प्रमोद झा
बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने सोशल मीडिया ’एक्स’ पर अपने एक पोस्ट में लिखा है ‘कमल का कमाल, बर्बादी के 20 साल’, जिसपर लोगों ने अपने-अपने तरीके से प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं। तेजस्वी ने यह पोस्ट उस दिन किया जिस दिन बिहार में कुदरती कहर से 80 से ज्यादा लोगों की जानें जाने की घटना मीडिया में सुर्खियां बनी थी। तेज आंधी, बारिश और वज्रपात ने भारी तबाही मचाई है। किसानों के मुंह का निवाला छिन गया है। काश! तेजस्वी की नजर 20 साल की बर्बादी की जगह आज की तबाही पर जाती और वह इसपर अपनी संवेदना सोशल मीडिया पोस्ट में जाहिर करते। तेजस्वी ही नहीं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार या देश के अन्य राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं के सोशल मीडिया हैंडल पर भी ऐसा कोई पोस्ट नहीं देखा। ऐसा नहीं है कि ये लोग प्राकृतिक आपदा से मची तबाही से बेखबर हैं।
सरकार जरूर पीड़ितों को मुआवजा देने की तैयारी कर रही होगी, क्योंकि इसका लाभ सत्ताधारी दलों को आगामी विधानसभा चुनाव में मिलेगा। संभव है कि विपक्षी दलों के नेता भी आनेवाले दिनों में इस बाबत कुछ एलान करे। इनको मालूम है कि वोट संवेदनाएं जाहिर करने से नहीं बल्कि लोकलुभावन वादों व इरादों से या लोगों की सहानुभूति बटोरने से मिलता हैै जिसके लिए धन बांटने की जरूरत होती है। प्राकृतिक आपदा से पीड़ित लोगों की आर्थिक मदद करना सरकार और समाज की जिम्मेदारी होती है। चुनावी मौसम में रेवड़ियां बांटकर वोट वटोरने के अभ्यस्त हो चुके राजनीतिक दल और इनके नेताओं के पास किसानों और कमेरों के लिए कोई संवेदना नहीं रह गई है।
तेजस्वी के सोशल मीडिया पोस्ट का जिक्र करना इसलिए आवश्यक है कि पिछले विधानसभा चुनाव 2020 में राजद को सबसे अधिक सीटें दिलाने में उनकी अहम भूमिका रही। कोविड महामारी के कहर के बीच हुए उस चुनाव में बिहार के लोगों ने तेजस्वी में एक ऐसे युवा नेता की छवि देखी थी आमजन के दुख का साथी बन सकता था। लोगों ने उम्मीद लगाई थी कि वह जो आगे चलकर सूबे में तस्वीर बदलेंगे। मगर, बीते पांच साल में वह अपनी उस छवि को बरकरार नहीं रख पाए। इस दौरान एक साल से ज्यादा समय तक वह बतौर उपमुख्यमंत्री सत्ता में भी रहे, फिर भी वह अपने पिता लालू प्रसाद यादव से प्राप्त जातिवादी राजनीति के विरासत से अलग सभी वर्गों के नेता के रूप में अपनी छवि गढ़ने में विफल रहे। विपक्ष के नेता के तौर पर भी अगर राजनीतिक बयानबाजी की जगह वह आज प्रदेश के किसानों की चिंता करते, आपदा के वक्त उनके लिए अपनी संवेदना जाहिर करते तो लोग जरूर उनपर भरोसा करते।
तेजस्वी जब ‘कमल का कमाल, बर्बादी के 20 साल’ की बात करते हैं तो भाजपा और जदयू के लोग बिहार में लालू-रावड़ी के शासन काल की अराजकता की याद दिलाते हैं जिसे आज भी जंगलराज के रूप में याद किया जाता है। एनडीए के नेता आज भी लोगों को जंगलराज की वापसी का डर दिखाकर उनसे वोट मांगते हैं। ऐसे में पिता की राजनीतिक विरासत के बूते तेजस्वी के लिए सत्ता पाना मुश्किल है। शायद इसी सोच से 2020 में राजद के पोस्टर पर लालू और रावड़ी की तस्वीर नहीं लगाई गई थी। तेजस्वी को मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश करके ‘बिहार मांगे बदलाव’ के नारे गढ़े गए थे। राजद का मुख्यमंत्री चेहरा आज भी वही हैं और अब अनुभव भी है, लेकिन उस समय की तस्वीर में जो छवि पेश की गई थी वो इस बार नहीं है। राजद द्वारा जब भी भाजपा-जदयू पर बिहार को बेरोजगार, गरीब और पिछड़ा प्रदेश बनाने का आरोप लगाया जाता है, लोग उसे उसके शासन काल की याद दिला देते हैं।
बिहार में मंडल राजनीति की विरासत संभालकर लालू प्रसाद यादव सत्ता में आए थे। उस समय उनकी लड़ाई कांग्रेस से थी, लेकिन अब कांग्रेस और राजद के बीच गठबंधन हैं, जिसका सीधा मुकाबला भाजपा और जदयू समेत एनडीए में शामिल दलों से है, जिनके अधिकांश नेता आरंभिक दिनों में लालू के सहयोगी रहे हैं। मंडल राजनीति की विरासत मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास भी हैं। यही नहीं, नीतीश कुमार ऐसे नेता हैं जिनको उनका भी वोट मिलता है जो उनको पसंद नहीं करते हैं। जबकि राजद का कोर वोट बैंक मुस्लिम-यादव यानी एमवाई समीकरण पर आधारित है। बिहार सरकार द्वारा जारी जाति सर्वेक्षण आंकड़ों में ओबीसी और एक्सट्रीमली बैकवर्ड क्लासेस (ईबीसी) की आबादी राज्य की कुल आबादी का 63.13 प्रतिशत है। पिछड़े वर्गों के बीच, ईबीसी की आबादी एक तिहाई से अधिक यानी 36.01 प्रतिशत है। बाकी ओबीसी की संख्या 27.12 प्रतिशत है। हाल के दिनों में एनडीए के वोट बैंक में ओबीसी और ईबीसी की बड़ी हिस्सेदारी रही है। इस तरह जातीय समीकरण साधकर तेजस्वी यादव को एनडीए को चुनौती देना भारी जरूर पड़ेगा।
हालांकि, तेजस्वी जिस प्रकार से महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और शराबबंदी के मुद्दों को लेकर नीतीश सरकार पर हमलावर हैं, उससे सरकार विरोधी लहर पैदा करने में कामयाबी मिल सकती है। ऐसा नहीं है कि करीब दो दशक से सत्ता में काबिज नीतीश कुमार से बिहार की जनता बहुत खुश है और बदलाव नहीं चाहती है। लेकिन, बदलाव की बात करने वाले नेताओं पर लोगों को भरोसा नहीं है। तेजस्वी को लोगों का भरोसा जीतने के लिए आमजन से जुड़े उन मसलों को उठाना होगा जिनपर आज तक किसी की नजर नहीं गई। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीतिक बयानबाजी से वह राजनीति में प्रासंगिक भले ही बने रहे लेकिन चुनावी जीत हासिलकर सूबे की सत्ता में काबिज होने के लिए उन्हें तमाम विपक्षी दलों के साथ मिलकर जनता से जुड़ना होगा। अगले चुनाव के बाद नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने रहेंगे इस बात की संभावना कम है। क्योंकि चुनाव से पहले ही भाजपा के नेता इस रणनीति में जुटे हैं कि मुख्यमंत्री के पद से उनको कैसे हटाया जाए। हाल ही में भगवा दल के एक बड़े नेता ने उनको उपप्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की है। सूबे की शियासत में कुमार के बाद सोशल मीडिया पर सबसे सबसे ज्यादा फोलोवर वाले नेता तेजस्वी के पास आगे सत्ता के शिखर पर चढ़ने का मौका है। लेकिन यह मौका उनको तभी मिल पाएगा जब जंगलराज की परछाई से वह दूर होंगे। यह परछाई तेजस्वी को आगामी विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनना तो दूर, नेता प्रतिपक्ष भी बने रहना देगी या नहीं अभी कहना मुश्किल है।