आलेख : राजेंद्र शर्मा
उत्तर प्रदेश में संभल के दु:खद घटनाक्रम के संबंध में, एक प्रभावशाली राय यह है कि यह दंगा जान-बूझकर शासन के इशारे पर कराया गया था, जिससे एक दिन पहले ही गाढ़े रंग से रेखांकित होकर सामने आये प्रदेश में नौ विधानसभाई सीटों के उपचुनाव में खुली धांंधली के सवालों की ओर से ध्यान हटाया जा सके। सभी जानते हैं कि उप-चुनावों में 23 नवंबर को घोषित नतीजों में, भाजपा ने सपा से तीन सीटें छीन ली हैं। इन नतीजों में मुरादाबाद की कुंदरकी की सीट जैसे चमत्कार भी शामिल हैं, जहां करीब 65 फीसद मुस्लिम मतदाताओं के बावजूद और मुस्लिम वोटों में किसी खास विभाजन के न होने के बावजूद, भाजपा के उम्मीदवार को एक लाख से ज्यादा वोटों से विजयी घोषित किया गया है।
वैसे इन उपचुनावों के सिलसिले में यह उल्लेखनीय है कि मतदान के दिन, 20 नवंबर को ही समाजवादी पार्टी ने कुंदरकी के अलावा भी कम से कम तीन चुनाव क्षेत्रों —अंबेडकर नगर में कटेहरी, मुजफ्फरनगर में मीरापुर तथा कानपुर में सीमामऊ — में बड़े पैमाने पर चुनाव धांधली और खासतौर पर मुस्लिम मतदाताओं को पुलिस द्वारा रोके, डराए-धमकाए जाने और उन पर लाठियां बरसाए जाने के, सप्रमाण आरोप लगाए थे। यहां तक कि प्राय: विपक्ष की शिकायतों को अनसुना करने वाले चुनाव आयोग तक को, अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में करीब आधा दर्जन पुलिस अधिकारियों के निलंबन के आदेश जारी करने पड़े थे। मतगणना के बाद, विपक्ष चुनाव धांधली की इन शिकायतों को जोरदार तरीके से उठाता, उससे पहले ही अगली सुबह संभल में दंगा करा दिया गया, जिसमें इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चार और कई खबरों के अनुसार, एक ही समुदाय के पांच लोगों की जान जा चुकी थी और पुलिसवालों समेत भारी संख्या में लोग घायल हो गए थे।
खैर! संभल की त्रासदी किसी षडयंत्र के अर्थ में भले ही जान-बूझकर नहीं करायी गयी हो, लेकिन दंगा जिस तरह से भड़काया गया है, उस अर्थ में जरूर यह दंगा प्रशासन की मिलीभगत से कराया गया है। यह संयोग ही नहीं है कि एकाएक एक जिला अदालत द्वारा इस कस्बे के सबसे पुराने स्मारक, साढ़े चार सौ साल पुरानी शाही मस्जिद में यह पता लगाने के लिए कि क्या वहां पहले मंदिर रहा था, सर्वे कराने के आदेश दे दिए। आश्चर्यजनक रूप से ये आदेश मुस्लिम पक्ष की अनुपस्थिति में, अल्पसंख्यकों के लिए बिना किसी पूर्व-सूचना के ही जारी कर दिए गए। फिर भी यह सर्वे बिना किसी अप्रिय घटना के हो भी गया। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से 24 तारीख की सुबह सर्वेक्षण टीम, पुलिस की सुरक्षा में और जय श्रीराम के नारे लगाते समूह के साथ, दोबारा सर्वेक्षण के लिए पहुंच गयी। बताया जाता है कि दोबारा सर्वे करने के लिए किसी प्रकार का अदालती आदेश तक नहीं था। उसके बाद वही हुआ जो सकता था। सर्वेक्षण के पक्ष और विरोध में तनाव पैदा होने लगा। विरोध में भीड़ जमा हो गयी और जल्द ही भीड़ और पुलिस के बीच झड़प की नौबत आ गयी। और फिर वह हुआ, जो उत्तर प्रदेश में योगी राज में हर बार होता है — पुलिस ने मुसलमानों के खिलाफ युद्घ जैसा छेड़ दिया। ज्यादातर जानें पुलिस की गोलीबारी में गयी हैं, हालांकि पुलिस ने गोली चलाने से इंकार ही किया है। पुलिस ने 2,500 लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की बताते हैं।
दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश पुलिस की इन जुल्म-ज्यादतियों को चूंकि वर्तमान शासन का पूरा-पूरा अनुमोदन हासिल है, बल्कि शासन द्वारा इन्हें बढ़ावा ही दिया जाता है, इसलिए न सिर्फ इन पर रोक-टोक का कोई दरवाजा नहीं है, मुसलमानों की किसी भी तरह की सुनवाई की उम्मीद ही तेजी से खत्म होती जा रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस हताशा ने भी संभल के दंगे की आग में घी डालने का काम किया है। यह नाउम्मीदी इस बात से और भी मुकम्मल हो जाती है कि बढ़ते पैमाने पर अदालतें, समस्या के समाधान का साधन बनने के बजाए, समस्या भड़काने का ही साधन बनती जा रही हैं। यह संयोग ही नहीं है कि तथाकथित सर्वे के अदालती आदेश के जरिए, अकारण सांप्रदायिक झगड़ा खड़ा करने और तनाव पैदा करने का यही पैटर्न काशी में ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में और मथुरा में ईदगाह मस्जिद के मामले में, नये सिरे से विवाद खड़े करने के रूप में भी देखने को मिला है। हैरानी की बात नहीं होगी कि आगे-आगे निचली अदालतों के सहारे और भी मुस्लिम धार्मिक स्थलों को लेेकर, इसी तरह के झगड़े खड़े किए जाएं।
दुर्भाग्य ये यह सब एक प्रकार से सुप्रीम कोर्ट की शह से ही हो रहा है। याद रहे कि काशी की ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर इस तरह से विवाद खड़ा किए जाने का मुद्दा जब सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था और इस तरह की कार्रवाइयों को 1991 के धार्मिक स्थल कानून के आधार पर चुनौती दी गयी थी, डीवीइ चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस तकनीकी तर्क के आधार पर सर्वे का अनुमोदन कर दिया था कि सर्वे की मांग, सिर्फ यह जानने की मांग है कि क्या वहां कोई मंदिर रहा था? और यह मांग, धार्मिक स्थल की प्रकृति को बदलने की मांग से अलग है, जो कि 1991 के कानून के अंतर्गत प्रतिबंधित है। उसके बाद से, निचली अदालत द्वारा 1991 के कानून के आधार पर ही खारिज कर दिए गए, मथुरा के ईदगाह मस्जिद विवाद को भी पुनर्जीवित किया जा चुका है। आज, संभल इसी आग में जल रहा है।
दुर्भाग्य से शासन में उच्चतम स्तर से इस सब को बढ़ावा मिल रहा है। जब हम उच्चतम स्तर कहते हैं, तो हमारा आशय सिर्फ प्रदेश में उच्चतम स्तर से ही नहीं, देश में उच्चतम स्तर से भी है। यह कोई संयोग ही नहीं है कि आम चुनाव के बाद गुजरे लगभग छ: महीनों में, देश ने बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता का बढ़ता हुआ ज्वार ही देखा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के नेतृत्व में तो सबसे बढ़कर एक यही काम हो रहा है और ”बंटोगे तो कटोगे” जैसे नये-नये विभाजनकारी नारे दिए जा रहो हैं। बेशक, यह आम चुनाव में संघ-भाजपा को लगे तगड़े झटके को देखते हुए, कई लोगों ने मोदी निजाम से सांप्रदायिक ताप में कमी लाने की जो उम्मीदें लगा ली थीं, यह सब उनसे उलट है। लेकिन, यही सच है। आम चुनाव के तुरंत बाद, इसने इसके आम सांप्रदायिक प्रचार का रूप ले लिया कि मुसलमानों ने भाजपा के खिलाफ वोट दिया था। फौरन कुछ भाजपा नेताओं ने मुसलमानों को इसके लिए दंडित करने, सरकार द्वारा उनके काम नहीं किए जाने, आदि की पुकारें करनी शुरू कर दीं। इन्हीं पुकारों को हमने, महाराष्ट्र के हाल के विधानसभाई चुनाव में बहुत ही आक्रामक तरीके से तथाकथित ”वोट जिहाद” के विरोध के नाम पर, एक उग्र विभाजनकारी अभियान तक पहुंचाते जाते देखा, जिसके अगुवा देवेंद्र फडनवीस थे। आदित्यनाथ के ”बटोगे तो कटोगे” और प्रधानमंत्री के ”एक रहोगे तो सेफ रहोगे” के नारों में मुस्लिमविरोधी स्वर में जो परोक्षता थी, उसकी कमी को ”वोट जिहाद” का मुकाबला करने की पुकार की प्रत्यक्षता से भरा जा रहा था। ”वोट जिहाद” की संज्ञा से ही साफ था कि किस के खिलाफ ”एक” होना है!
महाराष्ट्र विधानभाई चुनाव में भाजपा की झाडूमार, किंतु संदिग्ध जीत के जश्न में, दिल्ली में भाजपा के मुख्यालय में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने इसके पर्याप्त संकेत दे दिए हैं कि इस सांप्रदायिक मुहिम को ढीला नहीं पड़ने दिया जाएगा। इस मुहिम का नया हथियार है, वक्फ कानून का विवाद। प्रधानमंत्री ने विजेता की मुद्रा में अपने संबोधन में वक्फ कानून को ‘संविधान विरोधी’ ही करार दे दिया और घोषित कर दिया कि यह कानून ”तुष्टिकरण” के लिए ही बनाया गया था। साफ है कि संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच-परख का स्वांग जल्द ही समेटकर और सारे विरोध को दरकिनार करते हुए, मोदी सरकार वक्फ कानून में संशोधन थोप दे। ऐन मुमकिन है कि फिलहाल इस कानून में संशोधन भर करने को भी मुसलमानों के लिए एक बड़ी रियायत के रूप में पेश किया जाए, क्योंकि सर्वोच्च नेता ने तो इसे संविधान-विरोधी ही करार दे दिया है!
पहले हरियाणा और अब महाराष्ट्र में विधानसभाई चुनाव में संदिग्ध जीत के बाद, भाजपा जाहिर है कि मोदी की अजेयता के संसदीय चुनाव में टूट-फूट गए मिथक को, दोबारा खड़ा करने की कोशिश कर रही है। यह दूसरी बात है कि इसी बीच आ पड़ा अडानी संकट, इस कोशिश के लिए नई उलझनें पैदा कर रहा है। लेकिन, बहराइच के बाद अब संभल के घटनाक्रम पर और उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश में मुस्लिम-विरोधी अभियानों पर प्रधानमंत्री की सुचिंतित चुप्पी यही इशारा करती है कि मोदी का कॉन्फीडेंस कमजोर हो जाए तब भी, और ऊपर उठ जाए तब भी, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक अभियान तेज से तेजतर ही होने जा रहा है। इस पर अंकुश तो तभी लगेगा, जब जनता उनके हाथ से सत्ता छीन लेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)