राजेंद्र शर्मा
इस दशहरे से आरएसएस का शताब्दी वर्ष शुरू हो गया। इस मौके पर, आरएसएस के वर्तमान सरसंघचालक, मोहन भागवत के संबोधन से बहुत से लोगों ने अगर, शताब्दी पार के आने वाले वर्षों में आरएसएस की दशा-दिशा के बारे कुछ नया सुनने की उम्मीद लगा रखी थी, तो उन्हें जरूर निराशा हुई होगी। वैसे आरएसएस के भागवत काल में, जो काफी हद तक देश में मोदी के शासन का काल भी है, आरएसएस ने अपनी पहले की सार्वजनिक रौशनी तथा विशेष रूप से मीडिया से दूरी बनाए रखने की नीति को जिस तरह से बदला है और मीडिया में अपना पक्ष रखने को अपना एक महत्वपूर्ण काम बनाया है, उसके बाद से सरसंघचालक के आरएसएस के स्थापना दिवस यानी दशहरा के परंपरागत संबोधन का, उसकी दिशा के संकेतक का विशेष महत्व जाता रहा है। फिर भी यह किसी ने नहीं सोचा होगा कि शताब्दी संबोधन में संघ प्रमुख, मोदी राज के क्षमाप्रार्थी बनकर, सिर्फ और सिर्फ उसका बचाव करने की मुद्रा में नजर आएंगे।
बेशक, भागवत के दशहरा भाषण का एक अर्थ यह भी है कि कम-से-कम इसके बाद, पिछले आम चुनाव में मोदीशाही के फीके प्रदर्शन, भाजपा के 240 के आंकड़े पर अटक जाने तथा बहुमत के लिए एनडीए के अपने सहयोगियों पर निर्भर होकर रह जाने के बाद से मीडिया में लग रही इस आशय की अटकलों पर पूर्ण विराम लग जाना चाहिए कि आरएसएस, मोदीशाही से नाखुश है, वह मोदीशाही पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहा है, आदि। भागवत के संबोधन से यह स्पष्ट है कि आरएसएस के मोदीशाही से लोगों की नाराजगी को, उस पर अंकुश लगाने का औजार बनाने या कम से कम उससे असंतुष्ट होने की सारी अटकलें झूठी थीं और आरएसएस प्राण-प्रण से मोदीशाही के साथ खड़ा है। और यह होना ही स्वाभाविक भी था, क्योंकि आरएसएस को इसका बखूबी एहसास है कि मोदी राज के कंधों पर चढ़कर ही वह इस स्थिति में पहुंचा है, जहां वह ‘हिंदू राष्ट्र’ (और वास्तव में हिंदू राज) के अपने सपने को तेजी से न सही, रेंगकर ही सही, एक वास्तविकता में तब्दील होते देख सकता है। शताब्दी वर्ष में आरएसएस को ‘आंशिक हिंदू राज’ का गिफ्ट देने वाली मोदीशाही के प्रति, भागवत का इतना कृतज्ञता ज्ञापन तो बनता भी था!
बहरहाल, भागवत कोई साधारण कृतज्ञता ज्ञापन पर ही नहीं रुक गए हैं। वह मोदीशाही के खिलाफ आम चुनाव में सामने आए और उसके बाद से बार-बार रेखांकित हो रहे, जनता के असंतोष के खिलाफ तलवार, बल्कि कहना चाहिए, त्रिशूल लेकर मैदान मेें कूद पड़े हैं। इस त्रिशूल के तीन शूल हैं — खतरा, खतरा और खतरा!!! भागवत सचेत रूप से अपने इस संबोधन के लिए ‘खतरा-कथा’ का ही चुनाव करते हैं। अपने एक घंटे से लंबे संबोधन में भागवत इसका बखान करते हैं कि कैसे भारत खतरे में हैं, भारत की परंपरा खतरे में है, भारत की संस्कृति खतरे में है, भारत का समाज खतरे में है, भारत का धर्म खतरे में है। और ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग किए बिना, सबसे बढ़कर इसका बखान करते हैं कि कैसे हिंदू खतरे में है। भारत में ही नहीं, दुनिया भर में ही और इसके लिए वह बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के साथ ज्यादतियों के बहाने, हिंदुओं को संगठित करने की महत्ता का बखान भी करते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि खतरे की यह कथा सुनाने में भागवत इस विडंबना पर तनिक भी नहीं हिचकते हैं कि मोदी राज के दस वर्ष में अगर ये खतरे इतने अर्जेंट हो सकते हैं, तो इस राज में आगे ये खतरे और ज्यादा क्यों नहीं बढ़ेंगे? और यह भी बांग्लादेश में अगर हिंदू अल्पसंखयकों के साथ अन्याय, अन्याय है, तो भारत में मोदीशाही में मुस्लिम और ईसाई भी, अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ता अन्याय, अन्याय क्यों नहीं है, जिसके खिलाफ अल्पसंख्यकों का संगठित होकर प्रतिकार करना उचित और जरूरी हो!
बहरहाल, भागवत की इस खतरा-कथा की धार, अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने में कुछ भी नया नहीं है। यह तो आरएसएस के डीएनए में ही है। नयी न सही, फिर भी ध्यान देने वाली बात है, इस कथा में समाज के बंटने के खतरे का, जो वास्तव में हिंदुओं के ही बंटने का खतरा है, क्योंकि अल्पसंख्यक तो समाज की उनकी परिभाषा से पहले ही बहिष्कृत हैं, अपेक्षाकृत नया पेच। यह पेच है, समाज के दबे-कुचले तबकों की संगठित होती आवाज के खतरे का। आरएसएस के इतिहास के जानकार बखूबी इस बात को जानते हैं कि मुसलमानों के डर की ही तरह, निचली जातियों के उभार का डर, आरएसएस को उसकी घुट्टी में मिला है, बल्कि उसके संगठन की मूल प्रेरणा रहा है। फिर भी, मोदीशाही को हाल के दौर में दलितों-वंचितों की जिस तरह की मुखरता तथा सक्रिय आलोचना तथा विरोध का सामना करना पड़ा है और जिस तरह जातिगत जनगणना का मुद्दा इस परिघटना के केंंद्र में आ गया है, उस पर आरएसएस के सरसंघचालक की खास निगाह रही है। इस सबकी अर्जेंसी जरूर नयी है।
बेशक, आरएसएस ने औपचारिक रूप से जाति-आधारित आरक्षण के अपने विरोध को छोड़ दिया है। उसने औपचारिक रूप से यह स्वीकार करना भी शुरू कर दिया है कि अतीत में दलितों के साथ अन्याय हुआ हो सकता है और इससे उबारने के लिए आरक्षण जरूरी हो सकता है। इसके लिए, वह ‘बड़ों’ से खुद हानि उठाकर भी कुछ उदारता की मांग करने के लिए भी तैयार है। लेकिन इन वंचितों का अपने अधिकारों के लिए मुखर होना और बराबरी के अधिकार के आधार पर संगठित होना, उसे हर्गिज मंजूर नहीं है। उसे सबसे बढ़कर इसी में हिंदुओं के बंटने का खतरा दिखाई देता है। यही जगह है जहां भागवत से लेकर मोदी तक, सब एक स्वर से योगी आदित्यनाथ का लगाया नारा दोहराने लगते हैं : ‘बंटोगे तो कटोगे’। मुस्लिमविरोधी गोलबंदी की इससे नंगी पुकार दूसरी नहीं हो सकती है। इसी पुकार की आड़ में मनुवादी-ब्राह्मणवादी आग्रहों को, एकता की पुकार के नाम पर चलाने की कोशिश की जा रही है, जोकि हमेशा से ही आरएसएस का पैंतरा रहा है। लेकिन, आरएसएस के दुर्भाग्य से वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियां उसे आज सामने आकर जातिगत जनगणना तक का विरोध नहीं करने दे रही हैं। इसलिए, जातिगत जनगणना का जिक्र तक किए बिना, उन राजनीतिक परिस्थितियों के बांटने वाला होने का रोना-धोना किया जाता है।
बहरहाल, विभाजन का यह रोना सिर्फ सामाजिक रूप से वंचितों की आवाजों तक ही सीमित नहीं है। मौजूदा शासन की हर प्रकार की आलोचना, उसके हर प्रकार के विरोध को ही, बंटवारे के खाते में डाल दिया गया है। संघ प्रमुख के शब्दों में, ‘समाज के लिए सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि समाज में विद्यमान भद्रता व संस्कार को नष्ट-भ्रष्ट करने के, विविधता को अलगाव में बदलने के, समस्याओं से पीड़ित समूहों में व्यवस्था के प्रति अश्रद्घा उत्पन्न करने के तथा असंतोष को अराजकता में रूपांतरित करने के प्रयास बढ़े हैं।’ वर्तमान व्यवस्था के प्रति नागरिकों से राजशाही की प्रजा जैसी श्रद्घा की मांग करने के साथ ही यह, लोगों की चिंता तथा परेशानियों की सभी आवाजों को, ‘असंतोष को अराजकता में रूपांतरित करने के प्रयास’ बनाने की कोशिश है। इतना ही नहीं, भागवत ने इस ‘संकट’ की अपनी पहचान को, मोदीशाही के राजनीतिक मित्रों-शत्रुओं की पहचान से इस कदर एकरूप कर दिया है कि सभी विपक्ष-शासित राज्य इस ‘चिंता की बात’ के दायरे में आ जाते हैं। ‘आज देश की वायव्य सीमा से लगे पंजाब, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख ; समुद्री सीमा पर स्थित केरल, तमिलनाडु ; तथा बिहार से मणिपुर तक का संपूर्ण पूर्वांचल, अस्वस्थ है।’
इस सब के लिए जिम्मेदार आंतरिक शत्रुओं के रूप में कथित वोक, कल्चरल मार्क्सिस्ट आदि के नाम पर, तमाम वामपंथी, प्रगतिशील तथा जनतांत्रिक ताकतों को तो, संघ ने पहले से ही निशाने पर ले रखा था। इन संज्ञाओं के जरिए संघ अपने इन शत्रुओं को एक वैश्विक लड़ाई के खलनायक बनाने की कोशिश करता है। बहरहाल, आरएसएस के शताब्दी वर्ष में इन शत्रुओं को और भयानक बनाने के लिए, अब इनके साथ ‘डीप स्टेट’ का नाम और जोड़ दिया गया है। विडंबना यह है कि अक्सर डीप स्टेट की अवधारणा, जनतांत्रिक व्यवस्था के बाहर से, राज्य को संचालित करने वाली जिस तरह की षडयंत्रकारी, सैन्य-अर्द्घ-सैन्य शक्तियों की ओर इशारा करती है, उसकी परिभाषा में वर्तमान दौर में तो सबसे फिट खुद आरएसएस ही बैठता है।
बहरहाल, इस सारे रोने-धोने का एक ही मकसद है, मोदी निजाम के खिलाफ लड़ाई में अवाम को पूरी तरह से निरस्त्र करना। तभी तो मौजूदा निजाम निश्चिंतता से, मेहनतकश अवाम की कीमत पर, उन इजारेदार पूंजीपतियों और उनके देसी-विदेशी सहयोगियों की सेवा करता रह सकता है, जिनके स्वार्थों की अब तक सेवा करता आ रहा था। वर्ना पिछले आम चुनाव ने दिखा ही दिया है कि किस तरह, सांप्रदायिकता के हथियार के सहारे मेहनतकशों को बांटने की उसकी सारी कोशिशें, अवाम की अपने वास्तविक हितों की पहचान के सामने, भोंथरी साबित हो रही हैं। ठीक इसी मुकाम पर संघ अब मोदीशाही का खुलकर बचाव करने के लिए कूद पड़ा है।आरएसएस की स्थापना के शताब्दी वर्ष का भारत के लिए एक सुफल यह भी है कि आरएसएस और मोदीशाही के बीच जो एक झीना-सा पर्दा अब तक बनाए रखा जाता था, अब वह भी हट गया है। जो मोदीशाही है, वही आरएसएस है। जो आरएसएस है, वही मोदीशाही है। इस मिथ्या-द्वैध का हटना ही सरसंघचालक मोहन की, नयी भागवत का हासिल है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)