राजेंद्र शर्मा , व्यंग्य
चूड़चंद्र ने हठ न छोड़ा। बीते नब्बे दिनों की तरह, इक्यानबे वें दिन भी जब उसने अपने आराध्य के आगे डिक्टाफोन किया और प्रार्थना करने लगा कि प्रभु देश को संकट से बचाएं, अयोध्या केस का फैसला डिक्टेट कराएं, तो प्रभु कुछ पिघले। बोले, तू भी बड़ा हठी है रे भक्त। वैसे मुझे अब भी लगता है कि मुझे ऐसे केस-वेस के लफड़ों से दूर ही रहना चाहिए। कोई न कोई असंतुष्ट होगा। नाहक बदनामी होगी। तुम लोगों का काम है, तुम खुद ही करो। अपने कानून, संविधान वगैरह के हिसाब से। और हां! न्याय के हिसाब से तय करो। मुझे तो बख्श ही दो।
पर स्वर की नरमी से चूड़चंद्र के हौसले और बढ़ गए। उसने और जिद पकड़ ली। प्रभु आप भी क्या हम साधारण इंसानों जैसी चिंताएं करने लग गए। कोई नाराज होगा, बदनामी होगी। आपका कोई क्या बिगाड़ लेगा? वैसे बिगाड़ तो हम लोगों का भी कोई कुछ नहीं पाएगा, जब तक कि दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाला मेहरबान है। हम भी जो फैसला कर देंगे झख मारकर पब्लिक को मानना ही पड़ेगा। पर आप की बात ही कुछ और है। आप पर कहां किसी का कुछ कहा चिपकता है? और रही कानून, संविधान वगैरह के हिसाब से फैसला करने की बात, उसी हिसाब से फैसला होना होता, तब तो कब का हो गया होता। हो तो गया था मस्जिद में से मूर्तियां हटाने का आदेश, क्या हुआ? इतना इंतजार थोड़े ही करना पड़ता। फिर वह तो सिर्फ फैसला होता, मामूली फैसला। हमें तो ऐतिहासिक फैसला करना है। हमारी चिंता ये है कि इतिहास हमें कैसे याद करेगा?
भक्त की साधना के आगे प्रभु का मन बदल चला था। फिर भी उन्होंने एक आखिरी कोशिश की। बोले — ये इतिहास के चक्करों में क्यों पड़ते हो? इतिहास कैसे याद करेगा, इसकी चिंता छोड़ो। इतिहास वैसे भी बड़ी ख़राब चीज है। आने वाला वक्त कैसे याद करेगा, यह सोचकर काम करने वालों की बहुत दुर्गति होती देखी है। इन चक्करों में पड़ने का कोई फायदा नहीं है। इससे तो अच्छा है कि अपना काम करो और बाकी सब आने वालों पर छोड़ दो कि कैसे याद करते हैं और कैसे याद नहीं करते हैं। वैसे भी मूंदेहुं आंख कहूं कछु नाहीं! तुम कौन से देखने आओगे? पर चूड़चंद्र अड़ा रहा। आप नहीं समझेंगे इतिहास की चिंता। पर मेरी तो रातों की नींद यह सोच-सोचकर उड़ी हुई है कि इतिहास मुझे कैसे याद करेगा? अदालत के बाहर के मेरे शानदार भाषणों, स्वतंत्रता, मानवाधिकार वगैरह के ऊंचे-ऊंचे विचारों के लिए याद करेगा, या अदालत के अंदर दिए गए मामूली फैसलों के लिए याद करेगा, जो दिल्ली की गद्दी पर बैठने वालों की मर्जी देख-देखकर दिए गए हैं। या इतिहास मुझे सारे टैम नाप-नाप कर, सरकार और पब्लिक के बीच पलड़े बराबर करने में लगे रहने के लिए याद करेगा। कभी-कभी तो इसका डर लगता है कि कहीं इतिहास विदूषक-सा बनाकर, न्याय की मूर्ति की आंखों की पट्टी खुलवाने और उसकी ड्रैस बदलवाने के लिए ही तो याद नहीं करेगा? आप तो प्लीज फैसला बता दो, बल्कि फैसला डिक्टेट करा दो।
प्रभु बोले कि ठीक है, पर ये बता कि फैसले में उलझन क्या है? चूड़चंद्र समझाने लगे कि उलझन एक हो तो बतायी जाए। यहां तो एक फैसला, हजार उलझन का मामला है। हजार उलझनों की एक उलझन यह है कि फैसला हिंदुओं के पक्ष में नहीं दिया, तो इस दुनिया से विदा होने के बाद इतिहास तो जैसे याद करेगा सो करेगा, पर दिल्ली की गद्दी रंजिश की नजर से याद रखेगी। मुर्दाबाद-मुर्दाबाद होती रहेगी सो अलग, पर रिटायरमेंट के बाद कुछ भी नहीं मिलेगा, खाली-पीली पेंशन के सिवा। न राज्यसभा, न कोई आयोग वगैरह, कुछ भी नहीं। और तो और, भाषण देने के बुलावे तक नहीं मिलेंगे, अयोध्या-वयोध्या से किसी बुलावे का तो खैर सवाल ही कहां उठता है। प्रभु ने छेड़ा — तो इतिहास से भी ज्यादा चिंता, रिटायरमेंट के फौरन बाद के इतिहास की है! फिर सरलता से पूछा—फिर प्राब्लम क्या है, दे दे हिंदुओं के पक्ष में फैसला!
चूड़चंद्र समझाने लगे कि वह भी इतना आसान थोड़े ही है। चार सौ साल से ज्यादा से मस्जिद खड़ी थी। पहले मस्जिद में रात के अंधेरे में चोरी से मूर्ति रख दी। फिर मुकद्दमा कर दिया कि मूर्ति की पूजा का अधिकार चाहिए। मुसलमानों का मस्जिद में जाना बंद करा दिया। फिर मस्जिद को पर्दे के पीछे छुपाकर वहां सिर्फ मंदिर बना दिया। फिर मांग करने लगे कि मस्जिद से जगह खाली करायी जाए, यहीं भव्य मंदिर बनेगा। फिर जबरन मस्जिद गिरा भी दी और जमीन पर दावा आगे बढ़ा दिया। प्रभु उतनी ही सरलता से बोले—तब प्राब्लम क्या है? दे दो मुसलमानों को जमीन। मस्जिद उनकी, जमीन भी उनकी।
चूड़चंद्र ने माथा ठोक लिया — इतना आसान है क्या, जिसकी जमीन है उसे दे देना? हिंदुओं का भी तो दावा है कि चार सौ साल पहले मस्जिद बनने से पहले, वहां उनका मंदिर था। उनके दावे को कैसे अनदेखा कर सकते हैं? प्रभु थोड़े कन्फ्यूजन में नजर आए। पूछने लगे कि तुम लोगों के कानून में चार सौ-साढ़े चार सौ साल पुराने दावों को सही मानकर, उन जगहों पर खड़ी इमारतों को हटवा सकते हैं क्या? चूड़चंद्र बोले — कानून के हिसाब से तो नहीं कर सकते हैं। फिर प्रभु पूछने लगे कि मस्जिद से पहले उसी जगह हिंदुओं का मंदिर रहा होना साबित हो गया क्या? चूड़चंद्र बोले, उसी जगह मंदिर रहा होना तो साबित नहीं हुआ, पर मंदिर नहीं रहा होने का भी तो कोई पक्का सबूत नहीं है। प्रभु हंसकर बोले — नहीं रहा होने का पक्का सबूत कैसा होता है भाई! खैर, तुम तो यह बताओ कि फैसला क्या करना है? चूड़चंद्र बोले, बनवाना तो मंदिर ही पड़ेगा। और कुछ नहीं बनवा सकते। प्रभु बोले, तो ठीक है वही फैसला दे दो।
चूड़चंद्र दु:खी स्वर में बोले, आप अब भी मामले की नजाकत नहीं समझे। ऐसे ही फैसला दे देंगे, तो दुनिया क्या कहेगी? इतिहास में इस फैसले को कैसे याद किया जाएगा। लोग कहेंगे नहीं कि न्याय नहीं, अन्याय हुआ है। आप तो ऐसा रास्ता बताओ कि फैसला यही रहे, पर न्याय न भी लगे, तब भी कम से कम खुला अन्याय नहीं कहलाए। प्रभु बोले, यह मुझसे नहीं होगा। अन्याय तो अन्याय ही रहेगा, न्याय मुझसे नहीं कहा जाएगा। चूड़चंद्र ने कहा प्रभु रास्ता तो आप को ही दिखाना होगा। प्रभु बोले मुझसे नहीं होगा। चूड़चंद्र ने कहा — हो भी गया। धन्य हो प्रभु, रास्ता दिखा दिया। प्रभु ने हैरानी से पूछा — क्या रास्ता दिखा दिया? चूड़चंद्र ने जोश में कहा, आपने ही तो रास्ता दिखाया कि चार सौ साल पुराने मंदिर के दावे के पक्ष में फैसला नहीं हो सकता। यानी बाद का दावा हो या बाद तक का दावा हो, तो ऐसा दावा करने वाले के पक्ष में फैसला हो सकता है। यूरेका, यूरेका समाधान मिल गया। प्रभु बोले, समझ में नहीं आया, क्या समाधान मिल गया।
अब चूड़चंद्र धैर्य से समझाने लगे — हिंदुओं का विश्वास है कि पहले वहां मंदिर था और वह विश्वास आज भी है यानी हिंदुओं के लिए मंदिर वहां हमेशा से था। और जहां मंदिर हमेशा था, वहां मंदिर हमेशा रहेगा। आखिर, भारत का संविधान सब के लिए धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी करता है।
अब प्रभु ने साफ कह दिया — नॉट इन माई नेम! चूड़चंद्र ने भी कहा कि फिर मैं इसे अपना ही फैसला मान लेता हूं। पता नहीं क्यों, लोग फिर भी इस फैसले में हैंड ऑफ गॉड खोज रहे हैं। अगले ने सिर्फ इतना कहा था कि मैंने प्रभु के सामने मुकदमा रखा था। यह कब कहा कि फैसला प्रभु ने डिक्टेट कराया था। डिक्टाफोन का तो इस्तेमाल ही नहीं हुआ।
नाम में सब धरा है
च…च फिर मिस्टेक हो गई। इस बार नसीब चौधरी के घर पर बुलडोजर चल गया। पहले ऐसे ही मिस्टेक से आर्यन मिश्र पर गोली चल गई थी। बेचारे गोरक्षकों से पहचानने में गलती हो गई। गोली चलाई मुसलमान पर‚ जा लगी ब्राह्मण पुत्र को। सिली मिस्टेक। इस बार जयपुर नगर के अधिकारियों ने बुलडोजर चलाया मुसलमान के घर पर। घर गिर गया हिंदू जाट नसीब चौधरी का। फिर से सिली मिस्टेक। क्या कीजिए‚ बड़े–बड़े अभियानों में ऐसी छोटी–छोटी गलतियां हो ही जाती हैं!
वैसे सच पूछिए, तो गलती नसीब चौधरी की ही थी। एक नहीं, बंदे ने तीन–तीन गलतियां की थीं। पहली तो यह कि आरएसएस वालों से उलझना ही क्यों थाॽ एक तो आरएसएस वाले। उस पर गुरु पूर्णिमा का यानी खीर खाने का मौका। खुशी से बेचारे जरा डीजे–वीजे बजा रहे थे‚ तो बजा लेनेे देते। आखिर‚ नये जमाने के राजा हैं। जब जी करेगा, खुशी मनाएंगे ; जब जी करेगा, डीजे बजाएंगे। उसमें टोका–टाकी करने की जुर्रत करनी ही क्यों थीॽ राजा लोग तो अपनी खुशी के लिए शहर के शहर जलवा देते थे‚ फिर भी कोई कुछ नहीं कहता था। उल्टे सब यही कहते हैं कि हुजूर का शौक सलामत रहे‚ हैं शहर और बहुत! पर चौधरी का परिवार तो जरा से शोर पर ही आपत्ति करने आ गया –– बंद करो, ये बेवक्त की शहनाई। शहनाई के लिए भी कोई वक्त देखा जाता है क्याॽ जाट बुद्धि‚ वक्त में अटके रहे‚ यह नहीं देखा कि शहनाई बजा कौन रहा हैॽ दूसरी गलती‚ संस्कारी संघियों के साथ‚ चौधरी के घर की महिलाएं उलझ गईं। संघ के संस्कार –– करने लगे महिलाओं की पूजा‚ लात–घूंसों से। महिलाओं के साथ पूजा के सिवा और कोई व्यवहार तो बेचारों के संस्कार में ही नहीं है। नसीब की आखिरी और सबसे बड़ी गलती –– मुसलमानों जैसा लगने वाला नाम रखा ही क्योंॽ करा दी ना हिंदू–रक्षकों से मिस्टेक!
मोदी जी ने इसीलिए तो कपड़ों से पहचानने की बात कही थी। इस हिंदुस्तान में न नाम से पहचान पर पक्का भरोसा कर सकते हैं‚ न शक्ल–सूरत से पहचान पर। खान–पान से पहचान पर भी नहीं। बस कपड़ों से ही पहचान में नो–मिस्टेक। फिर भी हिंदू हित में सरकार इतना तो कर ही सकती है कि हिंदुओं के मुसलमानों जैसे नाम रखने पर पाबंदी लगा दे। न चौधरी का नाम नसीब होगा और न बेचारा बुलडोजर मिस्टेक करेगा!
हिंदू डरेंगे, तभी तो एक रहेेंगे !
भाई ये तो बहुत ही नाइंसाफी है। बिहार वाले गिरिराज सिंह के खिलाफ बिहार में ही किशनगंज थाने में एफआइआर दर्ज हो गयी। वह भी सांप्रदायिक भावनाएं भडक़ाने के लिए। बताइए, अगले का मोदी जी की सरकार में मंत्री के पद पर होने तक का ख्याल नहीं किया। उल्टे इसका ताना और कि जब मंत्री जी ने खुद ही अपने मंत्री के पद पर होने का ख्याल नहीं किया और हिंदू स्वाभिमान यात्रा के नाम पर सांप्रदायिकता फैलाने की यात्रा पर निकल पड़े, तो दूसरे ही कब तक उनके मंत्री पद का ख्याल करते ! बिहार में एफआइआर हो गयी, इसका भी ख्याल नहीं किया कि वहां गठजोड़ की सरकार है, जिसमें गिरिराज बाबू की पार्टी न सिर्फ शामिल है, बल्कि उसी तरह बड़ा भाई होकर भी, छोटा भाई की तरह रहने की उदारता दिखा रही है, जैसे महाराष्ट्र में पिछले दो साल से ज्यादा से दिखा रही थी। पर गिरिराज बाबू की उदारता देखिए, वह अब भी नीतीश कुमार को दोष नहीं देना चाहते। बल्कि शायराना अंदाज में कहते हैं — उनकी भी कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता! एफआइआर का तो खैर क्या होना है, मोदी जी को सिरदर्द की शिकायत नहीं होनी चाहिए। वैसे भी थाने में एफआइआर अगर जिंदा रह भी गयी, तो मामला जाएगा तो अदालत के ही सामने। और न्याय की मूर्ति की आंखों की पट्टी अब हट चुकी है। केंद्रीय मंत्री के पद नाम पर एक नजर पड़ने की देर है, केस खुद-ब-खुद खारिज हो जाएगा।
लेकिन, हमारा इशारा यह हर्गिज नहीं है कि न्याय की मूर्ति चूंकि अब देख-देखकर न्याय देगी, सिर्फ इसीलिए गिरिराज बाबू निश्चिंत हैं। गिरिराज बाबू इसलिए निश्चिंत हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि उनके सिर पर मोदी जी का हाथ है और उनकी हिंदू स्वाभिमान टाइप की यात्राओं से मोदी जी उनके सिर से हाथ हटाने वाले नहीं हैं, बल्कि उनके सिर पर दोनों हाथों से छाया करेंगे। आखिर, मोदी जी अपनी चुनावी सभाओं में जो करते आए हैं और अब भी कर रहे हैं, वही तो गिरिराज बाबू भी कर रहे हैं — हिंदू जागरण। और हिंदू जागेगा कैसे? मुसलमानों के डर से। मुसलमानों से डर की कोई वजह हो या नहीं हो, पर हिंदुओं का डरना जरूरी है। डर चाहे कटने का हो या मंगल सूत्र से लेकर आरक्षण तक चोरी होने का या आबादी दूसरों के मुकाबले घट जाने का, हिंदुओं का डरना जरूरी है। हिंदू डरेंगे, तभी तो एक रहेेंगे। हिंदू डरेंगे नहीं, तो बिखर नहीं जाएंगे? गिरिराज बाबू से मोदी जी तब तक तो नाखुश नहीं हो सकते, जब तक कि दो सौ पार का टोटा नहीं पड़ जाता।
वैसे भी गिरिराज बाबू ने गलत क्या कहा है? सांप्रदायिकता फैलाने वाली बात ही क्या कही है? एक मुसलमान तमाचा मारे तो, सारे हिंदू इकट्ठे होकर उसे सौ तमाचे मारें, यह कहने में क्या सांप्रदायिकता है? यह तो हिंदू एकता और हिंदू जागरण की बात है! और हिंदुओं से बल्लम, तलवार, त्रिशूल वगैरह रखने की उनकी अपील तो एकदम गांधीवादी है। हथियार रखने को बोला है, चलाने को नहीं ; चलाने को सिर्फ तमाचे बोला है, चाहे एक के बदले में सौ तमाचे ही क्यों न चलाने पड़ें। अब इस जमाने में इससे ज्यादा गांधीवादी तो खुद गांधी जी भी ना होते। खांटी गांधीवादी हिंदुओं पर भी एफआइआर! योगी जी सही कहते हैं, बंटोगे तो कटोगे, भगवा पार्टी को वोट देने में एक रहोगे, तो नेक रहोगे।
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)