बादल सरोज
पिछले दिनों, सप्तम सुर तक जा पहुंचे रौद्र रस में जारी भागवत कथा के बीच अचानक से कोमल सुर लग गया। हर संभव-असंभव स्थान और माध्यम से फूंकी जा रही रणभेरी के तुमुलनाद के बीच एकदम से मद्धम, लगभग लोरी-सी सुनाते हुए ओर्केस्ट्रा के प्रमुख ने अचानक कथा में लंकाकाण्ड की जगह शान्ति पर्व का पाठ शुरू कर दिया।
गुरुवार 19 दिसम्बर को एक समारोह में बोलते हुए आरएसएस के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने मंदिर-मस्जिद विवादों के फिर से उठने पर चिंता जताई। ऐसा करने वालों को लगभग धिक्कारते हुए उन्होंने कहा कि :
‘’अयोध्या के राम मंदिर के निर्माण के बाद कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि वे ऐसे मुद्दे उठाकर हिंदुओं के नेता बन जाएंगे, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।‘’
अब तक शीर्षासन की मुद्रा में सधी खुद संघ द्वारा रचित स्वरलिपि को पैरों पर खड़ा करने का करतब-सा दिखाते हुए उन्होंने इसे और साफ किया और कहा कि
“हर मस्जिद के नीचे मंदिर नहीं खोज सकते। राम मंदिर आस्था का मामला था, लेकिन हर दिन नए विवाद नहीं उठा सकते। इन झगड़ों से कुछ लोग नेता बनना चाहते हैं।“
वे यही तक नहीं रुके और यहाँ तक बोल गए कि :
“जितनी श्रद्धा मेरी खुद की बातों (अपने धर्म) में है, उतनी श्रद्धा मेरी दूसरों की बातों (दूसरे धर्मों) में भी रहनी चाहिए। हमें यह व्यवहार पालन करना होगा ; लोभ, लालच, आक्रमण करके दूसरों की देवी-देवताओं की विडंबना – अपमान – करना, यह नहीं चलेगा। वैसे भी यह बातें हमारे देश की नहीं है। यह हमारे राष्ट्रीय जीवन में समा ही नहीं सकती। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक एक हैं । सबको अपने ढंग से उपासना का अधिकार है। भारत को एक रहना है ।”
इसी रौ में बोलते हुए उन्होंने धर्म के आधार पर लड़ाने की अंग्रेजो की रणनीति और आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र के समावेशी धर्मनिरपेक्ष आयाम का भी उल्लेख कर दिया और आव्हान किया कि
“भारत को यह दिखाने की जरूरत है कि हम एक साथ रह सकते हैं। हम लंबे समय से सद्भावना के साथ रह रहे हैं। अगर हम दुनिया को यह सद्भावना देना चाहते हैं, तो हमें इसका एक मॉडल बनाने की जरूरत है।”
आलाप के यकायक सप्तम से सीधे कोमल पर आ जाने के असर होते हैं ; संगत करने वालों के सारे सुर-ताल गड़बड़ा जाते हैं, सरोदा बिगड़ जाता है। सत्यकथा है कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पुरोधा बड़े गुलाम अली खां साहब एक महफ़िल में एक कठिन पक्के राग को गाते हुए उसके लगभग शीर्ष तक पहुंच चुके थे कि तभी तबके एक प्रख्यात सारंगी वादक ने उनके साथ जुगलबंदी की पेशकश की। उस्ताद ने बहुत समझाया कि सुर बहुत ऊंचाई तक पहुँच चुका है, इस तक पहुंचने में उन्हें मुश्किल होगी, मगर वे नहीं माने और नतीजा यह निकला कि पहले पांच मिनट में ही दिल के दौरे का शिकार हो गए।
जब संगीत में ऐसे बदलाव आघात पहुंचा सकते हैं, तब दिल और दिमाग दोनों में मोटी चर्बी की पर्तों के थान के थान धरे बैठे भक्तों को तो झटका लगना ही था, सो लगा। पुराने भक्त तो समय-समय पर ऐसे बदलते सुरों और तालियाँ बजवाने के लिए गढ़े गए मिसरों के अभ्यस्त हो चुके है, इसलिए वे थोड़े कम हिले, मगर मण्डली के नवागंतुकों को जोर का धक्का कुछ ज्यादा ही जोरों से लगा। ज्यादा प्याज खाने की तर्ज पर ज्यादा जोर से घंटा बजाने की उनकी ‘आस्था’ झंकारमान भवति भयी।
सकल ब्रह्मांड में सिर्फ दो को – अलौकिक जगत में कृष्ण और लौकिक जगत में नरेंद्र मोदी को – अपना मित्र बताने वाले तुलसी पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने बमक कर कहा कि :
“मैं मोहन भागवत के बयान से बिल्कुल सहमत नहीं हूं।“ भागवत जी को लगभग पदच्युत करने की घोषणा-सी करते हुए बोले कि “मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मोहन भागवत हमारे अनुशासक नहीं हैं, हम उनके अनुशासक हैं।“
प्राणप्रतिष्ठा समारोह के जमाने से ही इस गिरोह के हिंदुत्व और अहिन्दू चाल-चलन की पोल खोलने वाले ज्योतिर्मठ पीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने और भी खरी खरी सुनाई और मोहन भागवत पर राजनीतिक रूप से सुविधाजनक रुख अपनाने का आरोप लगाया … बोले कि “जब उन्हें सत्ता चाहिए थी, तब वे मंदिरों के बारे में बोलते रहे। अब जब उनके पास सत्ता है, तो वे मंदिरों की तलाश ना करने की सलाह दे रहे हैं।“
एक और नवागत नवातुर कथावाचक देवकी नंदन ठाकुर ने कहा कि “काहे के कथावाचक और काहे के सनातनी! जब तक हमारे मंदिर हमें नहीं मिल जाएंगे, तब तक कलेजे में लगी आग नहीं बुझ सकेगी।“
फिलहाल मुद्दा संघ प्रमुख के इस बयान पर दक्षिण से उठे कोलाहल का नहीं है, इसलिए नहीं है, क्योंकि यह एक क्षणिक और अल्पकालीन घटना है। यह तो सुगबुगाहट है, ऐसे कोहरामों तक का कुशल प्रबंधन करना इस कुनबे को आता है। इनके बूते में शास्त्रों पर अधिकार भले न हों, मगर साम, दाम, दण्ड, भेद के अभेध्य शस्त्र और उन्हें चलाने की माहिरी उनके पास हैं। इसके अलावा वे इस तरह के सुर बोलने वालों की ‘मो को और न तो को ठौर’ की दीन-हीन दशा से भी वाकिफ हैं और जानते हैं कि ये कितनी भी हुआं-हुआं क्यों न कर लें, सुबह होने के डर से इन्हें लौट के तो मांद में ही आना है।
चिंता उनकी है, जिनकी सोच और चिन्ताधारा दक्षिणोन्मुखी नहीं है ; जो भले लोग हैं, बौद्धिक रूप से सजग हैं, उदार और धर्मनिरपेक्ष हैं, मोटा-मोटी ईमानदार भी हैं और कई तो ऐसे भी हैं, जो तूफानी अंधेरों के बीच भी चिराग जलाकर राह रोशन किये बैठे हैं। उन्हें संघ प्रमुख का यह बयान अगर अच्छा लगा है या इसे पढ़ते या मराठी में सुनते हुए उनके मन में कुछ आशा जगी है, थोड़े-बहुत बदलाव की उम्मीद नजर आई है, तो इसका मतलब सिर्फ एक है और वह यह कि वे बाकी भले कितना भी क्यों न जानते हों, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे नहीं जानते कि थोड़े-थोड़े अंतरालों के बाद दिए जाने वाले इस तरह के बयान भी पटकथा का ही हिस्सा होते हैं ; हॉरर फिल्म के मध्यांतर की तरह होते है। और यह भी कि संघ इस विधा को आज से नहीं, जब से वह जन्मा है, तब से ही लगातार आजमाता रहा है और इसी तरह के शोशे उछलकर भोले और भले प्राणियों को भरमाता रहा है।
यही संघ प्रमुख भागवत हैं, जिन्होंने 3 जून 2022 को नागपुर में संघ के ही एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा था कि “हर मस्जिद के नीचे शिवालय ढूँढना क्या जरूरी है? झगड़े बढाने का यह काम बंद होना चाहिए।“ यही बात वे एक बार फिर 2023 में बोले। क्या ऐसा हुआ? नहीं, बल्कि जैसे उन्होंने इशारा किया हो, मस्जिदों के नीचे मंदिर ढूँढने और खुदा के नीचे भगवान खोदने का खुदाई महोत्सव ही शुरू कर दिया गया।
भागवत जी राम मंदिर पर विराम और हद्दतन काशी विश्वनाथ पर इति की बात कहते रहे और इधर बाराबंकी होता रहा, मस्जिदों पर भगवा लहराए जाते रहे, सम्भल से अजमेर तक शिवालय ढूंढें जाते रहे। कौन हैं यह सब करने वाले? ये सब के सब उसी संघ के अनुषंग हैं, जिनके शीर्षस्थ भागवत हैं – और ऐसे-वैसे प्रमुख नहीं है, एकानुचालिकवर्ती संघ के एकमात्र चालक – सरसंघचालक हैं। ‘करें गली में क़त्ल बैठ चौराहे पर रोयें’ का यह स्वांग सिर्फ मस्जिद-मस्जिद मंदिर-मंदिर ढूंढ-तलाश तक ही महदूद नहीं है ; सारे का सारा माजरा ही इस पर टिका है।
ज्ञानवापी मस्जिद मामले में कथित हिंदू पक्ष का प्रतिनिधित्व कर रहे इसी कुनबे के वकील ने अदालत में कहा कि भारत भर में विवादित मस्जिदों और स्मारकों की संख्या लगभग 50 है। इनमें मथुरा में शाही मस्जिद, धार में भोजशाला परिसर, लखनऊ में टीली वाली मस्जिद, अजमेर में हजरत ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह, मध्य प्रदेश में कमाल-उद-दीन मस्जिद, बदांयूं की 800 साल पुरानी शाही इमाम मस्जिद और वाराणसी की धरहरा मस्जिद भी शामिल है।
इन्ही के शरणागत हुए इस्लाम छोड़कर हिंदू धर्म अपनाकर पहले जितेंद्र नारायण त्यागी और इसी साल अक्टूबर में खुद का जाति उत्थान कर अपना नाम बदलकर ठाकुर जितेंद्र सिंह सेंगर करने वाले जब उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी हुआ करते थे, तब उनकी लिस्ट में 9 विवादित मस्जिदें थीं — अयोध्या की बाबरी मस्जिद, मथुरा की ईदगाह मस्जिद, वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद, जौनपुर में अटाला मस्जिद, गुजरात के पाटन में जामी मस्जिद, अहमदाबाद में जामा मस्जिद, पश्चिम बंगाल के पांडुआ में अदीना मस्जिद, मध्य प्रदेश के विदिशा में बीजा मंडल मस्जिद और दिल्ली की कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद।
नब्बे के दशक में राम मंदिर आन्दोलन की शुरुआत करते में विश्व हिन्दू परिषद ने ‘झांकी है – बाकी है’ के नारे के साथ कोई ढाई हजार पूजा स्थलों को बाबरी बनाने का एलान किया था। इसके बाद यह संख्या बढती गयी और अब ‘मुस्लिम बादशाहों के राज में तोड़े गए 60 हजार मंदिरों के पुनरोद्धार’ तक पहुँच गयी है। इनमें दिल्ली की क़ुतुब मीनार से लेकर आगरा का ताजमहल तक शामिल हैं। कौन हैं ये लोग? ये सब के सब उसी संघ के अनुषंग हैं, जिनके शीर्षस्थ भागवत हैं!! उनका यह बयान क्या इन सभी दावों को विराम देने और इस मुहिम को खत्म कर देने की बात करता है? नहीं!!
इसी वितंडा और इसकी आड़ में की जाने वाली हिंसा पर रोक लगाने के लिए इस देश की संसद ने पूजास्थलों की यथास्थिति बनाए रखने का कानून बनाया था। प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991 कहता है कि 15 अगस्त 1947 को सभी धार्मिक स्थल, वह चाहे मस्जिद हो, मंदिर, चर्च या अन्य सार्वजनिक पूजा स्थल, वे सभी उपासना स्थल इतिहास की परंपरा के मुताबिक ज्यों का त्यों बने रहेंगे। उसे किसी भी अदालत या सरकार की तरफ से बदला नहीं जा सकता। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाने वाले पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, बीजेपी नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय, कथावाचक देवकीनंदन ठाकुर, काशी की राजकुमारी कृष्ण प्रिया, धर्मगुरु स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती, रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर अनिल कबोत्रा, एडवोकेट चंद्रशेखर, रुद्र विक्रम सिंह आदि-इत्यादि और इस क़ानून के अभी भी अस्तित्व में होने के बावजूद मस्जिदों के नीचे खुदाईयों की कुदालें थमाने और थामने वाले कौन हैं? किस कुनबे के है? उसी के ना, जिसके इकलौते निर्णायक प्रमुख भागवत स्वयं हैं।
इस पूरी मुहिम को लगातार आक्रामकता की ओर ले जाने वाले बयान-दर-बयान और ऐसा करने वालों को संरक्षण देने वाले योगी आदित्यनाथ, हिमंता विषसर्मा, मोहन यादव यूपी, असम और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी इसी कुल कुटुंब के है और ठीक उसी काम को करने के खुले आव्हान कर रहे हैं, जिसे न करने की सलाह अभी-अभी 19 दिसम्बर को, उससे पहले 3 जून 2022 को इन दोनों के बीच 2023 में भागवत जी ने दी थी।
क्या यह अचानक बटुकों में हिम्मत आ जाने का मामला है, क्या यह ‘कुछ’ के अति कट्टर चरमपंथी गरम और संघ प्रमुख के नरम हो जाने या संघ बनाम मोदी, मोदी बनाम योगी, संघ बनाम भाजपा के बीच चल रही कथित मत भिन्नता का मामला है?
नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। यह अभी भी इस तरह की विषाक्तता के असर से बच गए भारतीयों, इस प्रकार की मध्ययुगीन बर्बरता को खराब और बुरा मानने वाले समाज और ऐसी बेहूदी उग्रता को इस देश के लिए घातक तथा नुकसानदेह मानने वाले नागरिकों को भरमाने के लिए बोले गए संवाद है। दोहरे बोलवचन और कहे से ठीक उलटे व्यवहार का संघी रिवाज है। ऐसे बयानों के मुगालते में वे ही आ सकते हैं, जो संघ और उसके अब तक के ट्रेक रिकॉर्ड बारे में नहीं जानते ।
यही संघ था, जिसने संविधान को कभी नहीं माना, मनुस्मृति को ही शासन चलाने का एकमात्र नियम विधान माना और ऐसा मानने के अपने रवैय्ये को आज भी गलत नहीं माना, मनु की किताब आज भी सर पर धारे हैं, नीतियों में उतारे जा रहे हैं, मगर मज़बूरी के दिखावे के लिए इसके स्वयंसेवक प्रधानमंत्री संसद में 110 मिनट का भाषण पेलने से भी नहीं चूक रहे है।
यही तिरंगे झंडे को अशुभ और ‘सच्चे हिदुओं’ के लिए कलंक भी बताते रहे और बलात्कारियों को बचाने के लिए निकाले जलूसों में उसे लहराते भी रहे। गाँधी हत्या में लिप्त भी रहे, गोडसे का महिमामंडन भी जारी रखा, मगर जरूरत पड़ने पर गांधी जी की जै-जैकार भी की। प्रतिबन्ध हटाने के लिए दिए गए वचन पत्र में ‘कभी राजनीति में भाग न लेने’ की शपथ ली, मगर राजनीति कभी नहीं छोड़ी ।
सन 1975-77 के आपातकाल के समर्थन में तबके सरसंघचालक ने इंदिरा गांधी की वंदना-अर्चना करते हुए, इमरजेंसी को सही बताया, उसमें राष्ट्र निर्माण में योगदान की याचना करते हुए कोई आधा दर्जन चिट्ठियाँ लिखीं, लाइन लगाकर माफियाँ मांगी और अब उसके खिलाफ संघर्ष के योद्धा – लोकतंत्र सेनानी – होने का भी दावा ठोंक रहे हैं।
इन्ही के स्वयंसेवक ने इधर सुप्रीम कोर्ट में बाबरी मस्जिद की हिफाजत और क़ानून व्यवस्था के पालन का शपथ पत्र दिया, उधर उसका ध्वंस करने के लिए अपने झुण्ड छोड़ दिए ; इसे एक महान कार्य भी बताते रहे और इनके शीर्षस्थ अफ़सोस, ग्लानि जताकर इस काण्ड को दुर्भाग्यपूर्ण भी बताते रहे।
यही भागवत महाराज थे, जिहोने आरक्षण की समीक्षा चाही थी, बाद में वापसी की पतली गली तलाशी थी, लेकिन दिखावे भर के लिए ही वापसी की थी, जाति जनगणना के सवाल पर आज भी यही स्वांग चल रहा है।
कथा अब लिपे से बाहर जा रही है ; विहिप के केंद्रीय महामंत्री मिलिंद परांडे ने दावा किया है कि अब वे देश के उन लगभग चार लाख मंदिरों को ‘मुक्त’ कराने के लिए युद्ध छेड़ने वाले हैं, जिन पर राज्य सरकारों ने कब्जा कर रखा है। उन्हें तकलीफ है कि विश्व प्रसिद्ध तिरुमाला मंदिर में प्रतिवर्ष दर्शनार्थियों के दान से लगभग 1300 करोड़ रुपये आते हैं। इसमें से 85 फीसद राशि राजकोष में चली जाती है। इस सहित सभी मंदिरों कब्जा हिन्दुओं – मतलब पण्डे पुरोहितों – सौंपने के लिए 9 जनवरी से प्रचंड आन्दोलन शुरू होने वाला है ; अबकी बार आगाज़ दक्षिण के आंध्रप्रदेश से होगा।
इसलिए लिखे में पंक्तियों के बीच जो अनलिखा है, उसे पढ़कर, बोले में शब्दों के चयन और उनके उच्चारण के बीच जो अनकहा-अनबोला है, उसे सुनकर ही समझा जा सकता है। एक मशहूर शेर की तर्ज पर कहें तो :
उसके झूठो पे, तिलिस्मों पे, भुलावो पे न जा/ उसके क़दमों की तरफ देख किधर जाते हैं।
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)