राजद्रोह की धारा या सत्तापक्ष का हथियार

आलेख : राजेंद्र शर्मा

इसे भाजपा की धुलाई मशीन का करिश्मा कहना, शायद इसमें निहित हमारी संवैधानिक व्यवस्था के क्षय को कम कर के आंकना होगा। इससे पता चलता है कि नरेंद्र मोदी के राज में राजद्रोह जैसे गंभीर और पटेल नेता के रूप में उभरे, हार्दिक पटेल और जवाहर नेहरू विश्वविद्यालय की कन्हैया कुमार की समकालीन छात्र नेता, शहला राशिद के वर्षों बाद, राजद्रोह की धाराओं के आरोपों से मुक्त किए जाने की बात कर रहे हैं। इसी 1 मार्च को दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत ने दिल्ली पुलिस के इसकी अर्जी को स्वीकार कर लिया कि वह 2019 के राजद्रोह के केस में, शहला राशिद के खिलाफ मुकद्दमा वापस लेना चाहती है। इसके अगले ही रोज, अहमदाबाद की अदालत ने हार्दिक पटेल के खिलाफ भी राजद्रोह का मामला वापस लेने की इजाजत दे दी।

दुर्भाग्य से अनेक वर्षों तक इन युवा नेताओं के गले का फंदा बने रहने बाद भी, अब राजद्रोह के केस से इन दोनों की ही मुक्ति का दूर-दूर तक कोई संबंध, पुलिस समेत शासन तंत्र को इसका एहसास होने से नहीं है कि इनके मामले में राजद्रोह की धाराओं के प्रयोग का कोई आधार नहीं था, कि इन मामलों में आरोपियों के साथ ज्यादती हुई थी, आदि। दूर-दूर तक ऐसा कुछ भी नहीं होने का पता इस मोटे से सच से लग जाता है कि कमोबेश ऐसे ही प्रसंग में राजद्रोह की धाराओं में मामले का निशाना बने, जेएनयू के ही छात्र नेता उमर खालिद तथा दिल्ली के दंगे के तथाकथित वृहत्तर षडयंत्र के मामले के अन्य आरोपियों तथा भीमा-कोरेगांव मामले के आरोपियों के मामले में तो, इतने वर्ष बाद भी शासन को इस तरह का कोई ‘चेत’ नहीं आया है। उल्टे उमर खालिद तो करीब पांच साल से जेल में ही बंद है और उसे जमानत मिलने के अब भी कोई आसार नजर नहीं आते हैं।

यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि शहला राशिद और हार्दिक पटेल, दोनों के राजद्रोह के आरोपों से मुक्त किए जाने का सीधा संबंध, उन पर आरोप लगाए जाने के बाद गुजरे इन कई वर्षों में, उनके अपना राजनीतिक रुख बदलकर, नरेंद्र मोदी निजाम का मुखर समर्थक बन जाने से है। हार्दिक पटेल तो इस दौरान भाजपा में शामिल होकर, उसके टिकट पर चुनाव लड़कर विधानसभा में भी पहुंच चुके हैं, जबकि शहला राशिद भी कश्मीर की राजनीति में सक्रिय, भाजपा और मोदी समर्थक माने जाने वाले एक ग्रुप के साथ जुड़ी हुई हैं। इस तरह, इन दोनों के नाम अब ऐसे लोगों की लंबी सूची में जुड़ गए हैं, जो पहले भाजपा और मोदी राज के विरोधी रहे थे और तब वर्तमान शासन की विभिन्न एजेंसियां उनके पीछे लगा दी गयी थीं। लेकिन, बाद में जब उन्होंने अपने राजनीतिक विचार बदलकर भाजपा तथा मोदी राज का समर्थन करना शुरू कर दिया, इनके खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई भी बंद कर दी गयी।

प्रसंगवश याद दिला दें कि इंडियन एक्सप्रैस की एक चर्चित खोजी रिपोर्ट में ऐसे पूरे 25 पूर्व-विपक्षी नेताओं के मामलों की जांच-पड़ताल की गयी थी, जिनके खिलाफ 2014 में मोदी निजाम के आने के बाद से भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाकर सीबीआई, ईडी तथा आयकर विभाग जैसी केंद्रीय एजेंसियों से जांच शुरू करायी गयी थी, बहुप्रचारित पूछताछ से लेकर कुछ मामले में गिरफ्तारी तक की कार्रवाइयां भी की गयी थीं। लेकिन बाद में इन नेताओं के राजनीतिक रूप से पल्टी मारकर सत्तापक्ष के साथ जा मिलने के बाद, कम से कम 23 मामलों में उन्हें केंद्रीय एजेंसियों के शिकंजे से राहत मिल गयी। इस सूची में 2015 में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जा मिले, असम के हिमंता बिस्वशर्मा ; 2020 में तृणमूल कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए बंगाल के सुवेंदु अधिकारी ; 2019 में तेलुगू देशम् पार्टी छोड़कर आंध्र प्रदेश में भाजपा में शामिल हुए सीएम रमेश ; 2019 में ही सपा को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए संजय सेठ से लेकर, 2023 में एनसीपी में विभाजन कर, भाजपा के साथ गठजोड़ में जा बैठे अजित पवार और 2024 में ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जा मिले, नवीन जिंदल तक के नाम शामिल हैं।

याद रहे कि यह सूची राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की ही है। राज्य स्तर पर तथा उससे भी नीचे, केंद्रीय एजेसियों के दबाव के जरिए, इस तरह दल-बदलकर भाजपा और मोदी राज के पाले में जाने के लिए मजबूर किए गए राजनीतिक नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की संख्या और कई गुना बड़ी होगी। इनमें 2015 से लेकर हाल में 2024 तक के मामलों का शामिल होना इसे रेखांकित करता है कि यह एक लगातार जारी प्रक्रिया का या कहना चाहिए कि स्थायी व्यवस्था का मामला है, जिसमें केंद्रीय एजेंसियों की जांच और उनके आरोपों के डंडे से हांककर, विरोधियों को सत्ता के पाले में धकेला जा रहा है।

फिर भी, राजद्रोह या यूएपीए जैसी धाराओं के आरोपियों का भी इस सूची में शामिल हो जाना, इस भयावह परिदृश्य को और भी भयानक बना देता है। कहने की जरूरत नहीं है कि ये अति-दमनकारी धाराएं, दुर्लभतम मामलों में और बिल्कुल अकाट्य मामलों में ही उपयोग किए जाने का तकाजा करती हैं। वास्तव में राजद्रोह की धारा को तो औपनिवेशिक दौर का अवशेष मानते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने उसके उपयोग पर रोक ही लगा दी थी। लेकिन, इस अति-दमनकारी व्यवस्था के अपने अतिरिक्त प्रेम के चलते, मोदी सरकार ने अपने नये फौजदारी कानूनों में नये नाम से इस धारा को न सिर्फ पुनर्जीवित कर दिया है, बल्कि उसका दायरा फैलाकर, उसे और घातक भी बना दिया है। हार्दिक पटेल और शहला राशिद का प्रकरण यह दिखाता है कि मोदी राज में ऐसे कानूनों की भी शक्तियों का किस तरह अंधाधुंध और सत्ताधारियों के क्षुद्र तथा हल्के स्वार्थों के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है।

आपराधिक कानूनों के इस्तेमाल की ऐसी ही मनमानी का एक और रूप, दंगों समेत विभिन्न अपराधों के सत्तापक्ष समर्थक आरोपियों के मामलों का वापस लिया जाना है। भाजपायी राज्य सरकारें नियमित रूप से ऐसा करती आयी हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि यह मौजूदा शासन के समर्थकों और कृपापात्रों के कानून के शिकंजे से सुरक्षित ही बनाए रखे जाने के ऊपर से है। इस सिलसिले में एक आंखें खोलने वाला मामला यति नरसिम्हानंद का है, जिसके मुस्लिमविरोधी बोलों के खिलाफ तो भाजपा की डबल इंजन सरकारों ने कोई कार्रवाई नहीं की, लेकिन इन मुस्लिमविरोधी बोलों को बेनकाब करने के लिए, जाने-माने फैक्टचेकर, जुबैर के खिलाफ नरसिम्हानंद की मानहानि करने के केस में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में पिछले करीब साल भर से सुनवाई चल ही रही है। फिर भी हार्दिक, शहला प्रकरण वर्तमान शासन की इस गिरावट के और नयी नीचाइयां नापने को ही दिखाता है।

लेकिन दुर्भाग्य से मौजूदा राज में कानून व व्यवस्था के तंत्र की इस खतरनाक गिरावट की चुनौती को स्वीकार करने के लिए विपक्ष, तैयार नजर नहीं आता है। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा तथा उसके गठजोड़ को लगे तगड़े धक्के के बाद से, संघ-भाजपा ने कम से कम मनोवैज्ञानिक स्तर पर, अपनी खोयी जमीन का काफी हिस्सा दोबारा हासिल कर लिया है। बेशक, पहले हरियाणा, फिर महाराष्ट्र तथा अब दिल्ली के विधानसभाई चुनाव में भाजपा की जीत ने उसके हौसले बुलंद किए हैं। लेकिन, इससे ज्यादा उसके हौसले बुलंद किए हैं, लोकसभा चुनाव के बाद से उत्तरोत्तर गिरते गए विपक्षी एकता के ग्राफ ने। अगर हरियाणा के चुनाव में आम आदमी के सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने के रूप में विपक्ष का बिखराव दिखाई दिया था, तो दिल्ली के चुनाव में तो आप पार्टी और कांग्रेस में, एक-दूसरे को भाजपा जैसा साबित करने की होड़ लगी हुई थी। इतना ही नहीं, चुनाव के नतीजे आने के बाद भी, जो साफ तौर पर दिखाते हैं कि अगर विपक्ष ने एकजुट होकर चुनाव लड़ा होता, तो भाजपा को दिल्ली में सत्ता से दूर रखा जा सकता था, कांग्रेस और आप के बीच युद्घ धीमा पड़ने का नाम नहीं ले रहा है। उल्टे इस युद्घ का आप-शासित पंजाब तक विस्तार करने की कोशिशें हो रही हैं।

इसी बीच, बिहार तथा असम के आने वाले विधानसभाई चुनावों के संदर्भ में कांग्रेस के अनेक औपचारिक-अनौपचारिक ‘सलाहकारों’ ने ‘एकला चलो’ की और केरल के लिए बेरोक-टोक युद्घ की पुकारें शुरू कर दी हैं। यह वह ढलान है, जिसे अगर पलटा नहीं गया, तो संघ-भाजपा को और मजबूती से पांव जमाने का मौका मिल जाएगा। बेशक, विपक्षी पार्टियों की अपने विस्तार की आकांक्षाओं को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है, लेकिन इन आकांक्षाओं को संघ-भाजपा के खतरे की वृहत्तर सच्चाई की पहचान से अनुशासित होना ही होगा। और जहां अपरिहार्य हो, आपस में होड़ करते हुए भी विपक्षी पार्टियों को, राजनीतिक विरोधियों को राजद्रोह तक के आरोपों से प्रताड़ित करने वाले इस संघ-भाजपा राज के ही सबसे बड़ी चुनौती होने को याद रखना होगा। अलग-अलग सभी विपक्षी पार्टियों का भी इसी में हित है। विभाजित विपक्ष, लोकसभा चुनाव की कामयाबी का हाथ से रेत की तरह झर जाना ही सुनिश्चित करेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

Leave a Reply