बादल सरोज
‘देर आयद’ की कहावत के पहले दो शब्दों को व्यवहार में उतारते हुए आखिरकार देश की सबसे बड़ी अदालत ने बुलडोजर अन्याय पर अपना फैसला दे दिया। 13 नवंबर को सुनाए अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कार्यपालिका केवल इस आधार पर किसी व्यक्ति का घर नहीं गिरा सकती कि वह किसी अपराध में आरोपी या दोषी है। इसकी वजह बताते हुए इस फैसले में कहा गया है कि :
“कार्यपालिका किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहरा सकती। केवल आरोप के आधार पर यदि कार्यपालिका व्यक्ति की संपत्ति को ध्वस्त करती है तो यह कानून के शासन पर प्रहार होगा। कार्यपालिका न्यायाधीश बनकर आरोपी व्यक्ति की संपत्ति को ध्वस्त नहीं कर सकती। बुलडोजर द्वारा इमारत को ध्वस्त करने का भयावह दृश्य अराजकता की याद दिलाता है, जहां ताकत ही सब कुछ मानी जाती थी। संवैधानिक लोकतंत्र में इस तरह की मनमानी कार्रवाई के लिए कोई जगह नहीं है। इस तरह की कार्रवाई कानून के सख्त हाथ से की जानी चाहिए। हमारे संवैधानिक लोकाचार इस तरह के कानून की अनुमति नहीं देते।”
इस फैसले की एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थापना घर के अधिकार को नागरिक का मौलिक अधिकार बताया जाना है। कोर्ट ने कहा कि घर “सिर्फ एक संपत्ति नहीं होता, यह परिवार की सामूहिक आशाओं का प्रतीक होता है।“ जीवन का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और आश्रय का अधिकार इसका एक पहलू है। यह नई और अच्छी बात है, बशर्ते उसे इसी तरह से पढ़ा जाए और अमल में लाया जाए।
सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खण्डपीठ का यह निर्णय भारत के संविधान की धारा 142 के तहत हुई सुनवाई के तहत आया है ; यह वह धारा है, जो कोर्ट को इस बात की हैसियत देती है कि जिन मामलों में अभी तक कानून नहीं बन पाया है, उन मामलों में न्याय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुना सकता है और नीति निर्धारित कर सकता है, ऐसे निर्देश दे सकता है, जो भविष्य के लिए नियम विधान माने जायेंगे। यही वजह रही होगी कि अपने इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने वह प्रक्रिया भी तय की है, जिसे अपना कर अवैध निर्माणों को हटाया या गिराया जा सकता है। इस बारे में उसने 15 निर्देश दिए हैं।
स्वाभाविक ही है कि जिन दिनों में बुलडोजर अन्याय का प्रतीक और वाहक दोनों बनकर निर्लज्ज निर्ममता से इस्तेमाल किया जा रहा हो, राजनीतिक प्रतिशोध और समाज के वंचित, उपेक्षित और लक्षित हिस्सों को कुचलने का जरिया बनाया जा रहा हो, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का आमतौर से स्वागत ही हो सकता है ; हुआ भी। मगर इसे कितनी ही उदारता के साथ क्यों न पढ़ा जाये, इसके बारे में ‘देर आयद’ की कहावत के अगले दो शब्द ‘दुरुस्त आयद’ कहना मुश्किल है। इस स्वागतेय निर्णय की सीमाए हैं। ये वे सीमाएं हैं, जो इन दिनों न्यायिक निर्णयों की, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की पहचान और प्रवृत्ति के रूप में सामने आयीं है। इनमें अच्छे-अच्छे वाक्यों की तो भरमार होती है, मगर उसके अनुरूप कदम नहीं दिखाई देते।
जैसे, महाराष्ट्र में हुआ दलबदल और उसके जरिये बनी सरकार तो गैरकानूनी है, मगर अब जो हो गया सो हो गया ; जैसे बाबरी मस्जिद को तोडा जाना कानूनों का उल्लंघन तो था ही, अपराध भी था, मगर किसी को इसके लिए दण्डित करना तो दूर वह पूरी जमीन ही छीनकर जबरिया आपराधिक तोड़-फोड़ करने वालों को ही सौंप दी जाना चाहिये। इस तरह के जैसे, और भी न जाने कैसे-कैसे और कई तो ऐसे वैसे फैसले भी हैं। ऐसे फैसलों की खासकर, अभी हाल ही में रिटायर हुए मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने इस तरह के कहीं न पहुँचने, कहीं न पहुँचाने वाले निर्णयों की झड़ी ही लगा दी थी।
इसी तर्ज पर यह बुलडोजर वाला निर्णय भी यह मानता तो है कि यह जहाँ भी चला, घोर मनमानी से चला, गैरकानूनी चला, लोकतंत्र के मान्य सिद्धांतों के विपरीत नितांत असंवैधानिक तरीके से चला, इसने आवास और आश्रय के मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया, आदि-इत्यादि, मगर इसके बावजूद यह अभी तक हुए बुलडोजर ध्वंसों और विनाशों की जवाबदेही, अब तक की घटनाओं, वारदातों का उत्तरदायित्व तय नहीं करता, ना ही उनकी समीक्षा कर जिम्मेदारी निर्धारित करने का कोई प्रबंध ही करता है। इसके पीडितों-प्रताडितों की क्षति को पूरे जाने का संकेत तक नहीं देता, उसे लोकतंत्र और संविधान के विपरीत बताने के बावजूद इसके जाहिर-उजागर असली इरादे को चिन्हांकित नहीं करता।
बुलडोजर, जैसा कि दावा किया जाता रहा, सिर्फ कथित अवैध या बिना स्वीकृति के बने मकानों, आवासों, भवनों को गिराने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा ; यह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट है उस गिरोह का, जिसकी ओर से इसी सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाकर भारत के संविधान में से ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को हटाये जाने की मांग की गयी थी और जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही खारिज किया था। इसी के साथ यह भी कहा था कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ इस देश के संविधान का एक अविभाज्य और कभी न हटाया जा सकने वाला अंग है। यह गिरोह जिस मकसद को याचिका के जरिये हासिल नहीं कर सका, उसे बुलडोजर के जरिये लागू करना चाहता है।
बुलडोजर प्रतीक है उस फासीवाद का, जिसे कभी हो हिंदुत्व, तो अभी सनातन के नाम पर छुपाया जा रहा है। अब तक चले बुलडोजर के तथ्य इस सत्य को उजागर करते हैं कि यह उस बर्बरता का ब्रांड है, जिसे भाजपा सरकारों द्वारा मुसलमानों और दलितों, आदिवासियों और आर्थिक रूप से वंचितों को सबक सिखाने और कार्पोरेट्स के हितो को आगे बढाने के लिए तैयारी के साथ सायास खड़ा किया गया है। यह वह यमदूत है, जो सिर्फ लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरपेक्षता को ही नहीं, सभ्य समाज की पहचान क़ानून के राज और क़ानून की निगाहों में सबकी बराबरी की अवधारणा को ही मौत के घाट उतार देना चाहता है। इसका जिस तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, वह इन इरादों को पूरी तरह स्पष्ट कर देता है।
उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री बनने के साथ योगी आदित्यनाथ ने इसे ब्रांड बनाने की परियोजना शुरू की ; तुरंत ही इसे चुनावी आम सभाओं में लाइन लगाकर खड़ा किया जाने लगा ; अटल, दीनदयाल उपाध्याय, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, यहाँ तक कि खुद मोदी और योगी की तस्वीरों के कटआउट्स से भी ज्यादा प्राथमिकता पर बुलडोजर रखे जाने लगे ; कई आम सभाओं के लिए तो इन्हें ही मंच बनाया जाने लगा। यूपी से शुरू हुई बुलडोजर को नेता मानने की मुहिम बाकी प्रदेशों में भी पहुँच गयी और यह उन्माद का समानार्थी बन गया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी कुछ बदला-सुधरा नहीं है। झारखण्ड में योगी की सभाओं में विध्वंस की ये मशीनें कतारबद्ध प्रदर्शित की गयीं। महाराष्ट्र में विश्व की सबसे विशाल झुग्गी बस्ती धारावी और बाकी बस्तियों पर इसे चलाकर अडानी का कब्जा कराने की तो बाकायदा घोषणा ही की गयी।
13 नवम्बर के फैसले के बाद, उसमें निर्धारित प्रक्रिया के बावजूद यह यूपी में भी चल रहा है, एम पी में भी विचर रहा है। ये दीदादिलेरी सिर्फ हिमाकत नहीं है, एक संदेश है ; आधी-अधूरी बातें करने वाली न्यायपालिका के सदाशयी उपदेशों को अँगूठा दिखाते हुए पुलिस, प्रशासन सहित समूची कार्यपालिका को बुलडोजर की तरह काम में लग जाने का सन्देश। हाल में हुए उपचुनावों में उत्तर प्रदेश में मतदाताओं के नाम चीन्ह-चीन्ह कर उन्हें जिस तरह, लाठियां चलाकर, पिस्तौल तक दिखाकर वोट डालने से रोका गया, वह इसी की बानगी है। यूपी के ही संभल में जो हो रहा है, वह इसी का एक रूप है : जिस आधार पर संभल किया गया है, वह संकेत है कि यदि उनकी चली, तो अब बात सिर्फ संभल तक नहीं रुकने वाली, बाबरी ध्वंस के बाद बने कानून कि 15 अगस्त 1947 के पहले के धर्मस्थलों के विवाद अब नहीं उठाये जायेंगे, के अस्तित्व में होने के बावजूद हर शहर-गाँव तक पहुंचाई जायेगी ; महंगाई, बेरोजगारी, कुपोषण सहित सारे सर्वेक्षणों और उनकी रिपोर्ट्स पर रोक लगाने वाले हर मस्जिद का सर्वे करके उन्माद उकसाने में जुटे हैं। बाबरी मस्जिद के मलबे को सीढ़ी बनाकर सत्ता में आया गिरोह अब बाकी मस्जिदों को खंडहरों में बदलकर सरकार में बने रहने का रास्ता ढूंढ रहा है।
विडम्बना की बात यह है कि यह सब उस समय हो रहा है, जब देश संविधान को अंगीकार करने की 75वीं वर्षगाँठ मना रहा है। वह संविधान, जिसने 562 रियासतों में टुकड़े-टुकड़े देश को संघीय गणराज्य बनाया, जिसने पृथ्वी के सभी धर्मों की मौजूदगी और दुनिया की तकरीबन हर नस्ल के कबीलों की कभी वापस न लौटने वाली आमद के समावेश से बने भूखण्ड को हिन्दुस्तान बनाया। अतीत से सबक लेकर और 1857 से शुरू राजनीतिक और उससे भी कही पहले से जारी सामाजिक न्याय की उथल-पुथल और जनता के संघर्षो के दम पर एक ऐसा संविधान बनाया, जिसमे एक धतूरे को छोड़कर बाकी सभी फलो का स्वाद और हर तरह के फूलों की सुगंध शामिल है। जिसने अपनी अनेक अन्तर्निहित सीमाओं के बावजूद इस देश को कमोबेश एकजुट और गतिमान बनाए रखा।
जो लोग आज बुलडोजर पर बैठकर इस सबको रौंदने के लिए बढ़े आ रहे हैं, उनके निशाने पर सिर्फ मुसलमान नहीं है, उनके निशाने पर 5 हजार वर्ष का हासिल है, तीन चौथाई से ज्यादा अवाम है, इस देश का संविधान और इस तरह से पूरा इंडिया दैट इज भारत के रूप में पहचाने जाने वाला पूरा हिन्दुस्तान है।
दोहराना जरूरी है कि न यह हिन्दुस्तान रातों रात अस्तित्व में आया है, न ही 75 वर्ष पूर्व 26 नवम्बर 1949 को मंजूर किया गया संविधान ही अचानक से बना है ; ये दोनों ब्रिटिश गुलामी के खिलाफ जनता के कठिन, किन्तु एकजुट, जुझारू और कुर्बानियों से भरे संघर्ष और जन उभारों की कोख से जन्मे है और अब जन आंदोलनों और संघर्षों से ही इसे बचाया और महफूज रखा जा सकता है।
यह भी दोहराना जरूरी है कि भेड़िये मान-मनुहार करने या पुचकारने से नहीं मानते ; नीलकंठ बनके खुद विष पीने और अमृत उन्हें छका देने से इतिहास आगे नहीं बढ़ता। तीसरा नेत्र खोलना ही पड़ता है, जरूरत पड़ने पर तांडव भी दिखाना पड़ता है। लॉरेंस बिश्नोईयों की डराने की कोशिशों, अडानियों की तिजोरियों की कालिखों और उन्मादी साजिशों से जीते-हारे एक-दो चुनाव निर्णायक नहीं होते७। फैसलाकुन होती है जनता, अपनी मुश्किलों को देश की मुश्किलों से जोड़कर लडती-जूझती जनता ।
और यह जनता है, जो गोलमोल शब्दों में आधे-अधूरे फैसले नहीं सुनाती, इतिहास बनाती है। 26 नवम्बर को हुई किसान-मजदूरों की देशव्यापी विरोध कार्यवाहियां इसी तरह की जनकार्यवाही है। ऐतिहासिक किसान आंदोलन और उसी दिन हुई मजदूरों की शानदार राष्ट्रीय हड़ताल की चौथी वर्षगाँठ के मौके पर हुई यह कार्यवाही सिर्फ आश्वस्ति ही नहीं देती, रास्ता भी दिखाती है ; इसलिए कि ये जागरण और प्रतिरोध की जगमगाती मशालें हैं और भेड़िये मशाल जलाना नहीं जानते।
(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)