माचो राष्ट्रवाद!

अरुण माहेश्वरी

सीमा पर जब गोलियाँ चलती हैं, बंकर ध्वस्त होते हैं या कुछ सैनिक शहीद होते हैं, कुछ नागरिकों की भी जानें जाती है तो यह सब सीमा पर होने वाली झड़प कहलाते हैं। पर जब वही झड़प सामाजिक चेतना में एक जगह घेरने लगती है, मीडिया में राजनीति का ‘चक्रव्यूह’ रचने लगती है, और सत्ता के मंचों से उसके दृश्य प्रसारित होने लगते हैं — तब वह एक घटना का, एक सामूहिक चेतना का रूप लेने लगती है।

फिर भी स्लावोय जिजेक जिसे ‘घटना’ कहते हैं, एक चमत्कारी परिणाम, ऐसी झड़पों को शायद वैसा कुछ नहीं कहा जा सकता है, जबकि आज के सुपरसोनिक हथियारों के काल में अनपेक्षित रूप में, पलक झपकते किसी भी चमत्कार के घटित होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है ।

झड़प को ‘घटना’ कहना तभी उचित होता है जब वह यथास्थिति में किसी विस्फोटक परिवर्तन को सूचित करें । अब, भले ट्रंप के दबाव से ही, जब दोनों ओर से गोलाबारी बंद करने और बैठ कर बातचीत करने की घोषणा की जा रही है, उसका चमत्कारी पहलू यही है कि जो संपर्क पिछले कई सालों से खत्म हो गये थे, वार्ता की शक्ल में वे उनमें फिर से एक सुगबुगाहट होगी । और जब वार्ता होगी, तो उससे आगे के और भी रास्ते खुल सकते हैं जो दोनों देशों के संबंधों के लिए चमत्कारी हो सकते हैं ।

इसलिए अब तक जो हुआ है उसे अधिक से अधिक एक घटना-पूर्व हलचल कहा जा सकता है । यानी अभी तक वह क्षण नहीं आया है जब यह झड़प किसी ‘घटना’ में रूपांतरित हो। इसका कुल आकार-प्रकार रेत पर बनाई गई किसी आक्रामक आकृति से अधिक नहीं है जो पानी की पहली लहर में ही मिट सकती है।

हमारी नजर में एक बड़ा परिवर्तन यह जरूर हुआ है कि ‘आतंकवादी हलचलों को युद्ध’ माना जायेगा की तरह के जुमलों का दो कौड़ी का दाम नहीं बचा है ।

इसके अलावा पुलवामा के बाद बालाकोट स्ट्राइक से ‘घुस कर मारा’ का जो नैरेटिव गढ़ा गया था, जो असल में एक अस्पष्ट स्थिति पर आधारित था, क्योंकि न पाकिस्तान ने स्वीकारा कि उसे कोई नुकसान हुआ और न भारत ने कोई ठोस सबूत दिए, उसे ‘विजय पताका’ की तरह खूब फहराया गया, वह नैरेटिव भी अब भक्तों के सपनों की बुदबुदाहट भर बन कर रह जायेगा।

इस झड़प ने भारत को इज़राइल बनाने के भ्रामक विचार का भी अंत कर दिया है । ‘अस्तित्व की रक्षा’ के लिए जूझ रहे इजरायल के सांचे में भारत को देखने का विचार खुद में एक बेतुका विचार है, ऊपर से पाकिस्तान जैसी परमाणु शक्ति को निहत्थे फिलिस्तीनियों के रूप में देखना और भी मूर्खतापूर्ण है । इसके अलावा भू-राजनीति में इस क्षेत्र में चीन की मौजूदगी के अर्थ को न समझना किसी भी रणनीतिकार के लिए अपराध से कम नहीं है ।

इन सबके बावजूद, इस झड़प को जिस तरह से दृश्यात्मक रूप में रचा और दिखाया गया, उससे साफ है कि इसका उद्देश्य सीमाओं पर कोई ठोस रणनीतिक बढ़त हासिल करने से ज्यादा घरेलू मोर्चे पर जनता के बीच अंध-राष्ट्रवाद की आंधी तैयार करना था । मोदी के गोदी मीडिया ने तो इस्लामाबाद तक भारत की सेना को पहुँचा दिया था । सारी कोशिश इस संघर्ष के पीछे की जटिलताओं और मोदी की घरेलू सुरक्षा के मोर्चे पर ऐतिहासिक विफलताओं को छिपाने और चीख-चिल्ला कर एक तेजस्वी, विजयी राष्ट्र की छवि गढ़ने की रही । यही माचो राष्ट्रवाद कहलाता है । अपनी विफलताओं को स्वीकार करने के बजाय एक बलिष्ठ छवि का प्रदर्शन करना ।

बहरहाल, अंत में यही सवाल रह गया है कि इतने संसाधनों, सैनिक प्रबंधों, और राजनीतिक शोरगुल के बाद वास्तव में हासिल क्या हुआ ? इससे न किसी समस्या का कोई स्थायी समाधान हुआ, न कोई व्यापक शांति, न ही किसी प्रकार का संरचनात्मक सुदृढ़ीकरण। सिर्फ एक क्षणिक उत्तेजना पैदा हुई, जो एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक जीवित रहा करती है, और सत्ता को खुद से यह कहने का अवसर देती है कि “हमने फिर से कर दिखाया”।

बर्टोल्ट ब्रेख्त ने कहा था: “युद्ध वह तरीका है, जिससे सत्ता लोगों से उनकी गरीबी भुलवाती है।” यह विनाश के माध्यम से ध्यान भटकाने का सबसे आसान तरीका है।

(लेखक सुप्रसिद्ध साहित्यिक आलोचक, राजनीतिक टिप्पणीकार, स्तंभ लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं। संपर्क : 98310-97219)

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