बापू होते तो चुप न बैठते

राजीव कटारा

मेरे बाबा किसान थे। पिता मजदूर नेता थे। और अपना बचपन दिल्ली के राजघाट में बीता। न तो मैं किसान हूं और न ही मजदूर। हां, अखबार की दुनिया का एक कर्मचारी जरूर रहा हूं। कुछ-कुछ दुख-दर्द मैं उनके जरूर जानता हूं। और उनसे सहानुभूति रखता हूं। पिछले दिनों हमारी सरकार ने किसान और मजदूरों के लिए जो भी किया, उससे मुझे दुख होना ही था। शायद ही पिछली कोई सरकार हो जिसने मजदूर और किसानों की ऐसी हालत की हो।

राजघाट में मेरा बचपन ही नहीं बीता है, मैं गांधीजी को बहुत मानता रहा हूं। धीरे-धीरे मेरी यह समझ बनी है कि अपने समाज के लिए तो गांधीजी ही बने हैं। वही अपने ‘रोल मॉडल’ हैं। ‘सबसे पहले आखिरी आदमी के बारे में सोचो।‘ क्या सोच है? इस देश का राष्ट्रपिता वही हो सकता है जो यहां के आखिरी आदमी को केंद्र में रख कर सोचता हो। यदि यही एक वाक्य मुझे मिला होता तो भी मैं उनका फैन हो गया होता। गांधीजी के साथ और बहुत सी चीजें हैं, जिसने मुझे उनका मुरीद बनाया।

आज गांधीजी होते तो क्या करते? यह सवाल हर संकट के समय उठता है। शायद इसलिए उठता है क्योंकि हम उसमें से कोई रास्ता निकलता देखते हैं। हम चाहते हैं कि बापू अब भी हमें कोई रास्ता दिखाएं। शायद इसीलिए आज भी हम कोई आंदोलन करते हैं तो राजघाट जाने की इच्छा होती है। यह इच्छा कुछ लोगों के लिए नाटक भी हो सकती है। लेकिन ज्यादातर लोगों के लिए वह किसी बड़े काम से पहले मंदिर जाने जैसा है।

मैं यह सोच ही रहा था कि बापू क्या करते? तभी मुझे एक किस्सा धुंधला-धुंधला याद आने लगा। मैं महादेव देसाई की शरण में चला गया। उनकी किसी किताब में ही पढ़ा था। खैर, वह याद आई। वह किताब थी ‘एक धर्मयुद्ध’। महादेव भाई तो गांधीजी की छाया थे। वह उनके सचिव थे। 1918 की बात है। अहमदाबाद की साराभाई मिल में मजदूरों ने अपनी मजदूरी बढ़ाने के लिए आंदोलन किया। मजदूरों की मांग को सही मान रही थीं अनसूया बहन। वह मिल मालिक अंबालाल की बहन थीं। और गांधीजी से प्रभावित थीं।

शुरुआत यहां से हुई थी कि मजदूर 50 फीसदी मजदूरी बढ़ाने की बात कर रहे थे। मजदूरी बढ़ाने की बात आमतौर पर मालिकान को समझ में कहां आती है। वह तो उसे टालने में लगे रहते हैं। खैर, उन पर दबाव बढ़ा तो मालिकान 20 फीसदी के लिए राजी हो गए थे। एक वक्त तो मजदूर 50 फीसदी पर अड़े रहे। लेकिन फिर वे गांधीजी के समझाने से 35 फीसदी बढ़ोतरी के लिए राजी हो गए। अब मजदूर तो मान गए लेकिन मालिकान उसके लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने ‘लॉकआउट’ कर दिया। मजदूरों को बहलाने-फुसलाने और धमकाने की भी कोशिश की। यह पैंतरा भी फेंका कि 20 फीसदी को जो तैयार हैं, वे मिल में आ सकते हैं। बाकी को वे निकाल रहे हैं। मजदूर उनकी बातों में नहीं आएं।

समझौता हो नहीं रहा था और सत्याग्रह की नौबत आई। गांधीजी ने मिल मजदूरों से प्रतिज्ञा करवाई कि जब तक मजदूरी में 35 फीसदी वृद्धि      न हो तब तक काम पर वापस नहीं जाएंगे। अब मजदूर हड़ताल पर थे। उनका खाना-पानी कैसे हो? तब अनुसूया बहन उनके खाने का इंतजाम करती रहीं। गांधीजी ने कहा कि यह ठीक नहीं है। ऐसे सत्याग्रह नहीं होता। उन्हें ये काम अपने आप करने दो। उन्हें कमजोर मत बनाओ। अपने हक के लिए यदि उन्हें भूखों रहना पड़े, तब भी ठीक है। एक दिन गांधीजी उनकी सभा में पहुंचे और बोले, ‘मैं इस बात को एक क्षण के लिए भी सह नहीं सकता कि आप अपनी प्रतिज्ञा से टलें। जब तक आपको 35 टका भत्ता नहीं मिलता या आप सब हार नहीं जाते, तब तक न मैं खाना खाऊंगा और न मोटर का उपयोग करूंगा।‘

महादेव देसाई का कहना था कि उस प्रतिज्ञा के बाद वहां मौजूद हर आदमी रोने लगा था। उन्हें मनाने की तमाम कोशिशें हुई थीं लेकिन वह अड़े रहे। तीन दिन के बाद मालिकों ने मजदूरों की बात मान ली। गांधीजी का अनशन खत्म हुआ और मजदूरों को मनचाही बढ़ोतरी मिल गई। यह गांधीजी का हिंदुस्तान में पहला अनशन था। इस अभूतपूर्व घटना पर ही महादेव भाई ने यह किताब लिखी थी। एक ओर गांधीजी अहमदाबाद में इस मजदूर समस्या से निपट रहे थे, दूसरी ओर वह खेड़ा के किसानों के दुख-दर्द से रूबरू हो रहे थे। उन्हें सत्याग्रह के लिए तैयार कर रहे थे। यही वक्त था जब उन्होंने वल्लभभाई पटेल जैसे शहरी वकील को किसान बना डाला था। खेड़ा आंदोलन में पटेल साहब ने जो किया वह तो इतिहास ही है।

चंपारण एक और मुकाम है गांधीजी की जिंदगी में। 1917 का चंपारण का सत्याग्रह तो अपने किसानों के खड़े हो जाने की मिसाल है। चंपारण में गांधीजी एक प्रयोग कर रहे थे। वह प्रयोग गजब का कामयाब हुआ। नीले साहबों के आतंक से अपने किसानों को मुक्त किया था गांधीजी ने। यही नहीं, वहीं से कायदे के एक राष्ट्रीय आंदोलन की तैयारी हो गई थी। गांधीजी मजदूर-किसानों की तकलीफों को समझ रहे थे। महज सहानुभूति ही नहीं रख रहे थे। उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश भी कर रहे थे। उन्हें एक बड़े आंदोलन से भी जोड़ रहे थे।

आज गांधीजी होते तो क्या करते? यह सवाल तो उठना ही है। गांधीजी को मानने वालों के लिए तो यह सवाल बेहद जरूरी है। और यह कोई फंतासी नहीं है। मुझे तो लगता है कि यदि आज गांधीजी होते तो जरूर सड़क पर आ जाते। किसानों-मजदूरों के साथ खड़े हो जाते। और कोई प्रतिज्ञा दिला रहे होते कि जब तक ये मनमानी खत्म नहीं हो जाती, हम अपने घरों में नहीं जाएंगे।

किसी भी दौर से कहीं ज्यादा आज उनकी कमी अखर रही है। वह तो नहीं हैं। शरीर की एक सीमा है। उसे तो एक दिन खत्म होना ही है। लेकिन उनकी आत्मा तो हमारे साथ है ही। उनके आचार और विचार को तो हम जानते ही हैं। और उनके साथ हम एक सही लड़ाई लड़ सकते हैं। रास्ता वह दिखा ही गए हैं। हमें उसे अमल में लाना है। सत्ता हमारे साथ कुछ भी कर सकती है। यह सोच बदलनी ही होगी। इसीलिए अपनी बात तो रख ही सकते हैं। अपनी चिंताएं जता सकते हैं। एक पुरजोर विरोध तो कर ही सकते हैं।

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