कोई दो सौ बच्चे रहे होंगे। हेड मास्टर साहब साइकिल चलाकर करीब पांच मील से आते थे। थक जाते थे। सो, वह आते ही झुंझलाना शुरू कर देते। अक्सर उनकी झुंझलाहट की गाज हम मदेलों पर पड़ती। वे अक्सर छोटे बच्चों को मदेला ही बोलते थे। उनके आते ही, चैथी या पांचवी जमात के एक बच्चे से कहा जाता कि वो बीस तक पहाड़ा सबसे दोहराए। शुरू हो जाता, दो एकम दो, दो दूना चार, दो तिया छह और दो चैके आठ़…। समवेत स्वर में पहाड़े की ध्वनि आकाश तक गूंजती। ध्वनि कुछ धीमी होती तो बरामदे से मास्टर साहब डांटते, ‘तुम लोग आज रोटी खाकर नहीं आए क्या? डांट पड़ते ही सभी मदेले और जोर लगाते। मास्साब! मुस्कुराते। प्रार्थना और पहाड़ा सत्र पूरा होता तो सभी अपनी कक्षाओं को भागते।

हर शनिवार को सांस्कृतिक जमावड़ा लगता। कक्षा तीन तक के बच्चे सिर्फ श्रोता होते थे। चैथी और पांचवी जमात के बच्चों को एक-एक गाना, जरूर गाना होता था। चाहे भले वह रामायण की एक चैपाई ही सस्वर सुनाए। बाद में चैथी और पांचवी जमात के बीच अंताक्षरी प्रतियोगिता शुरू होती। फिल्मी गीतों के मुखड़े गाना विशेष रहता था। तुलसी दास की रामायण की चैपाइयां ही मुख्य हथियार बनती। जो जितना रट्टा लगाकर आता, वो उतना ही प्रतिभाग करता। इस सांस्कृतिक असेंबली में हेड मास्साब! जरूर रहते। जो बच्चे ठीक स्वर में नहीं गा पाते, उनकी खिंचाई होती। मैं चैथी जमात में था, तमाम बच्चों से लंबा था। तो मास्साब अक्सर लंबू! ही संबोधित करते। जैसे ही वे जोर से कहते ‘हां, तो लंबू कुछ सुनाओ!’ शुरू हो जाता। मास्साब बोलते, स्वर कुछ धीमा करो, वर्ना गांव के सभी गधे दौड़ते हुए आ जाएंगे। इसी के साथ हंसी का तेज फव्वारा उठता, देर तक ख्लि-खिल सुनाई पड़ता।

अहो! गर्दभ अहो! अहो रूपम, बडौ अहो ध्वनिम!…एक पाठय पुस्तक में एक पाठ था कि कैसे दो गदहे एक दूसरे की प्रशंसा करते हैं। मास्साब को जब खिंचाई करने का मन होता तो वे किसी बच्चे के गाने पर यह तंज कसते। बच्चा शरमा जाता। दूसरे बच्चे खुशी जाहिर करते। उसी दौर में मुझे ध्वनि के महत्व का परमज्ञान हो गया था। यही कि ध्वनि में बहुत बहुत हैं गुन। इसके नाना रूप भी हैं। गाली देने की अलग ध्वनि होती है। प्रार्थना करने की अलग, प्यार करने में तो ध्वनि की भी जरूरत नहीं होती। जोर से बात जमाने के लिए थोड़ी कर्कश ध्वनि भी चलती है। छोटों पर रौब जमाने के लिए स्टाइलिश ध्वनि की जरूरत होती है। जानवरों को डांटने के लिए तू-तड़ाक की ध्वनि निकालनी होती है। सामने जहरीला सांप आ जाए! तो डरी हुई ध्वनि निकालनी होती है। ध्वनि के तमाम आरोह-अवरोह हम रोज भुगतते हैं।

इन दिनों संसद से लेकर सड़क तक ध्वनि मत का मुद्दा ही जेर-ए-बहस है। हुआ यह कि राज्यसभा यानी सयाने सांसदों के सदन में ध्वनि का ही राष्ट्रीय पंगा हो गया। मनुहार के लिए किसानों को तरह-तरह के लुभावने पैकेज दिये जा रहे हैं। रिझाने को इस साल की न्यूनतम उपज मूल्य यानी एमएसपी महीनों पहले ही बढ़े दामों में घोषित हो गयी। लेकिन हंगामा बरपा है। कहीं सड़क जाम हो रही है। कहीं रेल का चक्का जाम। संसद से लेकर गांव तक सरकार से पंगा लेने के तेवर। बस, बात यही कि किसान विरोधी विधेयक ध्वनि मत से क्यों पास कर दिये? मत विभाजन क्यों नहीं कराए?

अरे! ये भी कोई बात हुई? दिल्ली में सालों से धुर राष्ट्रवादी सरकार बैठी है। वो तोड़ने और विभाजन जैसे शब्दों से ही सख्त परहेज करती है। ये सरकार तो जोड़ने आयी है। विभाजन करने नहीं? ये बेचारे! इतना भी नहीं समझते।  सरकार लगातार कहती रही कि नये विधेयक किसानों की और भलाई के लिए है। लेकिन नकारात्मकता भरी सोच से प्रेरित विपक्ष ध्वनि मत पर ही सवाल कर रहा है। उप सभापति की कुर्सी पर देश के परमज्ञानी ब्रांड के पत्रकार रहे टर्न कोट बैठे हे। इन्हीं पर सब उंगली कर रहे है। वे ही खास निशाने पर हैं। जबकि वे बापू वादी हैं। जेपी वादी हैं। नीतीश वादी हैं। अब तो साहेब वादी भी हो गये हैं। फिर भी हंगामा बरपा है। उन्हें पत्रकार बिरादरी ही दौड़ाए हैं। इन्हें नकली जनवादी बता रहे हैं। कहते हैं कि ध्वनि करने वाले कुकुर कभी अपनी बिरादरी का साथ निभाते नहीं हैं। जब सामने कोई और न हो, तो एक-दूसरे पर ही भौं-भौं करते हैं। नजारा कुछ ऐसा ही रहा।

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