एक नया जुर्म : नमाज़ पढ़ना

राजेंद्र शर्मा

कुंभ मेला जैसे बड़े पारंपरिक आयोजनों के लिए, जहां भी विशाल संख्या में लोग जुटते हैं, उनकी धार्मिक प्रकृति चाहे जैसी भी हो, तमाम व्यवस्था संबंधी इंतजामात करने और न्यूनतम सुविधाएं जुटाने की जिम्मेदारी से कोई भी शासन बच नहीं सकता है। बेशक, इस महाकुंभ के सिलसिले में भी इस पर तो बहस हो सकती है कि क्या व्यवस्थाओं के मामले में मोदी-योगी सरकार की सभी प्राथमिकताएं, इस पारंपरिक आयोजन की प्रकृति के अनुरूप रही हैं।

शनिवार को उत्तर प्रदेश में बरेली की बहेरी तहसील के एक गांव में घर के एक अस्थायी टीन शेड में जुमे की नमाज अता करने के लिए ग्राम पंचायत प्रधान समेत चार मुस्लिम पुरुषों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और 20 पहचानशुदा तथा अनजान व्यक्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली। हिंदू जागरण सेना से जुड़े एक एक्स (पहले ट्विटर) उपयोक्ता ने नमाज अता किए जाने का एक ड्रोन फुटेज साझा किया था, जिसके बाद पुलिस ने उस स्थान को सील कर दिया और पुरुषों को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार होने वालों की पहचान आरिफ (ग्राम पंचायत प्रमुख), अकील अहमद, मोहम्मद शाहिद और छोटे अहमद के रूप में हुई है। पुलिस ने बताया कि मुजम्मिल, कादिर अहमद और अन्य कई के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया है।’

सिर्फ और सिर्फ ‘सामूहिक रूप से नमाज पढ़ने’ के जुर्म में पुलिस कार्रवाई की यह कोई पहली घटना नहीं है। मोदी-योगी के डबल इंजन राज में उत्तर प्रदेश में तो यह आए दिन की बात ही हो गयी है। सार्वजनिक जगह पर सामूहिक रूप से नमाज पढ़ने के लिए, यहां तक कि कई मामलों में तो सार्वजनिक स्थान पर अकेले नमाज पढ़ने के लिए भी या निजी स्थानों पर सामूहिक रूप से नमाज पढ़ने पर भी, पुलिस की कार्रवाई के मामलों की तादाद ठीक-ठाक बैठेगी। लेकिन, उत्तर प्रदेश ही इस मामले में अकेला नहीं है। मध्य प्रदेश जैसे अन्य भाजपा-शासित राज्य भी इस मामले में उत्तर प्रदेश के पदचिन्हों पर चल रहे हैं।

और यह ‘कृपा’ भी सिर्फ नमाज पढ़ने वालों के लिए ही सुरक्षित नहीं है। कुछ ही हफ्ते पहले, भाजपा-शासित उत्तराखंड में एक महिला के निजी आवास पर, ईसाई प्रार्थना संबंधी आयोजन पर, इसी तरह हिंदू सांप्रदायिक संगठनों के झगड़ा खड़ा करने के बाद, पुलिस हरकत में आ गयी थी। गनीमत यही रही कि संबंधित घर की स्वामिनी को पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया और ऐसा कुछ भी दोबारा नहीं करने की कड़ी चेतावनी देकर ही छोड़ दिया। हरियाणा, छत्तीसगढ़, ओडिशा आदि अन्य डबल इंजन सरकार शासित राज्यों में भी, क्रिसमस समेत ईसाई धार्मिक आयोजनों पर हिंदू सांप्रदायिकतावादियों के हमलों और उनके लिए पुलिस-प्रशासन की मौन सहमति की घटनाएं, कम से कम वैकल्पिक मीडिया में ठीक-ठाक संख्या में दर्ज की गयी हैं।

इस तरह, मोदी राज में भारत में एक नया जुर्म स्थापित किया जा चुका है, मुसलमानों के नमाज पढ़ने का जुर्म, ईसाइयों के प्रार्थना करने का जुर्म और संक्षेप में कहें तो अल्पसंख्यकों के प्रार्थना करने का जुर्म। यहां हम जान-बूझकर ‘अपने धर्म का पालन करने’ जैसी व्यापक संज्ञा का उपयोग नहीं कर रहे हैं। अपने धर्म का पालन करने की संज्ञा के दायरे में तो, हालांकि भारत का संविधान सभी नागरिकों को ठीक इतनी ही व्यापक स्वतंत्रता देता है, अपने धर्म की प्रार्थना करने से आगे भी बहुत कुछ आ जाता है। बेशक, भारत का संविधान तो इससे कई कदम आगे बढ़कर, अपने धर्म का प्रचार तथा धर्मांतरण के जरिए उसका प्रसार करने तक की इजाजत देता है। लेकिन, जैसा कि किसी से छुपा हुआ नहीं है, धर्मांतरण-विरोधी कानूनों के नाम पर, पहले ही अल्पसंख्यकों के लिए अपने धर्म के प्रचार-प्रसार को व्यवहार में जुर्म ही बनाया जा चुका था। उत्तर प्रदेश की अगुआई में प्राय: सभी भाजपायी राज्य सरकारें, इन पाबंदियों को और इस जुर्म के लिए सजा को, कड़े से कड़ा बनाने में ही लगी रही हैं। बहरहाल, इसके साथ ही अब तरह-तरह के बहानों से, अल्पसंख्यकों के प्रार्थना करने के धार्मिक अधिकार को ही निशाने पर लेने की कोशिश की जा रही है। बरेली में जो हुआ है, इसी का ताजातरीन उदाहरण है।

बरेली की घटना का पूरा अर्थ समझने के लिए, यह याद रखना भी जरूरी है कि नमाज पढ़े जाने की घटना शुक्रवार, 17 जनवरी की है और पुलिस कार्रवाई 18 जनवरी की है। इन तारीखों का महत्व, इस तरह की शिकायतों पर पुलिस की अतिरिक्त मुस्तैदी की ओर इशारा करने के अलावा यह भी है कि यह सब ठीक उस दौरान हुआ है, जब इलाहाबाद उर्फ प्रयागराज में महाकुंभ चल रहा है, जिसकी विधिवत शुरूआत 14 जनवरी को मकर संक्रांति से हो चुकी थी। इस महाकुंभ के लिए, जो वास्तव में बारह वर्ष पर होने वाला पूर्ण कुंभ है, मोदी-योगी के डबल इंजनिया राज द्वारा जिस तरह से व्यवस्थाएं की जा रही हैं और पूरी ताकत झोंककर व्यवस्थाएं की जा रही हैं, उनकी खबरों से न सिर्फ मीडिया पटा पड़ा है, बल्कि खुद शासन द्वारा तमाम सार्वजनिक विमर्श को इस प्रचार के बोझ तले दबाने की ही, काफी हद तक कामयाब कोशिशें की जा रही हैं। एक ओर, अगर बढ़ा-चढ़ाकर इसके दावे किए जा रहे हैं कि इस बार के महाकुंभ में 40 करोड़ के करीब लोग हिस्सा लेने जा रहे हैं, तो दूसरी ओर जोर-शोर से इसके भी दावे किए जा रहे हैं कि सरकार ने अपनी ओर से कुंभ मेले के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है। केंद्र और राज्य सरकार द्वारा 7,000 करोड़ रुपए से अधिक प्रत्यक्ष रूप से बजट से खर्च किए जाने की जो जानकारियां सामने आयी हैं, उनके अलावा रेलवे समेत विभिन्न विभागों के जरिए, सरकार द्वारा ही, किंतु अलग-अलग नामों से जितना कुछ खर्च किया गया है, उसका तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।

बेशक, कुंभ मेला जैसे बड़े पारंपरिक आयोजनों के लिए, जहां भी विशाल संख्या में लोग जुटते हैं, उनकी धार्मिक प्रकृति चाहे जैसी भी हो, तमाम व्यवस्था संबंधी इंतजामात करने और न्यूनतम सुविधाएं जुटाने की जिम्मेदारी से कोई भी शासन बच नहीं सकता है। बेशक, इस महाकुंभ के सिलसिले में भी इस पर तो बहस हो सकती है कि क्या व्यवस्थाओं के मामले में मोदी-योगी सरकार की सभी प्राथमिकताएं, इस पारंपरिक आयोजन की प्रकृति के अनुरूप रही हैं ; इस मेले में लखटकिया टैंटों के जो विशाल मोहल्ले बनाए गए हैं, उनके बजाए मेला भूमि समेत तमाम संसाधनों का क्या गरीब या साधारण श्रद्घालुओंं के लिए सुविधाएं बेहतर बनाने के लिए उपयोग करना ही अच्छा नहीं रहता। बेशक, इस तरह के सवाल भी अपनी जगह रहते ही हैं कि क्या वजह है कि शासन के न भूतो न भविष्यत किस्म के प्रबंध करने के दावों के बावजूद, लाखों साधारण और जाहिर है कि गरीब श्रद्घालु जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में भी, खुले आसमान के नीचे रात गुजारने पर मजबूर हैं। क्या आसमान से फूलों की बारिश कराए जाने जैसी नुमाइशी व्यवस्थाओं के मुकाबले, इन साधारण श्रद्घालुओं के लिए रात को सिर छुपाने की व्यवस्थाओं पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी नहीं था?

फिर भी, यहां हमारा इरादा इस बार के महाकुंभ की व्यवस्थाओं की किसी प्रकार की समीक्षा करने का नहीं है। ना ही हम इसकी चर्चा में जाना चाहेंगे कि इस तरह के आयोजनों पर सरकार का खर्चा करना अगर जरूरी भी हो, तब भी देश की प्राथमिकताओं तथा सामर्थ्य के हिसाब से क्या उसकी कोई सीमाएं नहीं होनी चाहिए? देश के आजाद होने के बाद, पहले कुंभ के लिए डेढ़-दो करोड़ के बजट से, 2025 के कुंभ में 7,000 करोड़ रुपए से ज्यादा के खर्च तक की इस यात्रा में बेशक, शाहखर्ची का रंग दिखाई देता है। बहरहाल, हमारे तो कुंभ के प्रसंग को उठाने का आशय ही कुछ और है। कुंभ वह पर्दा है, जिसके सामने रखकर जब हम बरेली के बहेली तहसील की घटना को देखते हैं, तो उसकी भयावहता अपने असली रंग में सामने आ जाती है। आखिरकार, वही सरकार जो धार्मिक परंपरा के नाम पर, कुंभ को विशालतम और भव्यतम बनाने के लिए प्राणप्रण से लगी हुई है, उसी समय मुसलमानों को नमाज पढ़ने से रोकने के लिए, अपनी पूरी दमनकारी ताकत लगाने के लिए सन्नद्घ नजर आती है।

जाहिर है कि यह हमारे संविधान के धर्मनिरपेक्ष आधार को धीरे-धीरे कमजोर किए जाने भर का मामला नहीं है। यह धर्मनिरपेक्षता स्वीकार न कर के उसकी जगह सर्वधर्म समभाव को ही स्वीकार करने की दिखावटी बहस का भी मामला नहीं है। यह तो सीधे-सीधे संविधान की धर्मनिरपेक्ष जड़ों के और उसके जरिए देश की एकता की जड़ों के ही खोदे जाने का मामला है। बेशक, अब से चंद हफ्ते पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना में से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हटाए जाने की याचिका को, इन्हें संविधान का जरूरी आधार बताते हुए खारिज कर दिया था। इस लिहाज से बांग्लादेश, हमारे सुप्रीम कोर्ट ने जिसे नकार दिया है, उसे ही कानूनन हासिल करने की ओर बढ़ रहा है। वहां शेख हसीना के तख्तापलट के बाद आए निजाम द्वारा गठित संविधान समीक्षा निकाय ने, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को ही संविधान से बाहर करने की सिफारिश की है।

लेकिन, क्या हम भी वाकई भरोसे के साथ यह कह सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को हमारे यहां व्यवहार में पहले ही संविधान की प्रस्तावना में से हटाया नहीं जा चुका है? बरेली की घटना से तो ऐसा कोई भरोसा होना तो दूर रहा, यही नजर आता है कि राज्य की नजरों में सभी धर्मों की बराबरी के अर्थ में भी धर्मनिरपेक्षता को बाकायदा त्याग कर, हमारे यहां व्यवहार में एक हिंदू राज कायम भी किया जा चुका है, जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों का अपनी पूजा-अर्चना करना भी गुनाह बना दिया गया है। यह बांग्लादेश में जो प्रस्तावित है और पाकिस्तान में जो है, वैसे धर्माधारित राज से भी भयानक लगता है ; वहां बहुसंख्यक धर्म के प्रति ईशनिंदा तो गुनाह है, लेकिन अपने भिन्न ईश की स्तुति तो वहां भी गुनाह नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

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