महाकुम्भ नगर। सनातन की वैदिक परंपरा कितनी गहरी है, इसे समझना है तो उत्तर प्रदेश के प्रयागराज आइए। यहां करीब डेढ़ हजार से अधिक पंडा हमें अपने पूर्वजों के इतिहास के बारे में बताएंगे। खास बात यह है आधुनिकता के इस युग में आप भले ही देश-विदेश में रह रहे हों। लेकिन, एक बार अगर आप संगम क्षेत्र में किसी भी पंडा से मुलाकात करेंगे और अपना नाम, गांव या फिर अपने पिता, बाबा किसी का भी नाम बताएंगे तो वे आपकी वंशावली के बारे में पूरी जानकारी प्रदान कर देंगे।
प्रयाग के पंडों का ये वो पक्ष है जो जगजाहिर है। लेकिन प्रयाग के पंडों ने देश के स्वतंत्रता संग्राम और आजादी के आंदोलन में भी हिस्सा लिया है। इसकी जानकारी ज्यादा लोगों को नहीं है।
स्थानीय इतिहासकारों के अनुसार, प्रयाग के तीर्थ पुरोहित लड़ाकू जाति में गिने जाते थे और समय-समय पर इन्होंने धर्म-युद्ध भी किया था। सिखों के गुरू रामसिंह एवं गुरू गोबिंद सिंह भी इन तीर्थ पुरोहितों की महानता को स्वीकार करते हैं। सन् 1661 में मराठा शासक शिवाजी अपने पुत्र शम्भाजी के साथ आगरा से भागकर प्रयाग आए थे और यहां दारागंज स्थित एक तीर्थ पुरोहित के यहां रूके। शम्भाजी को तीर्थ पुरोहित की संरक्षता में छोड़कर शिवाजी काशी चले गए थे। बाद में वह तीर्थ पुरोहित शम्भाजी के साथ महाराष्ट्र गया और उन्हें राज्य में मंत्री बनाकर उचित स्थान दिया गया। इसके बाद उन्हें कविकलश उपाधि से सम्बोधित किया गया।
प्रयाग में 1857 में जो गदर हुई थी उसकी रूपरेखा प्रयागवाल के मध्य तैयार की गई थी। प्रयागवालों ने महगांव के पास मौलवी लियाकत अली के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की। कोतवाली के पास स्थित गिरजाघर का घंटा कीड़गंज के तीर्थ पुरोहित पं० राधेश्याम ने तोड़ दिया था इसके लिए उनको बाद में फांसी पर लटका दिया गया। साथ ही दारागंज और कीडगंज के प्रयागवालों के मकान को उजाड़ दिया गया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई प्रयाग आने पर तीर्थ पुरोहित के यहाँ ठहरीं। स्वतंत्रता संग्राम में प्रयागवाल के लोगों का काफी योगदान रहा इसमें पं बंसत लाल शर्मा, पशुपति नाथ शर्मा, काशी प्रसाद अवस्थी, रंगनाथ शर्मा, छविनाथ शर्मा, मातार राज जी आदि शामिल थे।