भरपूरगढ़ का कोठा: गढ़वाली वास्तुकला का ऐतिहासिक वैभव

शीशपाल गुसाईं

गढ़वाल की सांस्कृतिक और स्थापत्य परंपराओं का एक अनमोल रत्न है “कोठा”, जो न केवल एक भवन संरचना है, बल्कि सामाजिक वैभव, शिल्पकला और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतीक भी है। यह गढ़वाली समाज की समृद्ध परंपराओं और स्थापत्य कौशल का जीवंत दस्तावेज है, जो पत्थर, लकड़ी और शिल्पकला के माध्यम से अपनी कहानी कहता है। प्रसिद्ध इतिहासकार पुरातत्व विद पद्मश्री डॉ. यशवंत सिंह कठोच के अनुसार, कोठा, कूड़ो और तिबारी जैसी संरचनाएँ गढ़वाली वास्तुकला की आत्मा हैं, जिन्हें ओड जाति के कुशल शिल्पकारों ने अपने हुनर से जीवंत किया। किंतु, सामाजिक परिवर्तनों के साथ यह कला धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में समा रही है। आइए, इस ऐतिहासिक धरोहर को गहराई से समझते हैं।

निचला तल “ओबरा” और ऊपरी तल “पाण्डा” कहलाता था

गढ़वाली समाज में आवासीय भवनों का निर्माण सामाजिक स्तर और आर्थिक समृद्धि के अनुसार होता था। साधारण आवासगृहों में निचला तल “ओबरा” और ऊपरी तल “पाण्डा” कहलाता था। ये संरचनाएँ सामान्य जनों के लिए थीं, जो कार्यात्मक और सरल होती थीं। किंतु, कोठा, तिबारी और ड्योढ़ी सम्पन्नजनों की पहचान थीं। इन्हें केवल “सायना” (प्रतिष्ठित व्यक्ति), “बूढ़े” (गाँव के बुजुर्ग या सम्मानित लोग) और “थोकदार” (जमींदार या प्रभावशाली लोग) ही बनवा सकते थे। ये संरचनाएँ न केवल आवास थीं, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा और सांस्कृतिक परंपराओं का प्रतीक भी थीं। कोठा एक ऐसी भव्य संरचना थी, जो गढ़वाली वास्तुकला का सर्वोच्च नमूना थी। यह सामान्य कूड़ो (छोटे घर) से भिन्न था, क्योंकि इसका निर्माण और सज्जा उच्च स्तर की शिल्पकला और संसाधनों की माँग करती थी। तिबारी कोठे का वह खुला बरामदा था, जो सामाजिक मेल-मिलाप और विश्राम के लिए बनाया जाता था। यह तीन से नौ काष्ठ खंभों पर टिकी होती थी, जो इसे एक विशिष्ट सौंदर्य और मजबूती प्रदान करते थे। “कूड़ो” सामान्य जनों के छोटे और कार्यात्मक घर थे, जिनमें सज्जा और भव्यता की तुलना में आवश्यकता को प्राथमिकता दी जाती थी।

कोठे का प्रमुख द्वार खोली आत्मा होती थी

कोठे का प्रमुख द्वार “खोली” कहलाता था, जो इसकी आत्मा थी। खोली के द्वार-पक्ष काष्ठ शिल्प की उत्कृष्ट कारीगरी से सुसज्जित होते थे। इन पर नक्काशी इतनी बारीक और शानदार होती थी कि यह देखने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती थी। खोली के ललाट पर मंगलमूर्ति गणेश की मूर्ति उकेरी जाती थी, जो गढ़वाली वास्तुकला का एक अनिवार्य तत्व था। “खोली को गणेश” और “मोरी को नारायण” का सिद्धांत गढ़वाल में गहरे तक समाया था। यहाँ तक कि सामान्य कूड़ो में भी लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार इन मंगल प्रतीकों को शामिल करते थे, ताकि उनके घर में सुख-समृद्धि और शांति बनी रहे। कोठे के ऊपरी तल पर खुली तिबारी और डंडेली होती थी, जो सामाजिक और पारिवारिक गतिविधियों का केंद्र थी। तिबारी में काष्ठ खंभों की संख्या और उनकी नक्काशी सम्पन्नता का प्रतीक थी। छज्जा (छत का बाहर निकला हुआ हिस्सा) भी सम्पन्नजनों की पहचान था, जो न केवल सौंदर्यवर्धक था, बल्कि कार्यात्मक भी था, क्योंकि यह वर्षा और धूप से सुरक्षा प्रदान करता था। कोठे और कूड़ो की दीवारें पत्थरों से बनाई जाती थीं, जो गढ़वाल की पहाड़ी भू-संरचना के अनुकूल थीं। द्वार, मोरी (खिड़की), देवद्वार, तुन और अन्य हिस्से देवदार, चीड़ या अन्य मजबूत लकड़ियों से निर्मित होते थे। पठाल (पत्थर की छत) का प्रयोग घरों को मजबूती और ठंडक प्रदान करता था। पठाल के नीचे प्रकाश और वायु-संचार के लिए “वाड़ी” बनाई जाती थी, जिसे आवश्यकता पड़ने पर अंदर से बंद किया जा सकता था। यह संरचनाएँ न केवल पर्यावरण के अनुकूल थीं, बल्कि गढ़वाली जीवनशैली और जलवायु की आवश्यकताओं को भी पूरा करती थीं।

गढ़वाली वास्तुकला का सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ

गढ़वाली वास्तुकला केवल भौतिक संरचनाओं तक सीमित नहीं थी; यह समाज की सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं का भी प्रतिबिंब थी। कोठे का निर्माण एक सामाजिक उत्सव की तरह होता था, जिसमें गाँव के लोग और शिल्पकार एकजुट होकर कार्य करते थे। ओड जाति के शिल्पकार, जिन्हें इस कला का पारंपरिक ज्ञान पीढ़ियों से प्राप्त था, कोठे की नक्काशी और संरचना में अपनी आत्मा उड़ेल देते थे। गणेश और नारायण की मूर्तियाँ, काष्ठ खंभों पर की गई नक्काशी, और द्वारों की सज्जा में गढ़वाली लोककथाओं, धार्मिक विश्वासों और प्रकृति के प्रति श्रद्धा की झलक मिलती थी। तिबारी सामाजिक मेल-मिलाप का केंद्र थी, जहाँ परिवार और गाँव के लोग एकत्र होकर कहानियाँ, गीत और परंपराएँ साझा करते थे। यह गढ़वाली समाज की सामुदायिकता और एकजुटता का प्रतीक थी। कोठा केवल एक घर नहीं था; यह गढ़वाली संस्कृति, सामाजिक संरचना और आर्थिक समृद्धि का दर्पण था।

ढेबर ,घर की संरचना में सौंदर्य व उपयोगिता दोनों जोड़ता है

ढेबर, गढ़वाल में पारंपरिक घरों में पाया जाने वाला एक अट्टालिका या ऊपरी मंजिल का हिस्सा है, जिसे भंडारण या रहने के लिए उपयोग किया जाता है। यह लकड़ी और पत्थर से बनी वास्तु कला का एक अनूठा नमूना होता है, जो स्थानीय शिल्पकला और पर्यावरण के अनुकूल निर्माण को दर्शाता है। ढेबर का उपयोग अक्सर अनाज, बर्तन, या अन्य सामान रखने के लिए किया जाता था और यह घर की संरचना में सौंदर्य व उपयोगिता दोनों जोड़ता है।

युवा पीढ़ी को दिलचस्पी नहीं, वास्तुकला की यह समृद्ध परंपरा अब लुप्तप्राय की ओर

पद्मश्री डॉ. यशवंत सिंह कठोच के अनुसार, गढ़वाली वास्तुकला की यह समृद्ध परंपरा अब लुप्तप्राय हो रही है। आधुनिकता और सामाजिक बदलावों के साथ ओड जाति के शिल्पकार इस पारंपरिक कला को भूल रहे हैं। कंक्रीट और स्टील की नई निर्माण तकनीकों ने पत्थर और लकड़ी की पारंपरिक संरचनाओं को हाशिए पर धकेल दिया है। कोठा, तिबारी और कूड़ो जैसे शब्द अब केवल इतिहास की किताबों और बुजुर्गों की स्मृतियों में जीवित हैं। इसके अतिरिक्त, गढ़वाल के गाँवों से पलायन और शहरीकरण ने भी इस कला को प्रभावित किया है। युवा पीढ़ी को इस पारंपरिक शिल्प का ज्ञान और महत्व समझाने की आवश्यकता है। यदि इस दिशा में प्रयास नहीं किए गए, तो गढ़वाली वास्तुकला का यह अनमोल खजाना हमेशा के लिए खो सकता है।

संदर्भ – डॉ. यशवंत सिंह कटोच , उत्तराखण्ड का नवीनतम इतिहास
श्री अनिल रतूड़ी , पूर्व डीजीपी , उत्त्तराखण्ड
श्री सुरेंद्र सिंह सजवाण, अध्यक्ष उत्तराखंड किसान सभा।

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