संवेदना की मौत का महाकुम्भ : मदद में उठ खड़ा हुआ इलाहाबाद

बादल सरोज

दुर्भाग्य से बुरी आशंकाएं सच निकली और इस बार का कुम्भ, जिसे 144 वर्ष बाद पड़ने वाला महाकुम्भ बताया जा रहा है, इतिहास में कुप्रबंधन के महामंडलेश्वरों की जकड़न, अव्यवस्था के महा-अमात्यों की निगरानी और भ्रष्टाचार के पीठाचार्यों की रहनुमाई में संवेदनाओं की मौत के मेले के रूप में दर्ज होकर रह गया। मौनी अमावस्या के दिन तड़के सुबह बताये गए ब्रह्ममुहूर्त में गंगा तट पर लेटे, सोये, अधलेटों की तरफ लगे बैरीकेड को तोड़ती हुई लाखों की भीड़ संगम में डुबकी लगाने लपकी और उन्हें कुचलते हुए आगे बढ़ गयी। यह भगदड़ की वह जगह है, जहां हुए हादसे का होना सरकार और उसके ढिंढोरचियों ने, देर से ही सही, मगर आखिरकार क़ुबूल किया है। कुंभ गए लोगों और उनके द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर दिखाए वीडियोज, बताये वृतांतों के हिसाब से इसी – 29 जनवरी – के दिन एक नहीं, तीन जगह भगदड़ मची थी । इनमे कितने लोग हताहत हुए, इसकी कोई पुष्ट, आधिकारिक जानकारी देने को डबल इंजिन सरकार तैयार नहीं है। मृतकों की संख्या को लेकर अलग-अलग तरह के दावे और अनुमान हैं, जो कई सैकड़ा से लेकर हजार तक जाते हैं। योगी 17 से शुरू हुए थे, 30 से आगे मानने को तैयार नहीं हैं।

डिजिटल कुंभ बताये जाने वाले इस समावेश में वसंत पंचमी के आख़िरी अमृत स्नान के दिन 3 फरवरी तक आने वालों की एकदम सटीक संख्या 34 करोड़ 97 लाख का दावा करने वाली गणन मापन तकनीक तो उनके पास है, मगर मरने वालों की वास्तविक संख्या बताने के लिए जोड़ के जिस सामान्य गणित ज्ञान की आवश्यकता है, वह उनके पास नहीं है। बिकने के लिए राजी न होने वाले, सही कवरेज की जिद्द करने वाले पत्रकारों को रोका जा रहा है, उन्हें जेल भेजने की धमकियां दी जा रही हैं। तंत्र की सारी की सारी ताकत हताहतों की तादाद छुपाने के लिए झोंकी जा रही है। कथित मुख्यधारा प्रेस जितनी मुस्तैद हाथरस की भगदड़ मौतों को लेकर थी, उससे भी ज्यादा तत्परता से कुंभ हादसे को छुपाने, उसकी खबरें दबाने में लगी है।

निर्मम निर्लज्जता की हद यह है कि एक तरफ योगी और उनकी सरकार की ओर से मृतकों को मुआवजे देने के एलान किये जा रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर मृतकों के परिजनों का कहना है कि मृत देहों को सौंपने से पहले उनसे लिखवाया जा रहा है कि मृत्यु किसी दुर्घटना या हादसे में नहीं, सामान्य तरीके से हुई है।

हाल के दिनों में धार्मिक मेलों, मंदिरों, बाब्बे-बाबियों के प्रवचनों और समागमों में, दर्शनों और प्रसादों में जितनी भीड़ बढ़ना शुरू हुई है, उतनी ही अफरातफरी और उनमें होने वाली मौतों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। मगर ऐसा डबल इंजिन काल में ही हुआ है, जब मरने वालों को सम्मानजनक अंत्येष्टि और संवेदना के दो शब्द देने और अपनी घोर असफलता के लिए जिम्मेदारियां तय करने की बजाय इसे साजिश और देशद्रोहियों का किया-धरा बताया जा रहा है, उनके गिरोह का अफवाह फैलाने वाला तंत्र इसमें भी हिदू-मुसलमान और अगड़ा-पिछड़ा का तड़का लगाने में जुटा हुआ है। इसी गिरोह के दुर्भाषा धंधक धोरी जले पर नमक छिड़क रहे है और दम घुटने, कुचलने से हुई मौतों को सीधे मोक्ष प्राप्ति का सुखद सुअवसर करार देने की धृष्टता तक करने से नहीं हिचक रहे हैं।

कुंभ का मेला पहली बार नहीं भरा है, सदियों से भरता रहा है और बिना किसी योगी या मोदी के बुलाये ही हजारों, लाखों लोग जुटते रहे हैं। उनके लिए समुचित प्रबंध और इंतजाम होते रहे है। यदा-कदा हुई दुर्घटनाओं से सबक लेकर व्यवस्थाओं में सुधार किये जाते रहे हैं। इस बार की मौनी अमावस्या का दुखद हादसा भीड़ प्रबंधन के मामले में हद दर्जे की अकुशलता और अक्षमता और उच्चतम स्तर की अव्यवस्था और अयोग्यता का नमूना भी है, परिणाम भी है। जो ज़िंदा बचकर लौटे भी हैं, उनकी भी पीड़ाएं कम नहीं हैं ; मीलों तक पाँव-पाँव चलकर नदी की धार तक पहुंचना, विकट शीत में नम और ठंडी रेत में बिना छाँव, अलाव के सोना और पीने के पानी से लेकर चिवड़ा, पोहा और मूड़ी तक के लिए तरसना मेले में जाने वाले लगभग हर आम आदमी, औरत की भुक्तभोगी त्रासद व्यथा है।

मेले की चाक-चौबंद व्यवस्थाओं को लेकर साल भर से भी ज्यादा पहले से योगी-मोदी सरकारों के प्रचारतंत्र के गालबजाऊ ऐलानों तथा ‘जो इस महाकुंभ में नहीं आयेगा, वह देश का गद्दार होगा’ के आव्हान के भरम में आकर पहुंचे लाखों भारतीयों की यातना कथा है।

कुंभ हादसा इस बात का एक और उदाहरण है कि हर आयोजन को खुद के प्रचार के लिए इस्तेमाल करने और हर काम को एक इवेंट में, एक तामझामी समारोह में बदल देने की जो प्रवृत्ति पैदा हुई है, वह किस तरह अब जानलेवा विकृति बनती जा रही है। जो मोदी कुनबा नोटबंदी की विनाशलीला, यहाँ तक कि कोरोना की महामारी तक को समारोही इवेंट बनाकर ताली, थाली, लोटा, बाल्टी बजाने के उत्सवों में बदलने से बाज नहीं आया, वह धर्म से जुड़े किसी आयोजन को भुनाने से कैसे चूक सकता था। दुनिया के इस अनोखे मेले में भी यही किया गया ; कण-कण में भगवान् थे कि नहीं, यह जब तय होगा तब होगा या नहीं भी होगा, मगर कुंभ में पग-पग पर मोदी और योगी जरूर थे। दोनों की अलग-अलग मुद्राओं, भिन्न-भिन्न धजाओं की तस्वीरों वाले विशाल और विराट होर्डिंग्स गंगा-जमुना के तटों से लेकर ‘जित देखो तित’ छाए हुए थे।

बाकी बची जगहों पर परम्परागत अखाड़ों से अधिक धर्म के नए सत्ता प्रिय व्यापारी अपने पांच सितारा शामियाना मुकामों में पधराये हुए थे। बैठने भर की जगह बस उनके लिए नहीं थी, जो जीवन की बढती असुरक्षा, रोजी-रोटी की अनिश्चितता के चलते निकल रही अपनी आह और कराह के आस्था और श्रद्धा में रूपांतरित होने के चलते पहले की तुलना में कुछ ज्यादा ही बढ़ी-चढ़ी तादाद में कुंभ में डुबकी लगाने पहुंचे थे। कुप्रबंधन के कंधे पर सवार यह आत्मश्लाघा का प्रेत था, जो 29 जनवरी की भोर में संगम के मुहाने पर नाच रहा था।

मौत के इस नाच के कोरियोग्राफर वे वी आई पी थे, जिनके लिए पहले से ही संकरी जगह के काफी बड़े हिस्से को आरक्षित कर दिया गया था। इधर लाखों लोग एक-दूसरे के ऊपर चढ़े जा रहे थे, आपस में दबे और कुचले जा रहे थे, उधर अनेक अस्थायी पीपा पुल और लाल हरी कालीन से सजे पंडाल इन अतिविशिष्टों का इन्तजार करते हुए खाली पड़े थे। अतीत में हुई कुंभ भगदड़ों से सबक लेते हुए भीड़ वाले दिनों में वीआईपी लोगों के आने पर रोक लगाने के साफ़-साफ़ निर्देशों के बावजूद कभी खुद योगी आदित्यनाथ अपने पूरे मंत्रीमंडल सहित एक दूजे पर पानी उलीच कर जलक्रीड़ा और किलोल कर रहे थे, तो कभी देश के गृहमंत्री अमित शाह अपनी पत्नी और संघी साथियों समेत वी आई पी डुबकी लेते हुए उन्नत उदर स्नान कर रहे थे। यहाँ नहाते वक़्त भी वस्त्र धारे परिधान मंत्री के अर्ध डुबकी प्रहसन का उल्लेख जरूरी नहीं है।

यह तब हो रहा था, जब 8 साल पहले वी आई पी कल्चर के खात्मे और उसकी जगह ई पी आई – हर व्यक्ति महत्वपूर्ण – कल्चर लाने का फरमान मन की बात में स्वयं इनके ब्रह्मा जी द्वारा जारी किया जा चुका था। इस वी आई पी तामझाम से ऊबी-अघाई अयोध्या द्वारा लोकसभा चुनाव में भाजपा को पराजित किये जाने से डरे मुख्यमंत्री योगी एक बार फिर इसी जून में इसे दोबारा ख़त्म करने का एलान कर चुके थे। कथनी के ठीक उलट करनी का पाखंड इस कदर था कि सिर्फ मंत्री-संतरियों के लिए ही नहीं, धन पिशाचों के लिए भी एकदम अलग और सुविधाओं की अति में पगे आरामदेह इंतजाम किये गए थे।

जैसा कि नियम है, धर्म के नाम पर राजनीति करने का नुकसान सबसे पहले उसी धर्म को भुगतना पड़ता है, जिसके नाम पर वह की जाती है। वही हो रहा था, भाजपा और उसके कुनबे ने हिन्दू – जिसे अब वे हिन्दू धर्म भी कहने को तैयार नहीं है, सनातन कहते हैं – पर्वों, मेलों और तीर्थों के साथ यही किया है। साम्प्रदायिक हिंदुत्व ने बड़ी पूँजी के साथ गलबहियां करके पैसे की ताकत पर सिर्फ सत्ता के गलियारों में ही नहीं, धार्मिक परिसरों में भी उनकी बेरोकटोक आवाजाही सुनिश्चित कर दी है। महाकाल सहित ज्यादातर सभी बड़े मंदिरों में वी आई पी दर्शन की बढ़ी-चढ़ी रेट लिस्ट बाकायदा टांग दी गयी हैं। इस कुनबे ने ‘एक ऊँट का सुई के छेद से निकल जाना, एक धनवान व्यक्ति के लिए परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने से कहीं अधिक आसान है’ की उक्ति को ही उलट कर रख दिया और सिर्फ देसी धन पिशाचों के लिए नहीं, श्रीमती एलन मस्क जैसे सात समंदर फांद कर आने वालों यक्ष और यक्षिणीयों के लिए भी पलक पांवड़े बिछा दिए गए।

कुंभ जैसे मेले वर्ण और जाति की ऊंच-नीच से अभिशप्त हिन्दू धर्म के उन गिने-चुने सीमित अवसरों में से एक रहे हैं, जहां अल्लामा इकबाल की कही में कहा जाए तो :
*“न कोई बन्दा रहा और न कोई बंदानवाज/ एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूदो अयाज”* जैसी संभावनाएं शेष बची हुयी थीं। जहां पसीने में लथपथ लुटियाधारी और चंदन लिपटे चुटियाधारी एक ही जगह डुबकी लगा सकते थे। भाजपा राज में पहले से चले आ रहे श्रेणीक्रम में अब धनवानों की नई श्रेणी जोड़कर कुंभ के सांस्कृतिक समावेशी रूप को ही विद्रूप कर दिया गया और इस तरह दुर्घटनाओं की आशंकाओं को बाकायदा न्यौता देकर बुला लिया ; भगदड़ में हुई मौतें धनिकों के प्रति इसी आसक्ति का नतीजा भी है।

इस महाकुंभ ने सिर्फ इनके नहीं, बहुतों के कपडे उतार कर उनके असली रूप स्वरुप को उजागर कर दिया है। न्याय प्रणाली भी इनमें से एक है। केरल के जंगलों में घटे एक हादसे की शिकार एक हथिनी के मामले में बिलबिला जाने वाली न्याय पालिका के सर्वोच्च पर बैठी खंडपीठ को संगम के मुहाने पर बिछी लाशें हस्तक्षेप के लायक नहीं लगी । इसकी जांच करने का आदेश देना, जिम्मेदारियां तय करना उसे आवश्यक नहीं लगा।

*थका प्रयाग, तो खड़ा हुआ इलाहाबाद*

इस कोलाहल और हाहाकार के बीच जब राज के द्वारा ठगा गया प्रयाग हत, आहत, स्तब्ध और हतप्रभ था, तब उसका हाथ थामने के लिए, उसके आंसू पोंछने के लिए इलाहाबाद उठ खड़ा हुआ। जिस इलाहाबाद का कुंभ में आना तक प्रतिबंधित कर दिया गया, जिन मुसलमानों को कुंभ के दौरान संगम से दूर रहने और दुकाने भी न लगाने की सख्त हिदायतें दी गयी थीं, उन्होंने तीर्थ स्नान करने आये और आपदा में फँस गए हिन्दुओं के लिए अपनी बाँहें फैला दीं। उन्होंने कहा कि भक्त हमारे और इलाहाबाद के मेहमान हैं, उन्हें पस्त और खस्ताहाल छोड़ना हमारी इंसानियत का अपमान है।

जैनसनगंज रोड और चौक की जामा मस्जिद सहित दसियों जगह की मस्जिदें, दरगाहें खोल दी गयीं, इसके बाद भी जगह कम पड़ी, तो पहले नखासकोहना, हिम्मत गंज, खुल्दाबाद के इबादतगाह, इमामबाड़े और मकबरों और उसके बाद घर-आँगनों को खोल दिया गया। फूलों से स्वागत करते हुए रामनामी अंगवस्त्र और अंगौछे भी भेंट किये गए। भंडारे शुरू करके खाना, बिस्तर, कम्बल, चाय, पानी की जरूरतें ही पूरी नहीं की गयीं, दवा, इलाज और वैद्य, हकीम, डॉक्टरों को भी उपलब्ध कराया।

अचानक दिल का दौरा पड़ने से गश खाकर गिरे रामशंकर को सीपीआर देकर ज़िंदा करने और तुरंत अस्पताल पहुंचाने वाला फरहान एक व्यक्ति भर नहीं था, वह इलाहाबाद था ; वह इलाहाबाद, जहां सिर्फ नदियों की त्रिवेणी का ही संगम नहीं है, कई हजार सालों की साझी संस्कृति का भी संगम भी है। वह इलाहाबाद, जिसने सिर्फ आर्यों को ही नहीं, ग्रीक, स्काईथियन, पर्शियन और हूणों, यवनों और शकों आदि-इत्यादि समय-समय पर आये सभी मेहमानों को अपना बनाया है, उन्हें नहाना, अनाज उगाना, घर बनाना और नगर बसाना सिखाया है।

वह इलाहाबाद एक बार फिर जाग उठा। उसने बता दिया कि कुछ जहरखुरानों के विषवमन से मनुष्यता अपनी तासीर नही छोड़ती।

*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*

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