चीनी के हेल्दी विकल्प की तलाश

चीनी का विकल्प तलाशने के लिए विदेशों में कई प्रयोग हो रहे

ज्यादा चीनी के प्रयोग से कई गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ रहा

.“डायबिटीज” की राजधानी बन चुके भारत में आसान नहीं मीठे से दूरी

-सचिन श्रीधर, पूर्व आईपीएस, नई दिल्ली।

चीनी हमारे देश में महज़ खानपान का हिस्सा ही नहीं है, ये तो हमारी संस्कृति और जीवन का एक अंग है। कोई भी भोजन हो, वह मीठे के बिना अधूरा ही रहता है। उत्सव हो तो मीठा, पूजा पाठ हो तो मीठा, जश्न हो तो मीठा, अच्छी खबर हो तो मीठा, भगवान को भोग लगाना हो तो मीठा। तो कोई आश्चर्य नहीं है कि भारत देश चीनी के सबसे बड़े निर्माता देशों में है। और निर्माता ही नहीं, सबसे बड़ा उपभोक्ता भी भारत ही है। बाहर दुनिया के लोग तो यह भी कहते हैं कि हम भारतीयों की मिठाइयों में इतनी ज्यादा चीनी होती है जो शायद किसी भी देश के मीठे व्यंजनों में नहीं पाई जाती।


अब जहां तक सवाल था कि सुबह खूब मीठी चाय पी कर और दो-चार मिठाइयां खाकर किसान अपने खेतों में निकल जाता था या मजदूर बहुत श्रम वाले काम में जुट जाते थे, तब तक तो यह चीनी का सेवन चल जाता था। अपने चीनी खाई और चीनी ने आपको तुरंत ऊर्जा दे जिसने शरीर की पिंडलियों को शारीरिक कार्य करने में मदद दी। तो खाई चीनी को आपने पसीने के साथ बहा दिया। पर आज के आधुनिक युग में शारीरिक कार्य तो कम हो गये पर चीनी का सेवन उतना कम नहीं हुआ। अब डॉक्टर कहते हैं की अधिकतर आज की बीमारियों जैसे मोटापा, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर और उसके फलस्वरूप हार्ट अटैक और स्ट्रोक काफ़ी हद तक अधिक चीनी खाने से हो रहे हैं या उनके होने की संभावना रक्त में चीनी अधिक होने के कारण से बढ़ रही है। फलस्वरूप, भारत आज दुनिया में “डायबिटीज” की राजधानी बन चुका है और भारत में 11 करोड़ से अधिक लोग डायबिटीज के शिकार हैं जो दुनिया में डायबिटीज से ग्रस्त लोगों का एक-चौथाई से अधिक है। अनुमानित इसका अलावा 40-50% ऐसे लोग भी हैं जिन्हें पता ही नहीं है की उनको डायबिटीज है।
डॉक्टर चाहे कितना समझा लें पर अधिकांश लोगों में मीठी वस्तुओं की आदत को पूर्णतः नहीं छोड़ पाते। या जिसे आदतन चटोरापन कहते हैं, वो नियम और अनुशासन में हमें रहने नहीं देता। यह कह सकते हैं कि चीनी एक आज की युग का नया तंबाकू है जिसकी लत हम सबको काफी हद तक लगी हुई है। तो एक तरफ़ तो भारत के विविध व्यंजनों का और फलों का हम मजा ले रहे हैं तो दूसरी तरफ़ पर चीनी के सेवन के चलते बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ता जा रहा है। तो कुल मिलाकर स्थिति जा कहाँ रही है और हमारी आदतों का अंत खेल क्या होगा।
अगर मानव इतिहास से सीख लें तो देखा अक्सर ये गया है कि जब जब मानव जाति किसी विशेष समस्या से जूझ रही होती है तो उसका निदान एक वैज्ञानिक चुनौती और एक व्यावसायिक अवसर बन जाता है। अच्छी खबर यह है कि शायद यही चीनी के मामले में होने जा रहा है। तो यहाँ भी स्थिति कुछ ऐसी है। “ कुछ मीठा हो जाये” की इच्छा है और दूसरी तरफ़ ये असहाय ज्ञान की “कुछ मीठा हो जाये “ हमारे लिए ठीक नहीं है। तो अब अच्छी खबर ये है कि इस विरोधाभास तो निपटाने के लिए वाणिज्य और विज्ञान जुट गये हैं ।
पश्चिम के देशों में इस तरह के प्रयोग हो रहे हैं जो प्रयास कर रहे हैं कि चीनी के स्वाद को, उसकी मिठास को बरकरार रख उसकी हानिकारिता तो ख़त्म कर दिया जाये। तो अब विज्ञान लग पड़ा है इस प्रयास में की वो “ आम के आम और गुठलियों के दाम “ जैसे मुहावरे चरितार्थ करेगा। पिछले कुछ दशकों में जिस तरह गेहूं, मकई और सोयाबीन मैं “जेनेटिक इंजीनियरिंग” के द्वारा बदलाव लाया गया है, इसी तरह आलू और टमाटर के डीएनए में भी बदलाव लाकर उनको बड़ा और रसीला कर दिया गया है। टमाटर को तो छोटा कर चेरी-टमाटो भी बना दिया है तो साधारण टमाटर से अधिक मीठा है। अब इस तरह के खमीर बनाए जा रहे हैं जिनमें अनानास, मौसमी या अंगूर जैसे फलों का “फ्लेवर” रहेगा जिससे उनके इस्तेमाल होने वाली हर चीज में चाहे वह दही हो, छाछ हो या फिर शराब ही क्यों ना हो, उसमें उन्हीं फलों का स्वाद आपको आएगा।
इसी तरह का बदलाव अब शायद कुछ ही सालों में चीनी में भी देखने को मिलेगा। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की “वाइस इंस्टीट्यूट ऑफ़ बायोलॉजिकली इंस्पायर्ड इंजीनियरिंग” के वैज्ञानिक इस तरह की चीनी का विकास कर रहे हैं कि जब इस चीनी का उत्पादन होगा, तो उसमें इस तरह के “एंजाइम” मिला दिये जाएंगे जिससे यह चीनी रेशेदार (फाइब्रस) हो जाएगी। उसी तरह जैसे हमारे मोटे-अनाज और सब्जियां होती हैं। तो आपको चीनी का स्वाद तो आएगा पर चीनी आपके पेट में जाकर पचती नहीं और वह आपके खून की में नहीं जाएगी। शरीर उसे सोखेगा नहीं और वो आपकी पाचन प्रणाली से बाहर निकाल दी जाएगी जैसे बाक़ी अपाच्य भोजन निकलते हैं। मतलब स्वाद पूरा पर हानि नहीं। यानी एक टिकट में दो मज़े। वैज्ञानिकों ने ये भी देखा है कि प्रकृति में भी हमारे किशमिश और अंजीर जैसे ड्राई- फ्रूट्स” हैं जिनमें “एल्यूलोस” नाम की चीनी होती है जो स्वादिष्ट तो होती है पर हमारी शरीर के अंदर 30% कम रचती- बस्ती (मेटाबोलाइज) है। तो विज्ञान चल पड़ा है उस तरह की चीनी के निर्माण की तरफ़ भी।
पहले भी, चीनी के को हटाने के लिए तरह-तरह के कृत्रिम मीठे पदार्थ जैसे “अस्पार्टम” , स्टीविया और बंक फ्रूट मार्केट में आये थे पर उन सब का स्वाद चीनी वाला नहीं था । आम तौर पर ये चीनी के विकल्प मुंह में एक कुछ अप्रिय सा स्वाद छोड़ जाते हैं जो हमारी चाय का या मिठाई का मजा किरकिरा सा कर देता है। अब चीनी सिर्फ एक स्वाद की ही वस्तु नहीं है, वो खाने की मीठी चीजों को बनावट देती है, गरम कीजिये तो भुनी चीनी (कैरेमलाइज्ड) लुभावना सा भूरा सा रंग देती है और चीनी युक्त वस्तुएँ जल्दी ख़राब भी नहीं होती। वॉइस इंस्टीट्यूट का दावा है कि उनकी एंजाइम उक्त चीनी में ये सब सहायक गुण तो रहेंगे और अधिकतर हमारे शहरी भोजन में डॉक्टर कहते हैं कि फाइबर की मात्रा कम है तो इससे आपको फाइबर भी मिलता रहेगा।
दूसरी तरफ, सैन फ्रांसिस्को स्थित एक स्टार्टअप कंपनी “बायोल्यूमेन” ने एक मंच-मंच बोलकर ड्रिंक मिक्स निकाला है जिसके अंदर छोटे-छोटे रेशेदार (फाइबर) स्पंज होते हैं जो आपके शरीर की सारी चीनी को पहले ही सोख लेते हैं जिससे वो आपके रक्त में ना जा सके। तो उनका दावा है कि चीनी की चीज खाने के साथ में एक चम्मच मंच-मंच मिलाकर खाने से आपकी चीनी की समस्या का समाधान हो जाएगा। मज़े की बात ये है कि ख़ुद मंच-मंच में ना तो कोई स्वाद है, ना गंध और ना कोई रंग। ये पानी में भी घुल जाता है। एक ग्राम मंच-मंच 6 ग्राम तक चीनी को बेअसर कर देगा और आपके रक्त में नहीं जाने देगा। अब सभी इस तरह के प्रयोगों के साथ ये दावे सदैव रहते हैं की वो आपके पाचन और अन्य शारीरिक व्यवस्थाओं के लिए पूर्णतः सुरक्षित है। अमरीका की “ फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन” ने मच-मंच को तो सार्वजनिक बिक्री की अनुमति भी दे दी है।
उधर, शिकागो की एक कंपनी “ब्लूमर” ने एक इस तरह की चॉकलेट का उत्पादन करना शुरू किया है जिसमें ‘इंक्रेडिबल’ नाम की एक चीनी का प्रयोग किया है जिसमें इन्होंने एक खनिज-वाहक मिलाया है जिससे ये चीनी हमारी जिह्वा में जल्द से घुल जाती है और हमें चीनी का स्वाद तो पूरा और और तुरंत आता है। होती भी ये असली चीनी है पर उसकी मात्रा होती है 50% कम। यानी इस बार आधी टिकट में पूरी टिकट का आनंद।
पर इन आविष्कारों के साथ कुछ सैद्धांतिक प्रश्न भी जुड़े जा रहे हैं। एक तरफ तो बहुत से गरीब देशों में साधारण और गरीब लोगों को पूरी तरह से पोषण (कैलोरी) नहीं मिल पा रहा तो ऐसे संदर्भ में चीनी ही है जो गरीब व्यक्ति के लिये तुरंत ऊर्जा का एक सस्ता साधन है। इधर, दूसरी तरफ विकसित देश में यह सोच बन चली है कि चीनी का स्वाद तो आए पर वह चीनी हमारे रक्त में न जाए। यानी की ऊर्जा का इस्तेमाल ना हो। यह कोई असमानताओं से भरे हुए आज के विश्व की अनोखी विडंबना नहीं है। दूसरी तरफ बहुत से लोगों का यह भी कहना है कि इस तरह की कृत्रिम चीजों के सेवन से शरीर पर अंत में क्या प्रभाव पड़ेगा शायद अभी विज्ञान उस स्तर पर नहीं पहुंचा कि वह उसको उसका सटीक आकलन कर सके।
पर सत्य चाहे कुछ भी हो किंतु इतना तो निश्चित है की इस तरह के आविष्कार और उनके फलस्वरूप तरह-तरह के पदार्थ आते रहेंगे जिससे हमारा चीनी का सेवन जैसा पहले था वैसा नहीं रहेगा।
हालाँकि, ये सभी प्रयोग अभी प्रारंभिक अवस्था में हैं, लेकिन यह कहना सुरक्षित है कि यह कुछ वर्षों की ही बात है जब ये निर्मित और परिवर्तित चीनी मुख्यधारा की चीनी बन जाएगी। अब उम्मीद यही कर सकते हैं कि वो अधिक स्वास्थ्यवर्धक होंगी या सटीक शब्दों में कहें तो यही आशा कर सकते हैं कि वे अब की तुलना में कम हानिकारक होंगी।
पर ये निश्चित है चीनी का चंगे होने का तीर्थ अब शुरू हो गया है।

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