पलाश सुरजन ‘लोकजतन सम्मान’ से अभिनंदित, ‘शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान’ में सुहेल हाशमी ने सुनाई उर्दू जबान की कहानी

बादल सरोज

संपादक, लोकजतन

भोपाल। जनोन्मुखी पत्रकारिता के प्रति समर्पित, साहित्य धर्मी एवं पत्रकारिता के उच्चतर मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध ‘देशबन्धु’ के प्रकाशक-सम्पादक पलाश सुरजन को आज ‘लोकजतन सम्मान – 2024’ से अभिनंदित किया गया। लोकजतन परिवार की ओर से उन्हें यह सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार राजेश जोशी ने प्रदान किया।

लोकजतन के संस्थापक सम्पादक शैलेन्द्र शैली (24 जुलाई 1955 – 07 अगस्त 2001) के जन्मदिन पर हर वर्ष यह सम्मान मौजूदा कालखंड में पत्रकारिता को सही अर्थों में बनाए रखने वाले पत्रकारों के योगदान के प्रति सम्मान एवं कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए दिया जाता है ।

इस अवसर पर बोलते हुए पत्रकार-सम्पादक पलाश सुरजन ने सम्मान के लिए धन्यवाद देते हुए पत्रकार के नाते अपनी यात्रा के अनुभव साझा किये और बताया कि किस तरह की मुश्किलें एक पत्रकार और मायाराम सुरजन जी द्वारा स्थापित पत्रकारिता के करते हुए आती हैं। अपने दिवंगत भाई और सम्पादक ललित सुरजन द्वारा दी गयी प्रेरणा तथा अपनी जीवन संगिनी सहित परिजनों द्वारा इस दौरान दिए गए सहयोग के प्रति भी उन्होंने आभार व्यक्त किया। अपने सम्मान स्वीकारोक्ति संबोधन का समापन उन्होंने भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता के साथ किया ।

इसी समारोह के साथ पखवाड़े भर तक पूरे प्रदेश भर में चलने वाले ‘शैलेन्द्र शैली स्मृति’ व्याख्यानों की शुरुआत भी हुयी। इसका पहला व्याख्यान संस्कृतिकर्मी, इतिहासकार, फिल्मकार सुहेल हाशमी ने “उर्दू जबान की कहानी” विषय पर दिया।

अपने भाषण में उन्होंने कहा कि उर्दू खालिस हिन्दुस्तानी जबान है, जो धरती के इसी हिस्से पर जन्मी और फली-फूली है। यह दिल्ली में जन्मी और वहां से गुजरात, महाराष्ट्र, आँध्रप्रदेश, कर्नाटक से घूमती हुयी और भी समृद्ध होकर दोबारा दिल्ली वापस आ गयी। 18वीं सदी में आकर यह राजकाज की भाषा बनी। इससे पहले दरबार के काम फारसी में हुआ करते थे।

सुहेल हाशमी ने बताया कि उर्दू एक ऐसी भाषा है, जिसे कभी राज्याश्रय या संरक्षण नही मिला । इसकी पैदाईश और परवरिश पांच जगहों – सराय, बाजार, फ़ौज, सूफियों और खिलजी के जमाने में बने कारखानों में हुयी। इस तरह यह हिन्दुस्तानी अवाम की भाषा है। इसीलिए इसका व्याकरण और वर्तनी हिंदी की तरह का है, इसका 75 फीसद शब्दकोष भी हिंदी का ही है, बाकी 25 प्रतिशत में पंजाबी, मराठी, तेलुगु, ब्रज, खड़ी बोली और कन्नड़ भाषा से लिए गए शब्द हैं।

उन्होंने बताया कि हिंदी और उर्दू को अलग करने का काम अंग्रेजों ने किया था, जब 1825 में कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज में एक अफसर ने दो अलग-अलग जबान बताते हुए उन्हें दो अलग-अलग लिपियों में लिखवाने का सिलसिला शुरू किया। यही समय था, जब पहली बार किसी भाषा को मजहब के साथ जोड़ा गया। यही बाद में बंटवारे की बुनियाद बना और इसके नतीजे भारत विभाजन के रूप में देखने पड़े। 

अपने व्याख्यान में सुहेल हाशमी ने उदाहरण सहित बताया कि भाषा किसी धर्म या मजहब की नही होती है — वह जनता के संवादों और उसकी जरोर्तों तथा मेलमिलाप से बनती, सजती और संवरती है । भाषाओं से यदि उनकी लिपियाँ छीन ली जायेंगी, तो वे मर जायेंगी। इस संबंध में उन्होंने कई भाषाओं के उदाहरण भी दिए।

वरिष्ठ साहित्यकार एवं ‘लोकजतन’ के कार्यकारी सम्पादक रामप्रकाश त्रिपाठी की अध्यक्षता में हुए इस गरिमामय समारोह का परिचय देने तथा संचालन का काम सुश्री संध्या शैली ने किया। लोकजतन सम्पादक बादल सरोज ने मौजूदा समय में इस तरह के आयोजनों के महत्व पर प्रकाश डाला।

इस अवसर पर अखबार एवं साहित्य की महत्ता बताने वाली ‘लोकजतन’ के पूर्व सम्पादक जसविंदर सिंह लिखित पुस्तक “जगन्नाथ की जिद” का विमोचन भी किया गया।

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