हरीश रावत: उत्तराखंड के राजनीतिक क्षितिज का सशक्त नायक

77 वें जन्मदिन पर विशेष

शीशपाल गुसाईं

हरीश रावत उत्तराखंड की सियासत का एक ऐसा सितारा हैं, जो बार-बार बादलों के पीछे छिपने के बावजूद अपनी चमक बरकरार रखता है। उनकी हार ने उनके आलोचकों को बोलने का मौका दिया, किंतु उनकी सक्रियता और पहाड़ी संस्कृति के प्रति प्रेम ने उनके समर्थकों का विश्वास और मजबूत किया।

उत्तराखंड की पहाड़ी वादियों में हरीश रावत का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं। एक ऐसे राजनेता, जिन्होंने ब्लॉक स्तर की राजनीति से लेकर केंद्र में कैबिनेट मंत्री और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद तक का सफर तय किया, उनकी सियासी यात्रा उतार-चढ़ाव से भरी रही है। हाल के वर्षों में, विशेषकर 2017 और 2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मिली हार के बाद, कुछ लोग यह कहने लगे हैं कि हरीश रावत को अब सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए और अगली पीढ़ी को नेतृत्व सौंप देना चाहिए। किंतु, रावत का जोश, उनकी सक्रियता, और पहाड़ी संस्कृति व उत्पादों के प्रति उनका प्रेम इस बात का प्रमाण है कि वे अभी भी सियासत के मैदान में डटे हुए हैं।

*सियासत में हार और फिर उभरने की कला*

हरीश रावत की राजनीतिक यात्रा को देखें तो यह स्पष्ट होता है कि वे हार के बाद भी बार-बार नए उत्साह के साथ जनता के बीच लौटे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा, दोनों सीटों पर पराजय, और 2019 के लोकसभा चुनाव में नैनीताल सीट पर भारी अंतर से हार, निश्चित रूप से उनके लिए कठिन क्षण थे। फिर भी, रावत ने न तो हिम्मत हारी और न ही अपनी सक्रियता में कमी आने दी। उनकी गंगा सम्मान यात्रा हो या पहाड़ी उत्पादों का फेसबुक पर प्रचार-प्रसार, रावत आज भी उत्तराखंड की जनता के बीच उतने ही जीवंत और प्रासंगिक हैं, जितने वे अपने सियासी शिखर पर थे। कुछ लोग कहते हैं कि हरीश रावत की लगातार हार ने कांग्रेस की स्थिति को कमजोर किया है। उनके आलोचक यह तर्क देते हैं कि रावत का व्यक्तिगत प्रभाव और परिवारवाद ने पार्टी के भीतर नए नेतृत्व को उभरने से रोका। किंतु, दूसरी ओर, रावत के समर्थक यह मानते हैं कि उत्तराखंड में कांग्रेस की जो साख आज बची है, वह रावत के अथक परिश्रम और जनता से उनके गहरे जुड़ाव का ही परिणाम है। यह सत्य है कि रावत कांग्रेस के लिए एक ध्रुव तारा रहे हैं, जिनके इर्द-गिर्द पार्टी का संगठन और कार्यकर्ता एकजुट होते हैं।

*परिवार को सियासी विरासत सौंपने की चाह*

हरीश रावत की सियासी महत्वाकांक्षा केवल उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियों तक सीमित नहीं रही। वे अपनी अगली पीढ़ी को भी उत्तराखंड की राजनीति में स्थापित करना चाहते हैं। उनकी बेटी, अनुपमा रावत, जो उनकी दूसरी पत्नी रेणुका रावत से हैं, 2022 के विधानसभा चुनाव में हरिद्वार ग्रामीण से विधायक बनीं। यह जीत रावत के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, क्योंकि यह उनकी सियासी विरासत को आगे बढ़ाने की दिशा में एक ठोस कदम था। अब रावत के दो पुत्र, आनंद रावत और वीरेंद्र रावत, जो उनकी पहली पत्नी से हैं, भी सियासत में अपनी जगह बनाने के लिए प्रयासरत हैं। विशेषकर आनंद रावत, जो शिक्षित और समझदार व्यक्तित्व के धनी हैं, ने उत्तराखंड यूथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया है। 2024 के लोकसभा चुनाव में हरिद्वार सीट से वीरेंद्र रावत को टिकट मिलना इस बात का संकेत है कि हरीश रावत अपनी सियासी विरासत को अपने दोनों पुत्रों तक विस्तार देना चाहते हैं। किंतु, आनंद रावत को अभी तक कोई बड़ा टिकट न मिल पाना उनके लिए और रावत परिवार के लिए एक चुनौती बना हुआ है।

*1971 से 1973 तक भिकियासैंण से ब्लॉक प्रमुख रहे, दो बार लोकसभा चुनाव में मुरली मनोहर जोशी को हरा कर बड़े नेता बने।*

हरीश रावत की राजनीति जमीनी स्तर से शुरू होकर राष्ट्रीय क्षितिज तक फैली। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत अल्मोड़ा जिले के भिकियासैंण ब्लॉक स्तर से शुरू की। 1971से 73 तक वह ब्लॉक प्रमुख रहे और धीरे-धीरे युवा कांग्रेस के साथ जुड़कर अपनी नेतृत्व क्षमता का लोहा मनवाया। 1973 में जिला युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बनने के बाद उनकी संगठनात्मक प्रतिभा ने नया आयाम लिया। उनकी यह यात्रा 1980 और 1984 में अल्मोड़ा लोकसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज मुरली मनोहर जोशी को पराजित करने के साथ निर्णायक मोड़ पर पहुंची। यह विजय न केवल एक चुनावी सफलता थी, बल्कि एक युवा नेता के उदय का प्रतीक थी, जिसने उत्तराखंड की राजनीति में अपनी अमिट छाप छोड़ी। 1989 तक अल्मोड़ा से लगातार जीत ने उनकी रणनीतिक कुशलता और जनता के प्रति गहरी संवेदनशीलता को और सशक्त किया। हरीश रावत 1991 में बीजेपी के जीवन शर्मा से हार गए। इसके बाद वे 1996, 1998 और 1999 में बीजेपी के बच्ची सिंह रावत से लगातार हारते रहे। 2004 में उनकी पत्नी रेणुका रावत भी बच्ची सिंह रावत से हार गईं, जो बच्ची सिंह का आखिरी चुनाव था। 2009 में अल्मोड़ा सीट आरक्षित हो गई। उसी वर्ष हरिद्वार ने हरीश रावत को राजनीतिक पुनर्जन्म दिया। 2019 में उन्हें हरिद्वार छोड़कर रातोंरात नैनीताल-उधमसिंह नगर नहीं जाना चाहिए था, जहां अजय भट्ट से बड़ी हार ने उन्हें फिर छोटा कर दिया। बाद में हरिद्वार ग्रामीण विधानसभा सीट ने उनकी प्रतिष्ठा बचाई।

*उत्तराखंड आंदोलन और राज्य निर्माण में योगदान*

1990 के दशक में जब उत्तराखंड में अलग राज्य की मांग ने जोर पकड़ा, हरीश रावत इस आंदोलन के प्रबल समर्थक बने। पहाड़ी क्षेत्रों की जटिल चुनौतियों को समझने वाले रावत ने जन-आकांक्षाओं को आवाज दी और लोगों के दिलों में जगह बनाई। 2000 में उत्तराखंड के गठन के बाद, उन्होंने 2002 में उत्तराखंड कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में नेतृत्व संभाला और प्रथम विधानसभा चुनाव में पार्टी को शानदार जीत दिलाई। भले ही उन्हें मुख्यमंत्री पद न मिला, लेकिन उन्होंने संगठन को मजबूत करने और जनता से जुड़ने में कोई कमी नहीं छोड़ी। 2 मार्च 2002 को देहरादून के ओएनजीसी हॉल में मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने शपथ ग्रहण की थी। उस दिन गुलाम नबी आजाद हरीश रावत को वहाँ लेकर आए थे। मैं भी टिहरी से शपथ ग्रहण समारोह देखने आया था, क्योंकि टिहरी के तीन मंत्रियों ने उस दिन शपथ ली थी। अपराह्न में भारी भीड़ के बीच गुलाम नबी आजाद, हरीश रावत को मंच तक ले गए। फिर, तिवारी जी और अन्य मंत्रियों ने शपथ ली। हरीश रावत नाराज दिख रहे थे; वह उन दिनों कुर्ता-पायजामा पहनते थे। उन्हें शायद इस बात का दुख था कि 1980 के दशक के बाद उन्होंने कांग्रेस सरकार बनवाई, लेकिन नई दिल्ली ने सत्ता किसी और को सौंप दी। हालांकि, यदि हम 2025 के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यदि नारायण दत्त तिवारी उत्तराखंड में नहीं आते, तो बाजार और उद्योग की जीडीपी इतनी नहीं होती।

*केंद्रीय मंत्रिमंडल में योगदान*

हरीश रावत की प्रतिभा ने राष्ट्रीय मंच पर भी अपनी चमक बिखेरी। 2009 में हरिद्वार से सांसद चुने जाने के बाद, उन्होंने यूपीए सरकार में कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों में अपनी सेवाएँ दीं। 2009-2011 तक श्रम और रोजगार राज्य मंत्री, 2011-2012 में कृषि, खाद्य प्रसंस्करण और संसदीय कार्य मंत्री, तथा 2012-2014 तक जल संसाधन मंत्री के रूप में उन्होंने अपनी प्रशासनिक दक्षता का परिचय दिया। उनकी नीतिगत दूरदर्शिता और कार्यशैली ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त प्रशासक के रूप में स्थापित किया।

*मुख्यमंत्री के रूप में चुनौतीपूर्ण कार्यकाल*

हरीश रावत का सबसे महत्वपूर्ण और चर्चित दौर 1 फरवरी, 2014 को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बनने के साथ शुरू हुआ। 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद संकटग्रस्त राज्य की कमान संभालते हुए, उन्होंने पुनर्वास, पुनर्निर्माण और विकास के लिए अथक प्रयास किए। पर्यटन, बुनियादी ढांचे और ग्रामीण विकास के लिए उनकी योजनाओं ने राज्य को नई दिशा दी। हालांकि, उनका कार्यकाल राजनीतिक अस्थिरता और विवादों से घिरा रहा। 2016 में कांग्रेस के कुछ विधायकों की बगावत और केंद्र की भाजपा सरकार के हस्तक्षेप से उनकी सरकार संकट में फंस गई। 27 मार्च, 2016 को राष्ट्रपति शासन लागू हुआ, लेकिन रावत ने हिम्मत नहीं हारी। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से 11 मई, 2016 को उनकी सरकार बहाल हुई, और वे 18 मार्च, 2017 तक नेतृत्व करते रहे। इस दौरान उनकी दृढ़ता और संकटों से जूझने की क्षमता ने उन्हें एक योद्धा नेता के रूप में स्थापित किया। हरीश रावत की यह यात्रा साहस, समर्पण और जनसेवा का प्रतीक है, जो उत्तराखंड की राजनीति में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में दर्ज है। मेरी ओर से आपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ

संदर्भ:

-हरीश रावत – लोकसभा नई दिल्ली, विधानसभा उत्त्तराखण्ड दस्तावेज।
– हरीश रावत: आयु, जीवनी, शिक्षा, पत्नी, जाति, संपत्ति – Oneindia
– हरीश रावत Harish Rawat – Biography of Ex Chief Minister of Uttarakhand
– उत्तराखंड के पूर्व CM हरीश रावत टीवी- 9 वेबसाइट
– विभिन्न समाचार पत्र , लेख , और वेबसाइट्स।

 

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