आधुनिकता की दौड़ में खोता अपनापन……

अतुल मलिकराम (राजनीतिक रणनीतिकार)

भारत हमेशा से “वसुधैव कुटुम्बकम” के सिद्धांत पर विश्वास करने वाला देश रहा है। एक समय भारत ऐसा देश था जहां संयुक्त परिवार जीवन का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे। यह वही देश है जहां तीन-चार पीढ़ियां एक ही छत के नीचे रहा करती थी। हर उम्र के लोग एक दूसरे के साथ हंसी-खुशी के पलों को साझा किया करते थे। रिश्तों की गहराई, भावनाओं की मिठास, और एक-दूसरे के साथ का जो एहसास था, वह संयुक्त परिवारों की सबसे बड़ी ताकत थी। लेकिन जैसे-जैसे हम आधुनिकता की ओर बढ़े धीरे-धीरे सब ओझल होता गया।
60 साल पहले तक भारतीय समाज में संयुक्त परिवार एक सामान्य बात थी। दादा-दादी, माता-पिता, भाई-बहन, और चचेरे-ममेरे रिश्तेदार एक ही घर में साथ रहते थे। बड़े बुजुर्ग अपने अनुभव से परिवार का मार्गदर्शन करते थे, और बच्चे उनकी सेवा में आत्मीयता से लगे रहते थे। सब एक-दूसरे के सुख-दुःख में साथ खड़े रहते थे। बच्चों का पालन-पोषण संयुक्त परिवार के हंसी-खुशी वाले वातावरण में होता था, जहां उन्हें माता-पिता के अलावा घर के अन्य सदस्यों का भी स्नेह मिलता था। घर में रिश्तों का एक ऐसा मजबूत ताना-बाना बुना हुआ था, जिसमें हर व्यक्ति अपने आप को सुरक्षित महसूस करता था।
पहले एक छत के नीचे चार पीढ़ियां साथ रहती थीं, लेकिन समय के साथ धीरे-धीरे परिवार छोटे होते चले गए। परिवार अब तीन पीढ़ियों तक सिमट गया, जहां पति-पत्नी, उनके माता-पिता और बच्चे साथ रहते थे। 10-12 सालों के अंतराल में परिवार और भी छोटे हो गए। अब केवल पति-पत्नी और उनके बच्चे ही परिवार कहलाने लगे। जीवनशैली की तेजी और बढ़ती व्यस्तता के कारण अब घर के बड़े भी अलग रहने लगे। परिवार में केवल तीन या चार लोग रह गए। इस तरह एकल परिवार की अवधारणा तेजी से फैलने लगी।
वर्तमान की बात करें, तो कई परिवारों में सिर्फ पति-पत्नी और उनकी एक संतान का होना ही परिवार माना जाने लगा है। और अब, जैसे-जैसे हम आधुनिकता की ओर और बढ़ रहे हैं, ऐसे कई दंपत्ति भी हैं , जो संतान को अपने जीवन का हिस्सा बनाना ही नहीं चाहते। उनके लिए केवल वे दोनों ही पर्याप्त हैं। बहुत से लोग अब परिवार के विस्तार की जगह एक पालतू जानवर को घर का सदस्य मान लेते हैं। पालतू जानवर अब ज्यादा चहेते हो गए हैं, और परिवार का रूप पूरी तरह से बदलता जा रहा है।
इस बदलाव का मुख्य कारण सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में आया बदलाव है। लोग नौकरी, शिक्षा, और बेहतर जीवन स्तर की चाह में अपने गांव-घर छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने लगे। इस प्रक्रिया में परिवारों के बीच की नजदीकियां कम होने लगी। शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी ने और उलझा दिया। साथ ही, निजी जीवन की चाहत और महंगाई ने भी एक अहम भूमिका निभाई।
इसमें पश्चिमी संस्कृति का असर भी पड़ा, वहां बच्चों का अपने माता-पिता से अलग रहना एक सामान्य बात है। देखा-देखी में हमने यह चलन भी अपना लिया। ऊपर से फिल्मों और टीवी धारावाहिकों ने भी इसमें कोई कमी नहीं छोड़ी। सास-बहु के षड्यंत्र और रिश्तों के बीच की कडवाहट देखकर हमने भी छोटे परिवार में रहने का मन बना लिया। इस देखा-देखी में जिस तेजी से हम आधुनिक होते जा रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब पति-पत्नी भी अलग-अलग शहरों में रह रहे होंगे। हमें इस बात का अहसास ही नहीं है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चाह में हम अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। क्या यह वही विकास है जिसका सपना हमने देखा था?
जो आधुनिकता हमें कई अवसर और प्रगति के रास्ते दिखा रही है, वही हमसे आत्मीयता और एकता छीनती जा रही है। कहने को तो आज हम सोशल मिडिया की जरिये हर किसी से जुड़े हुए हैं। लेकिन सच में देखा जाए तो बिलकुल अकेले हैं। महानगरों में यह ज्यादा देखने को मिल रहा है। एक शहर में रहते हुए भी हम महीनों तक रिश्तेदारों से नहीं मिलते। अपनापन सिर्फ एक शब्द रह गया है। इस स्थिति को देखते हुए कभी-कभी तो डर लगता है कि हम अभी भी नहीं संभले तो भविष्य में परिवार नाम की संस्था भी खत्म हो सकती है। आधुनिकता की इस दौड़ में, हमें यह याद रखना होगा कि परिवार सिर्फ रिश्तों का बंधन नहीं, बल्कि हमारे जीवन की आधारशिला है। हमारी सच्ची प्रगति अपनी सफलता और परिवार के बीच संतुलन बनाए रखने में ही निहित है।

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