हिमाचल प्रदेश बनाम उत्तराखंड: सेब उत्पादन में अंतर के ऐतिहासिक और नीतिगत कारण

शीशपाल गुसाईं

हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड, दोनों ही पहाड़ी राज्य, सेब की खेती के लिए आदर्श जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियाँ रखते हैं। फिर भी, हिमाचल प्रदेश न केवल भारत की “सेब टोकरी” के रूप में विख्यात है, बल्कि सेब उत्पादन में उत्तराखंड से कहीं आगे है। भारत के कुल सेब उत्पादन में हिमाचल की हिस्सेदारी लगभग 29% है, जबकि उत्तराखंड की केवल 12%। इस अंतर के पीछे कई ऐतिहासिक, नीतिगत, तकनीकी, सामाजिक, और आर्थिक कारण हैं।

ऐतिहासिक और नीतिगत अंतर हिमाचल प्रदेश में सेब की खेती का इतिहास लगभग एक सदी पुराना है, जिसकी शुरुआत 1916 में अमेरिकी मिशनरी सैमुअल स्टोक्स द्वारा की गई थी। इसके बाद, डॉ. यशवंत सिंह परमार, हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री, ने सेब की खेती को राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनाने के लिए दूरदर्शी नीतियाँ बनाईं। इन नीतियों में बागवानी को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी, तकनीकी सहायता, और बाजार व्यवस्था शामिल थी। 1950 में जहाँ हिमाचल में केवल 400 हेक्टेयर पर सेब के बाग थे, वहीं 2023 तक यह क्षेत्रफल 1,15,680 हेक्टेयर तक पहुँच गया।दूसरी ओर, उत्तराखंड में सेब की खेती का व्यवस्थित विकास अपेक्षाकृत देर से शुरू हुआ।

2000 में राज्य के गठन के बाद बागवानी को प्राथमिकता दी गई, लेकिन हिमाचल की तरह दीर्घकालिक और ठोस नीतियों का अभाव रहा। उत्तराखंड में बागवानी के लिए समर्पित संस्थानों और योजनाओं की कमी ने सेब उत्पादन को सीमित किया। हिमाचल में डॉ. वाई.एस. परमार बागवानी और वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी, ने अनुसंधान और प्रशिक्षण में क्रांतिकारी योगदान दिया, जबकि उत्तराखंड में ऐसी संस्थाएँ उतनी प्रभावी नहीं रहीं। हिमाचल की नीतियाँ बागवानी-केंद्रित थीं, जिन्होंने सेब को आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान बनाया। उत्तराखंड में नीतिगत प्राथमिकता बिखरी हुई रही, जिससे सेब की खेती व्यवस्थित रूप से विकसित नहीं हो सकी।

सेब की खेती में तकनीकी प्रगति: हिमाचल प्रदेश की सफलता और उत्तराखंड की चुनौतियाँ

बुनियादी ढाँचे और तकनीकी अंतर हिमाचल प्रदेश ने सेब की खेती के लिए मजबूत बुनियादी ढाँचा विकसित किया है। हिमाचल में सेब के लिए व्यापक कोल्ड स्टोरेज नेटवर्क और सड़क संपर्क है, जो फसल को बाजार तक जल्दी और सुरक्षित पहुँचाता है। ड्रिप इरिगेशन और अन्य आधुनिक सिंचाई तकनीकों का उपयोग हिमाचल में व्यापक है, जो सेब की गुणवत्ता और उत्पादकता बढ़ाता है। हाई-डेंसिटी प्लांटेशन के मामले में हिमाचल ने गाला, स्पर, और जेरोमाइन जैसी नई किस्मों के साथ हाई-डेंसिटी बागवानी को अपनाया, जिससे प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ा। विश्व बैंक की हिमाचल प्रदेश बागवानी विकास परियोजना ने पुराने बागों के नवीनीकरण, नई किस्मों, और तकनीकी प्रशिक्षण में निवेश किया। उत्तराखंड में ये सुविधाएँ अपेक्षाकृत कम विकसित हैं। उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में कोल्ड स्टोरेज सुविधाएँ अपर्याप्त हैं, जिससे सेब जल्दी खराब हो जाते हैं या कम कीमत पर बिकते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में सड़क नेटवर्क कमजोर होने से सेब को बाजार तक पहुँचाने में देरी होती है।उत्तराखंड के अधिकांश बागवान अभी भी पुरानी किस्मों (जैसे रॉयल डिलीशियस) और पारंपरिक तरीकों पर निर्भर हैं, जो कम उत्पादन देते हैं। कई क्षेत्रों में सिंचाई सुविधाओं की कमी के कारण सेब के बागों को नियमित पानी नहीं मिलता।

हिमाचल का बुनियादी ढाँचा और तकनीकी प्रगति सेब की खेती को आधुनिक और लाभकारी बनाती है, जबकि उत्तराखंड में इनका अभाव उत्पादन को सीमित करता है। नई किस्मों का उपयोग और जलवायु अनुकूलन हिमाचल प्रदेश ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए लो-चिलिंग किस्मों (जैसे हरमन-99, गाला, अन्ना, डॉर्सेट गोल्डन) को तेजी से अपनाया है। ये किस्में 300-500 ठंडे घंटों में फल दे सकती हैं, जो गर्म सर्दियों और कम बर्फबारी के दौर में उपयुक्त हैं। इसके अलावा, हिमाचल में स्पर किस्मों और हाई-डेंसिटी बागवानी ने प्रति हेक्टेयर उत्पादन को 20-30 टन तक बढ़ाया है। उत्तराखंड में नई किस्मों का उपयोग सीमित है। अधिकांश बागवान रॉयल डिलीशियस और रेड डिलीशियस जैसी पारंपरिक किस्मों पर निर्भर हैं, जिन्हें 1200-1400 ठंडे घंटों की आवश्यकता होती है। जलवायु परिवर्तन के कारण ठंडे घंटों की कमी ने इन किस्मों की उत्पादकता को प्रभावित किया है। हरमन-99 और अन्ना जैसी लो-चिलिंग किस्में उत्तराखंड के निचले क्षेत्रों में ट्रायल के तौर पर शुरू हुई हैं, लेकिन उनका प्रसार हिमाचल की तुलना में धीमा है।

*हिमाचल और उत्तराखंड में सेब उत्पादन और आर्थिक योगदान: एक तुलनात्मक विश्लेषण*

आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार, हिमाचल में सेब का उत्पादन उतार-चढ़ाव के साथ रहा है। 2015-16लगभग 7.77 लाख मीट्रिक टन (77.7 लाख कुंतल) सेब का उत्पादन हुआ। 2016-17यह बढ़कर 8.96 लाख मीट्रिक टन (89.6 लाख कुंतल) हो गया। एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में वार्षिक सेब उत्पादन 1-2 लाख मीट्रिक टन (10-20 लाख कुंतल) के बीच है। यह उत्पादन मुख्य रूप से स्थानीय और राष्ट्रीय बाजारों के लिए होता है, और निर्यात की मात्रा नगण्य है। हिमाचल में सेब अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है (कृषि का GDP में 9.4% योगदान), जबकि उत्तराखंड में यह योगदान कम है। उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में कृषि और संबद्ध क्षेत्र (बागवानी, पशुपालन, मत्स्य पालन सहित) का योगदान लगभग 10-12% है (2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर)।

*सेब अनुसंधान की राह से भटका उत्तराखंड का औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय भरसार*

वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली उत्तराखण्ड औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, भरसार, उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र में बागवानी और वानिकी के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास के लिए एक महत्वाकांक्षी स्वप्न के रूप में स्थापित किया गया था। इस विश्वविद्यालय का मूल उद्देश्य सेब, जो कि उत्तराखण्ड की पहचान और अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, सहित अन्य बागवानी फसलों के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देना था। यह अपेक्षा थी कि यह संस्थान न केवल स्थानीय किसानों और बागवानों को नवीन तकनीकों और उन्नत प्रजातियों से लाभान्वित करेगा, बल्कि उत्तराखण्ड को बागवानी के क्षेत्र में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त पहचान भी दिलाएगा। किन्तु, दुखद सत्य यह है कि यह विश्वविद्यालय अपने प्रारंभिक उद्देश्यों से भटक गया है और सेब जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में ठोस अनुसंधान के अभाव में उत्तराखण्ड की संभावनाएँ उपेक्षित रही हैं।वर्ष 2011 में उत्तराखंड विधानसभा के एक अधिनियम के तहत स्थापित बागवानी विश्वविद्यालय के एक कुलपति ने अनुसंधान टीम गठित करने के बजाय हर दिन उत्तराखण्ड सचिवालय में बाबुओं के चक्कर लगाए। देवभूमि में इतना प्रभाव जमाया, और इतना कमाया कि दो बार सेवा विस्तार के बाद वे एक अन्य बड़े राज्य में कुलपति बन गए। इस बीच, उत्तराखंड के सेब अनुसंधान का रास्ता न मिलने से भटकते रहे, सड़ते रहे।

जब हम वाई.एस. परमार विश्वविद्यालय जैसे उदाहरणों को देखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि समर्पित नेतृत्व और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ परिवर्तन संभव है। यदि भरसार विश्वविद्यालय अपनी कमियों को सुधारकर अनुसंधान और विकास पर ध्यान दे, तो यह न केवल उत्तराखण्ड के किसानों के लिए, बल्कि सम्पूर्ण राज्य की आर्थिक और सामाजिक प्रगति के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। यह समय है कि इस संस्थान को वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम के अनुरूप साहस, समर्पण, और जनसेवा की भावना के साथ पुनर्जनन किया जाए।

चित्र –
1. डॉ. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, सोलन की स्थापना 1985 में हुई।
2. सेब किसान सेब के बागान से सेब निकालते हैं।
3. आढ़ती सेब की मंडियों में सेब का निर्यात करते हैं।

संदर्भ : Himachal Pradesh General Studies – Karun Bharmoria.
डॉ. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित शोध पत्र

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