राजेंद्र शर्मा
खबरों के अनुसार, धारा-370 के निरस्त किए जाने और जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में तोड़कर और राज्य का दर्जा छीनकर, दोनों टुकड़ों को दो केंद्र शासित क्षेत्र बनाने की पांच साल पूरे होने के मौके पर, एक बार फिर, खास तौर पर कश्मीर घाटी में, प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को उनके घरों में कैद कर दिया गया। मगर इसमें शायद ही किसी को हैरानी होगी। यहां और कुछ सामान्य हुआ हो, न हुआ हो, इन पांच सालों में यह चीज बाकायदा सामान्य हो चुकी है — छोटा या बड़ा, कोई भी मौका हो, कश्मीर की घाटी में प्रमुख राजनीतिक नेताओं को घर पर कैद कर दिया जाता है, ताकि किसी प्रकार का विरोध प्रदर्शन न हो सके। यह दूसरी बात है कि इसमें भी सीधे दिल्ली से नियंत्रित/ निर्देशित प्रशासन ने जबर्दस्ती, डिनाइबिलिटी के खेल की गुंजाइश निकाल ली है, जहां अक्सर इन नेताओं को घर पर कैद करने की जिम्मेदारी स्वीकार करने से भी यह कहकर इंकार-इंकार खेला जाता है, सरकार कहां किसी को रोक रही है ; बस ये नेता ही हैं, जो किसी वजह से घर से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं! 2019 की पांच अगस्त को जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता पर मारक हमला किए जाने के समय पर, जो पूरे जम्मू-कश्मीर को महीनों के और कश्मीर को सालों के लिए जेल में तब्दील किया गया था, इन पांच सालों में उसमें इतना ही अंतर आया है कि प्रमुख नेता अब बाकायदा जेल में न होकर, अनौपचारिक नजरबंदी मेें हैं, जिनके दरवाजों पर बैठाई गई ‘सुरक्षा’ टुकड़ियां कभी भी उनके घर के दरवाजे बाहर से बंद कर सकती हैं। यह इसके बावजूद है कि इनमें से ज्यादातर नेता, कम से कम भारत-विरोधी कभी नहीं माने जाते थे।
इन पांच सालों में लोगों की आवाज को सामने ला सकने के लिहाज से मीडिया का जो भयानक दुर्गति हुई है, वह राजनीतिक मुख्यधारा की दुर्गति से भी भयानक है। शुरूआती दौर में मीडिया को पूरी तरह से पंगु किए जाने पर ही बात नहीं रुकी। विश्वनीय तरीके से स्वतंत्र आवाज माने जाने वाले, प्रभावशाली पत्रकारों को राजनीतिक कार्यकर्ताओं से भी ज्यादा अंधाधुंध तरीके से जेलों में ठूंसे जाने, शासन को पसंद न आने वाले एक-एक शब्द के लिए पत्रकारों को/ संपादकों को रोज-रोज परेशान किए जाने, स्वतंत्र प्रकाशनों का गला पूरी तरह से घोंटे जाने आदि के जरिए, शासन के चौतरफा आतंक के जरिए, स्वतंत्र मीडिया की तो हत्या ही कर दी गई है। जो प्रकाशन बचे भी रह गए हैं, उनमें सिर्फ सरकार की आवाज है, जनता की आवाज दूर-दूर तक कहीं नहीं है। जम्मू-कश्मीर में मीडिया की दुर्दशा को एक प्रतीक से समझा जा सकता है — राजधानी श्रीनगर में प्रेस क्लब के चुनाव कराने की कोशिश की गई, तो सेना-संचालित प्रशासन ने प्रेस क्लब की कमेटी को ही भंग कर क्लब को अपने हाथ में ले लिया और बाद में प्रेस क्लब को पुलिस थाने में ही तब्दील कर दिया गया!
और इस सब का हासिल क्या है? जम्मू-कश्मीर पर अपने सांप्रदायिक हमले के पांच साल पूरे होने के मौके पर ट्विटर पर जारी अपने बयान में प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर यह कहकर आधे-सच और आधे-झूठ का सहारा लेने की कोशिश की है कि ये पांच साल सिर्फ धारा-370 तथा 35(ए) के निरस्त किए जाने के ही पांच साल हैं। जी नहीं। ये पांच साल जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म किए जाने और उसे केंद्र शासित क्षेत्रों, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांटे जाने के पांच साल भी हैं। संघ-भाजपा के दावे के अनुसार, अगर संविधान की उक्त धाराएं वाकई जम्मू-कश्मीर के शेष भारत के साथ एकीकरण में बाधक थीं और प्रधानमंत्री के ताजातरीन बयान के अनुसार, ‘महिलाओं, युवाओं, पिछड़ों, आदिवासियों तथा हाशियावर्ती समुदायों को सुरक्षा, गरिमा तथा अवसरों से’ वंचित करती थीं और उन्हें ‘विकास के सुफलों से वंचित करती’ थीं, तो उक्त धाराओं को निरस्त करने के साथ ही साथ, जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनने और उसे दो टुकड़ों में बांटने की क्या जरूरत थी? क्या राज्य के रूप में जम्मू-कश्मीर का अस्तित्व ही उस सब में बाधक था या ये सब गढ़े हुए बहाने ही नहीं थे, जो जम्मू-कश्मीर को सजा देने के लिए, कुचलने के लिए गढ़े गए थे!
और सजा किस गुनाह की? सजा भारत का इकलौता मुस्लिम बहुल राज्य होने की, जहां के स्वतंत्रता आंदोलन के दौर समेत इतिहास तथा संस्कृति के अलावा, इस वजह से भी हिंदुत्ववादी राजनीति आसानी से कामयाब होने की उम्मीद नहीं कर सकती थी। याद रहे कि सत्ताधारी भाजपा के मातृ संगठन, आरएसएस ने इससे काफी पहले जम्मू-कश्मीर के तीन टुकड़ों—जम्मू, कश्मीर तथा लद्दाख—में बांटे जाने की बाकायदा मांग उठाई थी। लेकिन, बाद में संभवत: जम्मू में वर्चस्व और दिल्ली पर नियंत्रण के बल पर, कश्मीर को भी नियंत्रित करने की उम्मीद में रणनीति बदल दी गई और लद्दाख को अलग करते हुए, शेष जम्मू-कश्मीर को एक साथ बनाए रखा गया। बेशक, मौजूदा निजाम पांच साल से इसका भी वादा करता आया है कि एक दिन जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा। लेकिन, वह दिन कब आएगा, क्या कुछ हो जाने के बाद आएगा, यह कभी स्पष्ट नहीं किया जाता है। दूसरी ओर, जम्मू-कश्मीर के संबंध में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले के बाद, इस पर तो मोहर भी लग गई है कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा कभी बहाल भी हुआ तो, लद्दाख के साथ उसका राज्य का दर्जा अब कभी बहाल नहीं होगा।
और याद रहे कि ये पांच साल, जम्मू-कश्मीर की जनता को, एक निर्वाचित सरकार के उसके न्यूनतम जनतांत्रिक अधिकारों से भी वंचित रखे जाने के भी साल हैं। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि दावा यह किया जाता है कि धारा-370 के निरस्त किए जाने आदि, 5 अगस्त 2019 को उठाए गए कदमों के जरिए, जम्मू-कश्मीर का शेष भारत के साथ पूरी तरह से एकीकरण किया गया है और उसके हिस्से के तौर पर उसे पूरी तरह से भारतीय संविधान के दायरे में लाया गया है। लेकिन, वास्तव में जम्मू-कश्मीर को भारतीय संविधान के उन न्यूनतम जनतांत्रिक प्रावधानों — एक निर्वाचित सरकार के द्वारा शासन — के दायरे से बाहर ही धकेल दिया गया है। यह दूसरी बात है कि अनेक टिप्पणीकार इसे, पूरे भारत में जनतंत्र के ह्रास के हिस्से के तौर पर भी देखते हैं और उन्होंने इस हिसाब से पूरे ‘भारत के ही कश्मीरीकरण’ की बात करनी शुरू कर दी है।
बेशक, लद्दाख से भिन्न, जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित क्षेत्र बनाते हुए भी, उसके लिए विधानसभा का प्रावधान किया गया है। लेकिन, यह भी सच है कि 2019 तथा 2024, दो-दो लोकसभा के चुनाव होने के बावजूद, जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव नहीं कराए गए हैं। 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद दस साल और 2018 के जून से केंद्रीय शासन को चलते हुए, पूरे छ: साल बीत चुके हैं, लेकिन मौजूदा निजाम को चुनाव कराने की शायद ही कोई चिंता नजर आती है। यह इसके बावजूद है कि न सिर्फ राज्य में विधानसभाई क्षेत्रों के नये परिसीमन तथा मतदाता सूचियों के नवीकरण समेत चुनाव की सभी तैयारियां ही पूरी नहीं हो चुकी हैं, हालांकि उस सब में ‘फिक्सिंग’ के गंभीर आरोप भी लगे थे, शासन की ओर से बार-बार इसका दावा भी किया जाता है कि जम्मूू-कश्मीर में हालात सामान्य हो चुके हैं। फिर भी, 2024 के संसदीय चुनाव के समय भी, बेतुके बहाने बनाकर विधानसभाई चुनाव नहीं कराये गए, जबकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसके लिए 30 सितंबर की अंतिम तारीख भी तय की जा चुकी थी।
हैरानी की बात नहीं है कि मानवाधिकार संगठन, फोरम फॉर ह्यूमन राइट्स इन जम्मू एंड कश्मीर ने इसकी आशंका जताई है कि बढ़ते ‘मिलिटेंट के बढ़ते हमलों’ के नाम पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई अंतिम तारीख से भी आगे चुनाव की तारीखें टाली जा सकती हैं। इस फोरम ने अपनी रिपोर्ट, ‘जम्मू एंड कश्मीर: ए ह्यूमन राइट्स एजेंडा फॉर एन इलेक्टेड एडमिनिस्ट्रेशन’ में फौरन चुनाव की तारीखें घोषित किए जाने की मांग करते हुए कहा है कि इसमें ‘देरी बेफायदा होगी। इससे (लोगों का) अलगाव बढ़ेगा और यह खेल बिगाड़ने वालों की मदद कर सकता है।’
इसके साथ ही इस रिपोर्ट में इसे भी चिंताजनक कहा गया है कि विधानसभा के चुनाव होने से पहले ही निवारक कार्रवाई कर के, निर्वाचित होने वाले प्रशासन की शासन करने की क्षमताओं पर कैंची चलाई जा रही है। 12 जुलाई को जारी नये प्रशासनिक नियमों के जरिए, ‘पुलिस, नौकरशाही, एटॉर्नी जनरल तथा सरकारी अभियोजन सेवाओं पर महत्वपूर्ण शक्तियां लेफ्टीनेंट गवर्नर को दे दी गई हैं, जो एक ओर निर्वाचित प्रशासन और दूसरी ओर एक नामजद प्राधिकार, सिविल तथा पुलिस सेवाओं के बीच गतिरोध खड़ा कर सकता है, जैसाकि दिल्ली में हुआ है।’ रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इन नियमों से इस संबंध में भी संदेह पैदा होते हैं कि क्या जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल भी किया जाएगा और बहाल किया भी जाएगा, तो कब तक और किस रूप में? उसके अनुसार, ‘नये नियमों से तो ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार उसकी जगह पर, दिल्ली की जैसी संकर व्यवस्था की ही सोच रही है।’
ये पांच साल, संघ-भाजपा की इस सांप्रदायिक सनक की विफलताएं, जिनके बारे में पहले ही बता दिया गया था, ज्यादा से ज्यादा खुलकर सामने आने के भी साल रहे हैं। पांच साल बाद, इन कदमों से जम्मू-कश्मीर में कोई भी खुश नहीं है। कश्मीर में तो नाखुशी का यह आलम है कि भाजपा की संसदीय चुनाव में घाटी की तीनों सीटों पर अपने उम्मीदवार तक खड़े करने की हिम्मत नहीं हुई थी। जम्मू में भी धारा-370 के अंतर्गत स्थानीय लोगों को भूमि अधिकार और नौकरियों में हासिल सुरक्षा दोबारा लाए जाने की मांग तेज से तेज हो रही है। लद्दाख भी धारा-370 के अंतर्गत हासिल संरक्षणों की वापसी और विधानसभा की मांग को लेकर, लगातार आंदोलन के मैदान में है। दूसरी ओर, मिलिटेंटों की हिंसक गतिविधियों के मामले में भी सरकार के दावों के बावजूद, हालात में ज्यादा बदलाव नहीं है। एक आकलन के अनुसार, साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के अनुसार, 2015 से 2018 तक, जम्मू-कश्मीर में मिलिटेंसी की घटनाओं में 307 सुरक्षाकर्मी और 173 नागरिक मारे गए थे, जबकि 2019 के बाद से, 2020 से जुलाई 2024 तक, ऐसी ही घटनाओं में 180 सैनिक और 128 नागरिक मारे गए हैं। लेकिन, क्या पहले ही नहीं बता दिया गया था कि यह कोशिश नाकाम साबित होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)