विष्णु नागर ,व्यंग्य
यहां हराम की खाने वाले हर हालत में हराम की ही खाते हैं। मेहनत की कोई गलती से भी उन्हें खिला दे, तो बेचारों को दस्त लग जाते हैं। उन्हें किसी दिन खाने को न मिले, तो वे भूखे रह जाएंगे, मगर खाएंगे तो सिर्फ और केवल हराम की खाएंगे। वही इनको रुचता भी है और पचता भी है, चाहे उसमें कंकर-पत्थर मिले हों। अपने लिए बनाये उनके सारे नियम, सारे सिद्धांत जीवन में कभी न कभी टूट सकते हैं, मगर यह सिद्धांत अटल है। इस मामले में उनका ‘ ईमान ‘ कोई डिगा नहीं सकता। दुनिया की कोई ताकत उन्हें उनके इस पथ से विचलित नहीं कर सकती।मर जाएंगे, मगर हराम की खाकर रहेंगे, खाने की यह आन-बान-शान कभी मिटने नहीं देंगे।
नियमों में कड़ाई सरकार इन्हीं के उत्थान के लिए करती है। नियम और भी अधिक कड़े इनके लिए ही किए जाते हैं, ताकि ये जितना खा रहे हैं, उससे अधिक खाने की क्षमता अर्जित कर सकें। और एक दिन पूरा देश, पूरा भूमंडल खाकर दिखा सकें। गर्व से अपनी विजय पताका चहुंओर फहरा सकें। विश्व में आपका और हमारा नाम कर सकें।
नियम कड़े होने पर अफसर से क्लर्क तक सब नियम की अनदेखी करने की खातिर खाते हैं और क्योंकि नियम की अनदेखी करना रिस्की होता है, इसलिए वे रिस्क उठाने के लिए खाते हैं। ये खाएंगे, तो ऐसा तो है नहीं कि इनके जो ऊपर हैं, वे भोलेभंडारी हैं, वे नहीं खाएंगे, इन्हें खाता देख वे तृप्त हो जाएंगे, खुद भूखे रह जाएंगे। वे खाएंगे और इनसे दस गुना, पचास गुना, सौ गुना खाएंगे। खाने का सिलसिला अगर दिल्ली से शुरू हुआ है, तो दिल्ली जाकर ही खत्म होगा। भोपाल या लखनऊ से शुरू हुआ है, तो भी दिल्ली पहुंचकर ही विश्रांति लेगा।
नियम कड़े करनेवाले सीधे-सादे, भोले-भाले मनुष्य नहीं होते। जिन्हें नियम कड़े करने से फायदा होता है, वे नियम कड़े करवाने की मांग लेकर इनके पास आते हैं। साथ में वे मोटा पैसा लेकर आते हैं और इससे सौ गुना-हजार गुना मोटा कमाने का भरोसा लेकर वापस जाते हैं। शास्त्रों में भी इसे उचित बताया गया है कि खाओ और खाने दो।न खाऊंगा, न खाने दूंगा की सार्वजनिक घोषणा करके खाओ और खाने दो तो और भी उत्तम! इससे खाने का स्वाद बहुत बढ़ जाता है। जिस दफ्तर के बाहर लिखा हो, यहां रिश्वत ली-दी नहीं जाती, यह भ्रष्टाचार मुक्त आफिस है, वहां आप निश्चित समझो कि यहां इस बोर्ड के ठीक नीचे या पीछे भी रिश्वत ली जा सकती है। रिश्वत न लेने की घोषणा दरअसल ऊंचे रेट पर रिश्वत खाने की उद्घोषणा है।
नियम में ढील भी इन्हीं के लाभार्थ दी जाती है। नियम जितने ढीले करते जाओ, उतना अधिक हराम का खाना और पचाना इनके लिए आसान हो जाता है। कमाल के लोग हैं, ये खाते हैं मगर कभी डकार नहीं लेते! हराम की कमाई में शायद डकार लेना और पादना मना होता है। इस कमाई से इनका हाजमा बेहद दुरुस्त रहता है। बार -बार खाने की भूख लगती है और बार -बार खाने को मिलता है।ऊपर से हाजमोला का खर्च भी बचता है। यह बचत भी कमाई में जुड़ जाती है। वे और अधिक समृद्ध होकर और अधिक प्रसन्नता पाते हैं।
कुछ फाइल चलाने के लिए खाते हैं तो कुछ फाइल न चलाने के लिए खाते हैं। कुछ फाइल को अटकाने, भटकाने, खो जाने और अनुकूल स्थिति पाकर उसे फिर से खोज लेने के लिए खाते हैं। अनुभवी खाने वाले, जितना खाते जाते हैं, उनकी भूख उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। खाने के मामले में मथुरा के पंडे बदनाम हैं, लेकिन वे जो खाते हैं, उसका बड़ा अंश भोजन के रूप में होता है और जो खाते हैं, यजमान के इस विश्वास के आधार पर खाते हैं कि यह उनके पेट के माध्यम से पूर्वजों तक जाएगा। वे सबके सामने खाते हैं और यजमान की इच्छा और अनुरोध पर खाते हैं।
हराम के खाने की कोई बाकायदा दुकान नहीं होती, कोई साइन बोर्ड नहीं होता, कोई रेट कार्ड नहीं होता, दिखाने लायक कोई पदार्थ नहीं होता। जो भी होता है, निराकार होता है। केवल जो लिया -दिया जाता है, वह साकार होता है। खाने के धंधे का एक फायदा यह है कि इसमें कोई रसीद लेनी-देनी नहीं पड़ती, जीएसटी नहीं चुकाना पड़ता, इनकम टैक्स नहीं भरना पड़ता। जितना मिला है, पूरा का पूरा अपना होता है। खाते हुए थोड़ा सा डर लगे, तो हनुमान चालीसा का पाठ किया जा सकता है। फिर भी लाभ न मिले, हनुमान जी का दिल न पिघले, तो खाने की कमाई का शतांश हनुमानेतर प्रभुओं को देकर मामला सुलटाया जा सकता है। जो खाता नहीं, उसका मामला कभी सुलट नहीं पाता क्योंकि सुलटाने के लिए उसके पास हराम की कमाई नहीं होती।इस तंत्र में जो नहीं खाते, वे सबसे पहले और सबसे अधिक मारे जाते हैं। जो खाते हैं, वे फंस कर भी बच जाते हैं और ऊपर ही ऊपर चढ़ते चले जाते हैं। खाने की प्राचीन संस्कृति का पोषण करते हैं। देश का मान, विदेश में बढ़ाते हैं।
सिद्धांतनिष्ठ और विवेकशील खाऊ कभी अकेले नहीं खाते। वे खाऊओं की पूरी जमात के साथ खाते हैं, परस्पर सहमति से अपना-अपना हिस्सा खाते हैं। वे अकेले नहीं खाते, सामूहिक भोज में आस्था रखते हैं। वे आश्वस्त होकर, निर्भय होकर मौज से, स्वाद लेकर खाते हैं। खाने का श्रीगणेश वे तब करते हैं, जब सबके सामने थाली में यथायोग्य व्यंजन परोस दिए गए हों। फिर वे प्रेम से तृप्त होकर खाते हैं। जो लालच करता है, सबके व्यंजन खुद खा जाता है, बांट कर नहीं खाता, वह फंस जाता है और जल्दी ही ‘वीरगति’ को प्राप्त होता है। ‘वीरगति ‘ को वे और भी जल्दी प्राप्त होते हैं, जो खाने की जगह बैठे हैं, फिर भी नहीं खाते। भरी हुई थाली वापस कर देते हैं। वे ईश्वर से डरते हैं, जो कि कहीं है नहीं। इस तरह वे खाने की मजबूत श्रृंखला में बाधक बनने का गुनाह करते हैं। बायपास से भी ट्रैफिक नहीं जाने देते। वे जीते जी नरक पाते हैं, मगर नरक की इस आग में इस उम्मीद में झुलसते-जलते हैं कि कोई बात नहीं, मरने पर तो उन्हें स्वर्ग मिलेगा।वे भोलेपन का दंड भुगतते हैं।ऊपर उनसे कहा जाता है कि तुम्हें खाने की जगह इसलिए बैठाया था कि तुम खुद भी भूखे रहो और दूसरों के लिए भी संकट बनो? तुम पापी हो। रौरव नरक के योग्य उम्मीदवार हो! ले जाओ इन्हें। ऐसे आदमी को देखकर भी पाप लगता है।
दुख हो तो गहरा!
भयंकर बाढ़ आती है, तो उन्हें दुख होता है और ऐसा-वैसा नहीं, गहरा दुख होता है। भयंकर सूखा पड़ता है, तो उन्हें गहरा दुख होता है। ठंड कड़ाके की पड़ती है, लोग पटापट मरने लगते हैं, तो उन्हें गहरा दुख होता है।भूकंप से वाही-तबाही मचती है, तो उन्हें गहरा दुख होता है। रेल दुर्घटना में दो सौ मर जाएं, तो उन्हें गहरा दुख होता है। हवाई दुर्घटना में तीन सौ मर जाएं, तो उसका दुख तो इतना गहरा होता है कि उसे प्रकट करने के लिए उनके पास शब्द कम पड़ जाते हैं। गहरा दुख बयान के बाहर हो जाता है। फलां देश के राष्ट्रपति मर जाते हैं, तो गहरा दुख और फलां देश का प्रधानमंत्री मर जाएं, तो गहरा दुख। उन्हें अफ़सोस बस इसका है कि जब उनका अंतिम काल आएगा, तो वह स्वयं इस पर गहरा दुख व्यक्त कर नहीं पाएंगे। कोई और उनकी मृत्यु पर गहरा दुख प्रकट करेगा, इस पर उन्हें गहरा संदेह है।
रोज ही बेचारे गहरे दुख से लथपथ रहते हैं। समस्या यह भी है कि गहरे से कम दुख उन्हें होता नहीं। उन्हें दुख हो, मगर गहरा न हो, ऐसा आज तक हुआ नहीं । गहरे दुख की उन्हें लत सी पड़ चुकी है, जो छूटती नहीं। दिन में एक बार भी अगर इन्हें गहरा दुख प्रकट करने का अवसर न मिले, तो वे छटपटाने लगते हैं। उनकी तबियत खराब सी हो जाती है। रात करवट बदलते गुजरती है। रात के ग्यारह बजे तक तो ये वैसे भी इंतजार करते हैं कि कहीं से कोई गहरे दुख का समाचार आए, तो गहरा दुख व्यक्त करने के बाद निश्चिंत होकर सोयें। मगर ऐसे भी कुछ दुर्भाग्यशाली दिन होते हैं, जब उन्हें इसका सुअवसर नहीं मिलता। इस कारण इनका स्टाफ भी दुखी हो जाता है, क्योंकि चार लोगों के स्टाफ की एकमात्र ड्यूटी हर दिन इनके लिए गहरे दुख का इंतजाम करना है। सड़क या रेल दुर्घटना में चार मामूली लोगों के मरने की खबर पर इनकी ओर से गहरे दुख का शोक संदेश भेजने की फाइल तैयार करके भेज दो, तो हुजूर बुरी तरह बिगड़ जाते हैं। फाइल लाने वाले के मुंह पर उसे मार देते हैं। एक बार एक पीए को ऐसी सड़ी फाइल तैयार करके भेजने के अपराध में उन्होंने नौकरी से निकाल दिया था। संयोग है कि किसी दिन सुबह होते ही गहरा दुख प्रकट करने योग्य समाचार मिल जाता है, तो किसी दिन दोपहर तक वरना शाम तक तो मिल ही जाता है, क्योंकि कोई न कोई ऐसा प्राणी इस दुनिया से चला ही जाता है, जो इनके द्वारा गहरा दुख प्रकट करने की योग्यता प्राप्त है!
एक दिन रात ग्यारह बजे तक भी ऐसा समाचार नहीं मिला, तो वह इतने व्यथित हो गए कि उन्होंने हुक्म दिया कि जैसे भी हो, आज रात बारह बजे से पहले मेरे लिए गहरे दुख का प्रबंध किसी भी हालत में किया जाए, वरना संबद्ध कर्मचारियों को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।ऐसी विकट स्थिति में एक बड़े नेता जो कई दिनों से आक्सीजन पर थे, उनका आक्सीजन सपोर्ट बंद करवाया गया।एक बार उनकी ही पार्टी के विरोधी गुट के एक मंत्री की इनके गहरे दुख के खातिर सड़क दुघर्टना करवानी पड़ी।रोजी- रोटी के लिए स्टाफ को इस तरह के प्रबंध साल में दो-चार बार करने पड़ते हैं। ऐसी एक घटना प्रायोजित करवाने के बाद एक कमजोर दिल अफसर गहरे अवसाद में चले गए और फिर कभी लौट कर नहीं आए, मगर वह इतने बड़े अफसर भी नहीं थे कि उनकी मृत्यु इनके गहरे दुख का कारण बन पाती।
वह जी रहे हैं, मगर गहरे दुख से हर दिन पीड़ित हैं। रोज डट के खीर-पूड़ी-मालपुआ उड़ाते हैं, मगर किसी दिन गहरा दुख नहीं होता, तो खाना-पीना सब व्यर्थ हो जाता है। इतने दुखों को लेकर बेचारे न ठीक से जी पाते हैं, न मर पाते हैं। फिर भी उन्हें जीना पड़ता है, क्योंकि हर दिन गहरा दुख व्यक्त करना उनकी जिम्मेदारी है, राष्ट्रीय दायित्व है। वह मर जाएंगे, तो यह काम कौन करेगा? कोई इतने योग्य है नहीं! कौन गहरे दुख से दुखी होना जानता है? इस बात की गहरी चिंता उन्हें मरने के बारे में भी सोचने नहीं देती! कैसी ट्रेजेडी है नीच!
(कई सम्मानों से सम्मानित विष्णु नागर कहानीकार, कवि और पत्रकार हैं। संपर्क : 098108-92198)