बादल सरोज
जाने-न जाने के संशय से उबरकर आखिरकार पंतप्रधान भी पापमोचक माने जाने वाले कुंभ में डुबकी लगा ही आये। हालांकि अपने बाकी सगे कुटुम्बियों की तरह लुंगी गमछा स्नान करने की बजाय वे गंगा में सपरिधान उतरे, रेनकोट पहन कर नहाने के अपने ही जुमले को अपने पर ही लागू कर दिखाया। अलबत्ता गंगा जल से आचमन न करने की सावधानी तक बरती। अब योगी जी भले चीख-चीखकर खंडन करते रहे और उसे सनातन विरोधियों की साजिश बताते रहे, मगर मोदी जी को अपनी सरकार के केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की उस रिपोर्ट पर पूरा भरोसा था, जिसने गंगा के पानी की गुणवत्ता को लेकर अत्यंत चिंताजनक जानकारी दी थी और कहा था कि गंगा का मौजूदा जल पीना तो दूर की बात रही, नहाने के लायक भी नहीं है।
इसीलिए वे आये तो, मगर उनमें इतनी तमीज थी, डूबे वहीं-वहैं तक, जहां तक कमीज थी। लगता है उनकी मेडीकल टीम ने उन्हें यह नहीं बताया था कि ये जो कम्बखत बैक्टीरियाज होते हैं, वे कपड़ों की आड़ नहीं मानते है। बहरहाल चूंकि वे वीआईपी कल्चर के एकदम्मे खिलाफ हैं, इसलिए उनका स्नान वीआईपी नहान नहीं था, वीवीआईपी था।
दूसरों की भांति वे संगियों और संघियों की भीड़-भाड़ साथ लेकर नहीं गए थे ; निपट अकेले थे। आठों दिशाओं, चारों आयामों में लगे कैमरों के हर फ्रेम में वे ही थे, स्थिर तस्वीरों में स्थित और लाइव कवरेजों में गंगा संग अवस्थित थे, बल्कि उनमे भी गंगा कम ही थीं, फोकस में वे ही थे। पहले दो बार इस बारे में लिखा जा चुका है, इसलिए विस्तार न करते हुए इतना भर कि सांस्कृतिक महत्त्व हासिल कर चुके इस धार्मिक आयोजन के बहाने अपनी प्रचारलिप्सा, राजनीति और मार्केटिंग के जिस मकसद के लिए इस पूरे महाकुंभ का इस्तेमाल, अत्यंत ही भौंडे तरीके से इस बार किया गया है, उसके लिहाज से ऐसा हो ही नहीं सकता था कि प्रधानमंत्री मोदी इसमें न जाएं, उन्हें जाना ही था। उसके बाद ही तो इसे ज्यादा सहूलियत से भुनाया जा सकता था।
मार्केटिंग के लिए उन्होंने कुंभ मेले को ही माल, कमोडिटी, प्रोडक्ट में घटाकर रख दिया। इसके बहाने खुद के माल बेचने के लिए ऐसे-ऐसे दावे किये जा रहे हैं, ऐसी ऊंची-ऊंची और दूर की हांकी जा रही है, जिनका न कोई ओर है न छोर है। इनमें से एक वह दावा है, जिसके मुताबिक़ 24 फरवरी को जब इन पंक्तियों को लिखा जा रहा है, तब तक 62 करोड़ लोग इसमें डुबकी लगा चुके हैं। अभी दो दिन शेष हैं और 26 फरवरी की महाशिवरात्रि का आख़िरी स्नान होना बाकी है। इसका मतलब है कि भारत में बच्चो और बूढों को छोड़कर जितने भी नागरिक बचते हैं, वे सबके सब इस महाकुंभ में डुबकी लगा आये हैं!! इतनी हास्यास्पद अतिरंजना के पीछे यह दिखाना है कि जैसा सनातनी इन्होंने जगाया है, वैसा पूरे ‘सनातन’ में पहले कभी नहीं हुआ।
इसी तरह का एक और दावा इसे 144 वर्षों में पहली बार और अगले 144 वर्ष तक फिर न आने वाले पवित्र मुहूर्त वाला बताया जाना है। ज्योतिष, पञ्चांग और ग्रह नक्षत्रों की गणना आदि-इत्यादि किसी भी हिसाब से यह सरासर निराधार गप्प है। हर कुंभ की तारीखों और अवधि की खगोलीय गणना सूर्य और बृहस्पति की विशेष स्थितियों पर आधारित होती है, और इन दोनों की परिक्रमा या खगोलीय अवस्था के जोड़-बाकी में 144 वर्षों की कोई मान्यता नहीं है। यहाँ तक कि सरकारी वेबसाइटों में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है। मजेदार विडम्बना यह है कि इस तरह का दावा भी नया नहीं है,पहली बार नहीं किया गया है ; इससे पहले 1989, 2001 और अभी हाल में ही 2013 में भी ऐसे ही दावे किए गए थे।
🔵 मगर जब तीज, त्यौहारों, पर्वों को माल की तरह बेचना है, तो मार्केटिंग के सारे नुस्खे आजमाने में शर्म किस बात की है और इनके आराध्यों में से एक गोयबल्स कह और करके दिखा भी गए हैं कि 90 फीसदी मीडिया का नियंत्रण मेरे हाथ में दे दो, मैं कुछ ही महीनो में सारी जनता को भेड़ बना दूंगा। ठीक इसी तरह का भेड़िया धसान मचा हुआ है। नब्बे प्रतिशत मीडिया में न भागीदारी की संख्या को लेकर कोई सवाल उठ रहा है, न 144 वर्षो की गप्प पर किसी ने प्रश्नचिन्ह खडा किया है। इसके राजनीतिक इस्तेमाल को लेकर कोई आपत्ति करने का तो कोई सव्वाल ही नहीं है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि सब चुप हैं। जो सीकरी के संत नहीं बने, ऐसे दरबारियों को छोड़कर अनेक धार्मिक व्यक्तियों और संस्थाओं और पंथों से जुड़े साधू-संतों ने भी ऐसे सतही दावों और आस्थाओं के बाजारूकरण की आलोचना की है। सत्य धर्म संवाद के संयोजक स्वामी राघवेन्द्र इसी को दर्ज करते हुए ‘द वायर’ में प्रकाशित अपने लेख में लिखते हैं कि :
“इस वर्ष प्रयाग का कुंभ बाजारवाद से अति प्रभावित रहा। इस बाजारवाद पर चढ़े कुंभ में अमृत मंथन क्षीरसागर में नहीं, पंक (कीचड़) में हुआ। सत्ता की मथनी और मीडिया नामक शेषनाग के संयोग से हुआ मंथन भारतीय समाज को कोई अमृत देता हुआ तो नहीं ही दिख रहा। इसके केंद्र में मोनालिसा की आंखे, आईआईटी बाबा की भविष्यवाणियां, चिमटा बाबा के चमत्कार, आए हुए कुछ धर्मगुरुओं की राजनीतिक अतिवादिता आदि ही रहे।“
वे इसके कारणों में भी जाते हैं और कहते हैं : “पूंजीवाद जब अपने प्रभाव को अति पर लाना चाहता है, तो धर्म और संस्कृति जैसे संवेदनशील विषयों पर जनता में उन्माद फैलाने की कोशिश करता है। इसी पूंजीवादी व्यापारिक मानसिकता ने कुंभ की पवित्रता, मूल्यों और साधु- संत, नागा, जंगम, नाथ योगियों के मेले को तमाशा बना दिया। इस प्रकार कुंभ मेला 2025, कुंभ कार्निवल बन गया। विज्ञापनों के अतिरेक ने जनसमुदायों को आकर्षित तो किया, पर ध्यान रहे धर्म कोई प्रदर्शनी नहीं है। इस मेले को पूंजीपतियों ने सत्ता के सहयोग से एक प्रदर्शनी में बदलने की भरपूर कोशिश की और एक हद तक सफल भी रहे।“
इन्हीं राघवेन्द्र स्वामी ने लिखा कि :
“कभी यह मेला एक साधना, आध्यात्मिक-सामाजिक विमर्शों तथा शुद्धियों का केंद्र था, परंतु अब विमर्श में अर्थशास्त्रीय दृष्टि होती है कि कितने यात्री आए और कितने हजार करोड़ का व्यापार हुआ। यह सब तब हो रहा है जब भारतीय परंपरा, संस्कृति और हिंदू धर्म की तथाकथित रक्षा करने वाली सरकार है । इस सरकार ने हिंदू धर्म की संरक्षा कम और व्यापारीकरण, राजनीतिकरण अधिक किया है। इसका स्पष्ट और सीधा उदाहरण है 144 वर्ष बाद इस कुंभ का संयोग। इस सरकारी गल्प ने ही पवित्र माने जाने पर्व स्नानों और तीर्थयात्रा को पर्यटन में बदल दिया।“
इतने बड़े पैमाने पर यह मार्केटिंग और उसकी संगति का ढोंग इसलिए किया जा रहा है, ताकि बाकी सारे मोर्चों पर चौतरफा असफलतों पर पर्दा डाला जा सके और मारीच को सोने की खाल ओढ़ाकर लोगों को भुलावे में डाला जा सके ।
प्रचारलिप्सा और बाजारवाद की भेंट चढ़ने वाले मेले के साथ इस कुंभ को भीड़ प्रबंधन के मामले में असफलताओं और कुप्रबंधन के चलते हुए हादसों और दुर्घटनाओं के महाकुंभ के रूप में भी याद किया जाएगा। कुंभ के अपने इतिहास में आते में, जाते में, सोते में,नहाते में जितनी मौतें – टाली जा सकने वाली मौतें – इस बार हुई हैं, उनका कोई हिसाब नहीं है। मरने वालों की कोई गिनती भी नही है। इनका उत्तरदायित्व लेने या जिमेदारी तय करने की बजाय यूपी के मुख्यमंत्री कुप्रबंधन पर सवाल उठाने वालों को ही सनातन विरोधी और धर्मद्रोही बता रहे है l। उनकी तुलना लाशें देखने वाले गिद्धों और गंदगी ढूंढने वाले सुअरों तक से कर रहे हैं।
वे यह भूल रहे हैं कि गंदगी का वैज्ञानिक प्रमाण उन्हीं के मोदी जी की सरकार का प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड लेकर आया है, जिसने जांच-परख के बाद बताया है कि गंगा के जल में मानव मल में पाए जाने वाले फेकल बैक्टीरिया काफी संख्या में मौजूद है, इसलिए यह नहाने और पीने दोनों के लायक नहीं है। कुंभ गए तीर्थयात्रियों ने खुद वीडियो साझे करके बताया है कि किस तरह कुंभ मेले के सेक्टर-8 में कलश द्वार के ठीक सामने इलाहाबाद की सीवर और गटर का पानी हरहराकर सीधे गंगा में समाहित हो रहा है। यह एक अकेली सीवर नहीं है ; प्रयाग में अरैल, झूंसी, छतनाग, सलोरी की सीवरों का भी संगम हो रहा है। इसमें बगल में बने भैंसों के तबेले की सारी गंदगी अलग से तड़का लगा रही है।
यह ऐसे प्रवाह हैं, जिन्हें रोका जा सकता था, न सही स्थायी, कम-से-कम कुंभ मेले तक ही सही, इसकी कोई वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती थी। इस अक्षमता को स्वीकारने की बजाय मुख्यमंत्री आँखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रहे हैं कि “नालों के पानी को शुद्ध करके ही गंगा में छोड़ा जा रहा है।“ अब यह शुद्धीकरण ‘ओम पवित्रम पवित्राय’ के मंत्रोच्चार से किया जा रहा हो, तो बात अलग है , वरना गंगा की सफाई की असलियत इसी इलाहाबाद का हाईकोर्ट 2022 के अपने फैसले में दर्ज कर चुका है। उसने कहा था कि “गंगा की सफाई से जुड़ी रिपोर्ट आँखों में धूल झोंकने वाली है। ट्रीटमेंट प्लांट किसी काम का नहीं है।“
जनवरी से 24 फरवरी तक 18 बार स्वयं जाकर कुंभ की व्यवस्थाओं को देखने और करवाने का दावा करने वाले, प्रधानमंत्री मोदी के साथ अपनी तस्वीरें चिपका कर हजारों करोड़ रुपया फूँक किये तामझामी प्रचार से “जन्म जन्मान्तर के पुण्य खिलें, आओ महाकुंभ चलें” के विज्ञापनों से सकल ब्रहांड के सनातियों को इसमें आने का न्यौता देने वाले मुख्यमंत्री योगी क्या इतने प्राथमिक बंदोबस्त तक नहीं कर सकते थे? प्रचारलिप्सा और मार्केटिंग ही एकमात्र लक्ष्य हो और कथित मुख्यधारा का गटर मीडिया तबेले में बंधा हो तो इसी तरह की ढीठता स्वभाव बन जाती है ।
सत्ता पर काबिज मौजूदा कुनबे को इस सब की फ़िक्र नहीं है। उन्होंने इस पारंपरिक मेले की तैय्यारियां ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अपवित्र इरादे के साथ की थी। हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान, किसकी लगेगी और किसकी नहीं लगेगी दुकान, आदि ही इस महाकुम्भ का उनका एजेंडा था। लौकिक जगत में एकमात्र नरेन्द्र मोदी को अपना मित्र बताने वाले पीठाधीश रामभद्राचार्य ने इस कुंभ का मुख्य लक्ष्य, इसके पूरा होने तक जिस पाकिस्तान का इससे न कोई लेना था न देना, उस पाकिस्तान के खात्मे तक का एलान पेल दिया था। उन्हें पता था कि मेले के निबटने के बाद उनसे कोई पूछने-ताछने वाला नहीं है, उन्माद भड़काना था, सो हो गया।
बहरहाल सभ्य समाज के लिए असली प्रश्न यह है कि ये जो भीड़ है, वह किनकी है? ये भीड़ से भेड़ में बदले जा रहे लोग कौन हैं? क्या यह सचमुच के श्रद्धालु, धर्मप्रेमी लोग हैं? क्या अचानक से आस्था का इतना बड़ा ज्वार आ गया है कि लोग रोज सुबह-शाम दिखने वाले अपने घर में बैठे ठाकुर जी, गांव-डगर के मंदिर में डटे भगवान जी को अकेला छोड़, जहां कुछ नहीं दिखने वाला, उन जगहों के लिए ठठ के ठठ बनाकर निकल पड़े हैं।
नहीं, पहले कहे जा चुके को दोहराने में हर्ज नहीं कि ये वे लोग हैं, जो हारे और बुरी तरह घबराये हुए हैं, जीवन की मुश्किलों से थके और टूटे हुए हैं। किसी भी तरह की ख़ुशी से वंचित, पूरी तरह नाउम्मीद हो चुके हैं। ये वे लोग हैं, जिनकी सारी आशायें, उम्मीदें खतरे के निशान को पार कर अटल गहराईयों वाली अनिश्चितता में डूब चुकी है। खेती से होने वाली इनकी जो थोड़ी बहुत आमदनी भी अब सूख रही है, भुखमरी की तनख्वाह देने वाली नौकरी छूट रही है, बेटी-बहन की जवानी निकली जा रही है, शादी की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। बैंक या साहूकार से कर्जा लेकर या जमीन-जायदाद बेच कर जैसे-तैसे बेटे-बेटियों की अच्छी से अच्छी, ऊंची से ऊंची पढ़ाई पूरी करवा तो ली — मगर लाख जतनों के बाद भी न उनके लिए कोई काम है, न काम मिलने की संभावना ही दीख रही है। कर्ज पर चढ़ती ब्याज सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है, सो अलग।
ये बहुत ही ज्यादा परेशान और बिलबिलाए लोग हैं। ये उजड़े और उचटे हुए लोग हैं। घर-परिवार की अनिश्चितता से उसका मन जितना ज्यादा मलीन है, शोर मचाने में वह उतना ही ज्यादा तल्लीन है। ये खुद के शिकार का खुद ही चारा बने लोग हैं। ये अंदर-बाहर से इतने ज्यादा घेरे और जकड़े जा चुके हैं कि अच्छे-बुरे में फर्क करने के सलीके और दोस्त-दुश्मन की पहचान करने के शऊर से लगातार वंचित होते जा रहे हैं। ये अपनी ही चीख-पुकार से अपनी ही कराह दबा देने वाले लोग हैं। ये अपनी ही सूली को अपने ही काँधे पर उठाये गाजे-बाजे के साथ मक़्तल की ओर जा रहे वे लोग हैं, जो समझ नहीं पा रहे कि आखिर उनकी मुसीबतों की वजह क्या है?
यह वह भीड़ है, जो जलूस में नहीं बदल पाई है। जाहिर है कि इसे यदि झांसेबाजों से बचाना है, उसकी श्रद्धा को साम्प्रदायिक राजनीति के माल, आस्था को कारपोरेट के मुनाफों की तिजोरियो के पासवर्ड में बदलने से रोकने के लिए इसे तनी हुई मुट्ठियों के हुजूम में तब्दील करना होगा ; ऐसा करना फिलवक्त कुछ मुश्किल लग सकता है, मगर नामुमकिन कतई नहीं है।
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)