व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
भई, मोदी जी के साथ यह तो सरासर नाइंसाफी है। चुनावी दुर्घटना के बाद, मोदी जी को चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की बैसाखियों का जरा-सा सहारा क्या लेना पड़ गया, नागपुरी भाइयों को भी बेचारे की चाल में खोट दिखाई देने लगी। विरोधी तो अहंकार-अहंकार का शोर मचाते ही थे, अब तो अपने नागपुरी भाइयों को भी अहंकार दिखाई देने लगा। कहते हैं कि अहंकार ने डुबो दिया। अहंकार तोड़ने के लिए, भगवान राम ने ही 240 पर रोक दिया।
वैसे भगवान राम ने या जिसने भी रोका हो, आखिर में एक अंक लगाकर संख्या शुभ बनाने तक का ख्याल नहीं किया और 240 पर ही रोक दिया। पर इसमें अहंकार की बात कहां से आ गयी? माना कि मोदी जी ने हर जगह मोदी जी की ही तस्वीर लगवायी थी। माना कि मोदी जी ने हर जगह मोदी जी के लिए वोट मांगा था। माना कि मोदी जी ने हर जगह मोदी सरकार का ही बखान किया था। माना कि मोदी जी ने हर जगह मोदी की ही गारंटी दी थी। माना कि बढ़ते-बढ़ते बात यहां तक पहुंच गयी कि मोदी जी ने खुद को ही नॉन-बायोलॉजिकल घोषित कर दिया और सीधे अपने परमात्मा का दूत होने का एलान कर दिया। यह सब सही, लेकिन इस सब का अहंकार से क्या लेना-देना है?
फिर मोदी जी ने यह सब क्या पहली बार किया था? मोदी जी तो पूरे दस साल से दिल्ली के तख्त से यही सब करते आ रहे थे, उससे पहले गांधीनगर की कुर्सी से। तब तो किसी नागपुरी भाई को आब्जेक्शन नहीं हुआ। गांधी नगर के टैम पर हुआ हो, तो हुआ हो, दिल्ली के टैम पर तो पक्का है कि नहीं हुआ। तब तो किसी को नहीं लगा कि यह अहंकार है। तब तो किसी ने नहीं कहा कि सच्चा सेवक अहंकार रहित होता है। तब तो किसी को नहीं लगा कि भले ही काम किया हो, पर काम करने वाला ‘‘मैंने किया है’’ इसका अहंकार न पाले, वगैरह। तब तो किसी ने यह नहीं चेताया कि अहंकार तो रावण का भी नहीं रहा, जबकि उसके दस-दस सिर थे! अब इन्हें कैसे छप्पन इंच की छाती ठोकने में अहंकार दिखाई देने लगा।
कहने वाले ने सही कहा है कि कामयाबी के कई-कई पिता होते हैं, पर बेचारी नाकामी लावारिस फिरती है। मगर यह तो पश्चिम वालों की कहावत हैै। पहले लोग इस पश्चिमी कहावत के असर में रहे होंगे, तो रहे होंगे, अब क्यों रहेेंगे? मोदी जी के राज के दस साल बाद! कंगना जी वाली आजादी के दस साल बाद। अब तो विदेशी गुलामी की सारी निशानियां मिटायी जा रही हैं। और ऐसे-वैसे नहीं, हजारों करोड़ रुपये फूंक कर मिटायी जा रही हैं। पहले वाली संसद की बगल में नयी संसद बनाकर, पुराना सेंट्रल विस्टा तोड़कर नया सेंट्रल विस्टा बनाकर, लुटियन की दिल्ली की जगह, गुजराती पटेल की दिल्ली बनाकर मिटायी जा रही हैं। और दूसरों पर इस विदेशी कहावत का कुछ असर चाहे रह भी गया हो, पर नागपुरी भाई कैसे ऐसी पश्चिमी चीज के असर में आ सकते हैं। कहां परिवार को इतना ऊंचा दर्जा देने वाले, पिता और पतिव्रत धर्म का इतना महिमा गान करने वाले और कहां कामयाबी के कई पिता और नाकामी के लावारिस होने की बातें। नागपुरी भाइयों से मोदी जी ने कम से कम यह उम्मीद नहीं की थी।
फिर ये नाकामी की बात आयी ही कहां से? किस की नाकामी, कैसी नाकामी, कहां की नाकामी? अगर मोदी की नाकामी है, तो फिर कामयाब कौन हुआ? मोदी की नाकामी का शोर मचाने वाले ही बता दें, क्या विपक्षी कामयाब हुए हैं? कोई कुछ भी कह ले, आया तो मोदी ही है। पहले ही कहा था कि नहीं कि आयेगा तो मोदी ही। कहा था आएगा, मोदी आ भी गया, फिर काहे की नाकामी! इसकी नाकामी कि चार सौ पार बोला और तीन सौ पार भी नहीं हो पाए? इसकी नाकामी कि अकेले तीन सौ सत्तर पार बोला था, गांठ में तीन सौ तीन भी नहीं रह पाए और सिर्फ दो सौ चालीस आए? इतनी नाकामी कि चले थे चौबे छब्बे बनने, रह गए दुबे ही बनकर? पर जो बोला था, वह पूरा न होने की नाकामी भी कोई नाकामी है लल्लू! या पब्लिक की चौबे से दुबे बनाकर छोड़ देने की नाकामी! या पब्लिक के पांव तोड़कर बैसाखियां लगवा देने की नाकामी! बाकी कुछ भी हो, आया तो मोदी ही। वही असली कामयाबी है। बाकी सब जुमलेबाजी है। नागपुरी भाइयो! तुम ही इस बात को नहीं समझोगे तो और कौन समझेगा!
माना कि अयोध्या में थोड़ी गड़बड़ हो गयी। रामलला की रिसेप्शन पार्टी की पगड़ी बंधवाकर भी, लल्लू सिंह हार गए। वही लल्लू सिंह, जो रिसेप्शन पार्टी की पगड़ी के बिना पहले दो-दो बार जीते थे, इस बार रिसेप्शन की पगड़ी बांधकर भी हार गए। जरूर लल्लू सिंह की तपस्या में और शायद मोदी जी की भी तपस्या में कोई कमी रह गयी होगी, जो पब्लिक मिसअंडरस्टैंड कर गयी। सिर्फ अयोध्या में ही नहीं, आप-पास भी, सिर्फ आस-पास ही नहीं पूरे पूर्वांचल में, सिर्फ पूर्वांचल मेें ही नहीं, पूरे यूपी में पब्लिक मिसअंडरस्टैंड कर गयी। जो लाए हैं राम को, उन्हीं को रवाना कर दिया और रोटी-रोजगार वगैरह लाने वालों को ले आए। पर अयोध्या की पब्लिक तो हमेशा से ही ऐसे ही सिरफिरों वाले और गाली खाने के काम करती आयी है। भूल गए, सीता माता को वनवास किसने दिलाया था — अयोध्या की इसी पब्लिक ने। बल्कि अगर मंथरा को पब्लिक में गिन लिया जाए, तो राम-लक्ष्मण-सीता को वनवास भी इसी पब्लिक ने दिलाया था। पब्लिक यानी भेड़चाल, अयोध्या वालों के पीछे-पीछे और भी लोग लग लिए। और तो और, बनारस वाले भी। अरे, इस नाशुक्री पब्लिक का बस चलता, तो इसने तो मोदी जी को भी बनवास दिला दिया था, पर नायडू और नीतीश को बस में कर के मोदी जी ने, पब्लिक के बस को बेबस करा दिया। खैर!
पब्लिक ने भी इस बार अपने मन की कर के देख ली। फिर भी आया तो मोदी ही। पब्लिक को भी सबक मिल गया — एक बार में ही आ लेने दे या बार-बार बुलाने का नाटक करा ले, पर आएगा तो मोदी ही।
और जब तक मोदी आएगा, तब तक नागपुरी भाइयों के काम बनाएगा। बस नागपुरी भाई जरा धीरज रखें और ज्यादा मुंह न फाड़ें। और हां, पब्लिक की तरह नागपुरी भाई भी अब तो समझ ही गए होंगे – कुछ भी हो जाए, आएगा तो मोदी ही। और मोदी तो भैया, मोदी की तरह ही आएगा। मोदी आएगा, तो चौदह साल पुराने भाषण के लिए अरुंधति राय पर यूएपीए लगवाने से, अपनी नयी पारी का धुंआधार उद्घाटन कराएगा। नागपुरी भाइयो, तुम्हें और क्या चाहिए! बैसाखी नो बैसाखी, मोदी तुम्हारा ही आएगा।