गणतंत्र @75 : कुछ इशारे!

राजेन्द्र शर्मा

बेढब तो है, पर हैरान नहीं करता है कि गणतंत्र की पूर्व-संध्या पर अपने परंपरागत संबोधन में राष्ट्रपति मुर्मू ने ‘एक देश, एक चुनाव’ का जी भरकर गुणगान किया। उन्होंने इसे अपनी सरकार का ‘साहसपूर्ण दूरदर्शिता’ का प्रयास ही करार नहीं दिया, यह दावा भी किया कि इससे ‘सुशासन को नये आयाम’ दिए जा सकते हैं। राष्ट्रपति ने इस दूरदर्शी साहस के लाभों का बखान करते हुए कहा कि एक देश, एक चुनाव की व्यवस्था से ‘शासन में निरंतरता को बढ़ावा मिल सकता है, नीति निर्धारण से जुड़ी निष्क्रियता समाप्त की जा सकती है, संसाधनों के अन्यत्र खर्च हो जाने की संभावना कम हो सकती है तथा वित्तीय बोझ को कम किया जा सकता है। इसके अलावा जनहित में अनेक अन्य लाभ हो सकते हैं।’

यहां हम ‘एक देश, एक चुनाव’ के प्रोजेक्ट के गुण-दोष की बात नहीं कर रहे हैं। यह दूसरी बात है कि राष्ट्रपति के इस प्रोजेक्ट के गुणों के बखान में एक भी ऐसे तर्क का न होना थोड़ा निराश तो जरूर करता है, जो तर्क इस नारे के उछाले जाने के बाद से इसके पक्ष में पहले ही नहीं सुना जा चुका हो। तमाम चुनाव एक साथ कराए जाने से संसाधनों की बचत, नीति निर्धारण में चुनाव संबंधी पाबंदियों के चलते पड़ने वाली बाधाओं से उबरना, शासन में निरंतरता में बढ़ोतरी, आदि सब वही तर्क हैं, जो बिना किसी ठोस साक्ष्य के और वास्तव में बिना किसी ठोस तर्क के भी, इतनी बार दोहराए गए हैं कि सुन-सुनकर कान पक गए हैं।

फिर भी राष्ट्रपति को अपनी ओर से कुछ नया तर्क जोड़ेना ही चाहिए, इस तरह की मांग को तो शायद ज्यादती भी कहा जा सकता है, हालांकि ऐसा होना इस नारे के पक्ष में तर्कों के सतहीपन को जरूर दिखाता है। खैर! असली बात यह है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्रपति का पद, ‘अपनी सरकार’ के ‘परामर्श’ से जिस तरह बंधा हुआ है, उसे देखते हुए राष्ट्रपति के अपनी सरकार के किसी फैसले का बचाव करने को किसी भी तरह से गलत नहीं कहा जा सकता है। जहां तक एक देश, एक चुनाव के प्रोजेक्ट का सवाल है, उस पर राष्ट्रपति मुर्मू की ‘सरकार’ अंतत: अपने अनुमोदन की मोहर ही नहीं लगा चुकी है, वह दो विधेयकों के रूप में इससे संबंधित संशोधन प्रस्तावों को पिछले ही सत्र में संसद में पेश भी कर चुकी है। और इन विधेयकों को और विचार के लिए, संयुक्त संसदीय समिति के सामने भेजा भी जा चुका है।

फिर भी, राष्ट्रपति द्वारा ‘एक देश एक चुनाव’ का जोर-शोर से ढोल पीटे जाने में कानूनी व्यवस्थाओं के तकनीकी पहलू से चाहे कुछ भी गलत नहीं हो, फिर भी संवैधानिक नैतिकता के पहलू से इसके समस्यापूर्ण होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। अव्वल तो यह सरकार के एक ऐसे फैसले का राष्ट्रपति द्वारा ढोल पीटे जाने का मामला है, जिस पर देश तथा जनमत के पूरी तरह से बंटे होने से किसी भी तरह से इंकार नहीं किया जा सकता है। पूर्व-राष्ट्रपति की अध्यक्षता में गठित उच्चाधिकार-प्राप्त समिति के अंतत: अपनी सिफारिशें देने से पहले उसे उक्त प्रस्ताव के पक्ष और विपक्ष में देश की जितनी राजनीतिक पार्टियों की राय मिली थी, उस पर एक नजर भर डालने से ही, इस मुद्दे पर जनमत के गंभीर रूप से विभाजित होने का सच सामने आ जाता है। वास्तव में यह सच भी किसी से छुपा हुआ नहीं है कि इस परियोजना के पीछे मुख्य संचालक, सत्ताधारी भाजपा ही है, हालांकि उसके लिए अपने सहयोगी दलों को घेर-बटोरकर इस प्रोजेक्ट के पक्ष में करना भी मुश्किल नहीं हुआ है।

सच तो यह है कि साथ-साथ चुनाव संबंधी विधेयकों का विचार के लिए संयुक्त संसदीय समिति को भेजा जाना भी, इस मामले पर विचारों की व्यापक भिन्नता को ही दिखाता है। यह संयोग ही नहीं है कि मोदी के तीसरे कार्यकाल में यह दूसरा ही मौका है, जब किसी विधेयक को विस्तृत विचार-विमर्श के लिए संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया है। इस सिलसिले में यह याद दिलाना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि इस प्रोजेक्ट को अमल में लाने के लिए किए प्रस्तावित संशोधनों में, कई संविधान संशोधन भी शामिल हैं। दूसरे शब्दों में यह ऐसा प्रस्ताव है, जो वर्तमान रूप में संविधान की व्यवस्थाओं के खिलाफ जाता है। ऐसे मामले में राष्ट्रपति के सरकार के फैसले के अनुमोदन के लिए दौड़ पड़ने की जल्दबाजी कम से कम बेढब तो जरूर ही कही जाएगी। हालांकि, इस संभावना को काल्पनिक ही कहा जाएगा, फिर भी बहस के लिए अगर हम यह मान लें कि संसद के सामने विचाराधीन संशोधन, विफल हो जाते हैं, तो एक देश एक चुनाव की राष्ट्रपति की इस जोरदार पैरवी का क्या होगा? याद रहे कि इस पैकेज में शामिल संविधान संशोधन के प्रस्तावों का, संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित होना, वैसे भी बहुत मुश्किल है।

साफ है कि राष्ट्रपति हर एक लिहाज से समस्यापूर्ण परियोजना के साथ अपना नाम जोड़ने की हड़बड़ी दिखा रही थीं। वह भी तब, जबकि यह गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या में राष्ट्रपति के परंपरागत, किंतु समारोही संबोधन का मामला था। कम से कम ऐसे संबोधन में राष्ट्रपति के अक्षरश: अपनी सरकार के लिखे को पढ़ने की मजबूरी नहीं होनी चाहिए। कम से कम नकारात्मक विवेक का उपयोग कर, राष्ट्रपति सरकार के विशेष रूप से ऐसे विवादास्पद तथा संसदीय प्रक्रियाधीन प्रोजेक्ट का ढोल पीटने से तो खुद को अलग रख ही सकती थीं।

बेशक, राष्ट्रपति के इस अभिभाषण में एक यही चीज विवादास्पद नहीं थी। अपने संबोधन में राष्ट्रपति ने ‘अपनी सरकार’ की गरीबी तथा भुखमरी से देश और लोगों को उबारने की ‘उपलब्धियों’ के अतिरंजित दावे तो किए ही, इसके साथ ही उन्होंने तथाकथित ‘औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेषों’ से उबरने के प्रयास के रूप में तीन नयी फौजदारी संहिताओं का भी जिक्र किया। और इस सब के ऊपर से कुंभ के आयोजन के बहाने से इसका भी दावा किया कि ‘हमारी सांस्कृतिक विरासत के साथ हमारा जुड़ाव और अधिक गहरा हुआ है।’ राष्ट्रपति के इन सभी दावों पर विवाद हो सकता है। लेकिन, गणतंत्र दिवस के समारोही मौके पर कम से कम ‘एक देश, एक चुनाव’ के कर्कश विवाद में न पड़ने का विवेक राष्ट्रपति को और उन्हें इस विवाद में न धकेलने का विवेक मोदी सरकार को दिखाना चाहिए था। लेकिन, दोनों ने ही ऐसे विवेक का प्रदर्शन नहीं किया, जो अपने 75 वर्ष पूरे करने के मौके पर भारतीय गणराज्य की दशा-दिशा की ओर एक कठोर इशारा है।

वास्तव में ऐसा ही एक और इशारा खुद भारतीय गणतंत्र के 75साल पूरे होने को लेकर किया गया है। स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने को लेकर जैसा समारोही जोश शासन में दिखाई दिया था, उसका सौवां हिस्सा भी गणतंत्र के 75 वर्ष पूरे होने को लेकर नहीं दिखाई दिया। इस मौके पर हर साल की तरह, गणतंत्र दिवस परेड का आयोजन ही पर्याप्त समझा गया। वास्तव में गणतंत्र दिवस को काफी हद तक, मोदी के राज में शुरू किए गए 25 नवंबर की ‘संविधान दिवस’ ईवेंट से प्रतिस्थापित किया चुका है।

इसीलिए, संविधान के स्वीकार किए जाने के (लागू होने के नहीं) 75 साल पूरे होने का तो संसद के विशेष सत्र से और उसके बाद संसद के शीतकालीन सत्र में संविधान के 75 वर्ष पर विशेष बहस से जोर-शोर से पालन किया गया, लेकिन गणतंत्र के 75 साल होने का विशेष रूप से पालन करने की जरूरत महसूस नहीं की गयी। लेकिन क्यों? वर्तमान सत्ताधारियों को गणतंत्र दिवस से समस्या यह भी लगती है कि स्वतंत्र भारत के संविधान के लागू किए जाने के लिए, 26 जनवरी का ही दिन इसलिए चुना गया था कि राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस के पूर्ण स्वराज की मांग स्वीकार करने के बाद, 26 जनवरी का ही दिन ‘पूर्ण स्वराज दिवस’ के रूप में मनाने के लिए चुना गया था और उसके बाद 1947 में 15 अगस्त को भारत को स्वतंत्रता मिलने तक, हर साल 26 जनवरी का ही दिन स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा था। दूसरी ओर, वर्तमान सत्ताधारियों के पुरखा, आरएसएस और हिंदू महासभा ही इस स्वतंत्रता दिवस के पालन से दूर ही रहे थे। स्वतंत्रता आंदोलन के बीच से निकले ऐसे दिन का पालन, वर्तमान सत्ताधारियों को पसंद नहीं है। इसीलिए, गणतंत्र दिवस के मुकाबले संविधान दिवस को खड़ा करने की कोशिशें की जा रही हैं, हालांकि ये कोशिशें अभी तक आंशिक रूप से ही सफल हुई हैं।

75 साल के हो गए गणतंत्र की दशा-दिशा का एक और महत्वपूर्ण इशारा, बाबरी मस्जिद ध्वंस के केस के प्रमुख आरोपियों में से एक, साध्वी ऋतंभरा को इस बार पद्मभूषण से सम्मानित किया जाना है। कटे पर नमक छिड़कने वाली बात यह कि उग्र सांप्रदायिक प्रचार और मुस्लिम विरोधी आह्वानों के लिए कुख्यात इस साध्वी को, ‘सामाजिक कार्य’ के लिए सम्मानित किया गया है। यानी 75 वर्ष के गणतंत्र में, उग्र मुस्लिम-द्वेष का प्रचार-प्रसार, सम्मानित ‘सामाजिक कार्य’ है। पचहत्तर साल पहले लागू हुए संविधान की उद्देश्यिका में वर्णित लक्ष्यों से हम क्या वाकई बहुत दूर नहीं निकल गए हैं!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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