शपथ या अग्निपथ?

‘बंधन’ सरकार के साथ लंबे समय तक तालमेल बैठाने की चुनौती
इंडिया गठबंधन की पैनी नजर एनडीए के घटक दलों पर

अमित नेहरा, नई दिल्ली।

मोदी 3.0 की चुनौतियां
मोदी नहीं सहयोगियों की गारंटी
मोदी का जादू पड़ा फीका
सहयोगी दल ही करेंगे असहयोग
एकला चलो पर लगेगी लगाम
विपक्ष करेगा तीखे हमले

नरेन्द्र मोदी ने 9 जून 2024 की शाम 7.15 बजे भारत के प्रधानमंत्री के रूप में लगातार तीसरी बार शपथ ली। ऐसा करके उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरु के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है। देखने में तो ये बराबरी प्रदर्शन अविश्वसनीय है मगर देश की जनता को यह जानने में बड़ी दिलचस्पी है कि क्या मोदी अपना तीसरा कार्यकाल भी अपने पहले और दूसरे कार्यकालों की तरह स्वच्छंद तरीके से पूरा कर पाएंगे!
वजह यह है कि 2014 के बाद अब देश की केंद्रीय राजनीति गठबंधन के दौर में फिर से वापस लौट आई है। जनता ने जो आदेश दिया है उसका अर्थ साफ है कि उसे मजबूत विपक्ष भी चाहिए और किसी एक दल को मनमानी भी नहीं करने देनी है। भाजपा ने भले ही सरकार बना ली है पर भाजपा ने जिन बड़े-बड़े वायदों के साथ चुनाव लड़ा था। उन्हें पूरा करना इस सरकार के लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होगा।
हाल ही में 13 सेकेंड की एक छोटी से वीडियो वायरल हुई है। इसमें नरेन्द्र मोदी, अमित शाह व जेपी नड्डा तीनों कुर्सियों पर साथ-साथ बैठे हुए हैं। तभी जेडीयू नेता नीतीश कुमार वहाँ से गुजरते हैं, उन्हें देखकर मोदी एकदम अचानक सकपका कर खड़े हो जाते हैं और नीतीश के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लेते हैं, जबकि अमित शाह उनसे बैठे-बैठे हाथ मिलाते हैं। जेपी नड्डा न तो खड़े होते हैं, न हाथ मिलाते हैं, उनकी तरफ सिर्फ हाथ जोड़ देते हैं। ये 13 सेकेंड की क्लिप अल्पमत सरकार की बेचारगी बड़े अच्छे तरीके से बयान कर देती है।
भाजपा ने सरकार तो बना ली है लेकिन उसे 2024 के लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे अकेले 282 सीटें मिली थीं जो पूर्ण बहुमत से 10 ज्यादा थीं, 2019 में तो भाजपा को रिकॉर्ड 303 सीटें मिल गई। लेकिन 2024 में भाजपा 32 सीटों की कमी के चलते बहुमत के आंकड़े को छूने में नाकाम हो गई। उसे 240 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। बेशक एनडीए ने 292 सीटें जीतकर बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया। लेकिन
कांग्रेस ने 99 सीटें जीत लीं और कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन ने भी शानदार प्रदर्शन करते हुए अपनी सीटों का आंकड़ा 234 तक पहुंचा दिया। जबकि 18 सीटों पर अन्य को जीत मिली है।
इस स्थिति में एनडीए में शामिल टीडीपी, जेडीयू, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना और लोजपा (रामविलास) सरकार गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते नजर आएंगे। इस चुनाव में टीडीपी ने 16, जेडीयू ने 12, शिंदे नीत शिवसेना ने 7 और लोजपा ने 5 लोकसभा सीटें जीती हैं। इनमें भी खासतौर पर टीडीपी और जेडीयू भाजपा के लिए परेशानी का और कांग्रेस के लिए आशा के सबब बने हुए हैं। एक तरह से कहा जा सकता है कि सत्ता की चाबी इन दोनों दलों के पास है। ये जब चाहें ताला खोल भी सकते हैं और बंद भी कर सकते हैं।
याद कीजिए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वर्ष 2014 में हुई अंतिम प्रेस कॉन्फ्रेंस को, इस कांफ्रेंस में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था : ‘हम गठबंधन की सरकार हैं। इससे हमारे विकल्प सीमित हो जाते हैं।’ गठबंधन की राजनीति का यह कड़वा सच 10 साल बाद देश के सामने एक बार फिर आ गया है।

महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गठबंधन में शामिल पार्टियों का रवैया बहुत हद तक मुख्य पार्टी की सीटों से तय होता है। मूल पार्टी के पास जितनी सीटें कम होती हैं तो समर्थन करने वाली पार्टियां उतनी ही ज्यादा आक्रामक हो जाती हैं और अपने मुद्दों पर अडिग रहती हैं। वर्ष 2004 की मनमोहन सिंह सरकार में और इसके पहले की अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार के कार्यकाल में यह स्पष्ट तौर पर देखा जा चुका है। इन दोनों कार्यकालों में दोनों गठबंधनों में शामिल अनेक पार्टियों ने समय-समय पर अपनी ही सरकारों के लिए परेशानियां पैदा की थीं, और सत्तारूढ़ पार्टी को उनकी मांगें मानने के अलावा कोई दूसरा चारा ही नहीं था।
मोदी मैजिक की निकली हवा 

बेशक भाजपा ने सरकार बना ली है पर जिस नरेन्द्र मोदी के करिश्मे से उसने पिछले 10 सालों तक देश की जनता पर राज किया है वह करिश्मा इस बार चल नहीं पाया। भाजपा ने ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा दिया था लेकिन भाजपा क्या एनडीए भी 300 पार नहीं कर सका। खुद नरेन्द्र मोदी अपनी वाराणसी सीट पर पिछली दो बार वाला करिश्माई प्रदर्शन नहीं कर पाए। मतगणना के दिन तो वे पहले 4 घण्टे तक अपने कांग्रेसी प्रतिद्वंद्वी अजय राय से पिछड़े रहे।
भारत में अब तक 18 बार लोकसभा के चुनाव हुए हैं और नरेंद्र मोदी समेत 14 लोगों को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला है। भारत में पद पर रहते हुए लोकसभा चुनाव लड़ने वाले हर प्रधानमंत्री की जीत के अंतर को देखा जाए तो 1951 से अब तक हुए लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत का अंतर वोट शेयर के लिहाज से सबसे कम है।
यहाँ हार जीत के अंतर की तुलना प्रतिशत में इसलिए की जा रही है क्योंकि देश में मतदाताओं की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है उदाहरण के तौर पर जवाहरलाल नेहरू के दौर में एक चुनाव क्षेत्र में जितने वोटर थे आज उससे वे कई गुना अधिक हैं।
आंकड़ों के हिसाब से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात में 2002 से लेकर 2012 तीन विधानसभा चुनाव हुए। इन तीनों चुनावों में मोदी ने स्पष्ट बहुमत हासिल कर सरकार बनाई। इसी तरह 2014 से उनके नेतृत्व में अब तक हुए लोकसभा चुनावों में यह पहला मौका है जब नरेन्द्र मोदी भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं दिला सके।
यही नहीं, प्रतिशत के आधार पर सबसे कम मार्जिन से जीतने का रिकॉर्ड भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम हो गया है। पिछले 5 साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जीत का ग्राफ 45.22% से घटकर 13.49% तक गिर गया। देखा जाए तो 1984 में राजीव गांधी की जीत का अंतर 72.02 प्रतिशत था जो लोकसभा चुनाव लड़ने वाले मौजूदा प्रधानमंत्री के लिए अब तक का सबसे अधिक जीत का अंतर है।
जवाहरलाल नेहरू पहले ऐसे नेता थे जो लगातार तीन बार देश के प्रधानमंत्री रहे। चुनाव आयोग के अनुसार जब तीसरी बार जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उत्तर प्रदेश की फूलपुर लोकसभा सीट पर अपने नजदीकी प्रतिद्वंदी को 33.45 प्रतिशत वोटों के अंतर से हराया था। मगर नरेन्द्र मोदी इस बार लगातार तीसरी बार लगातार प्रधानमंत्री बन तो गए मगर उनकी खुद के लोकसभा क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता में भारी कमी आई है।
वाराणसी से साल 2019 में नरेंद्र मोदी जहां 4 लाख 79 हजार वोटों के अंतर से जीते थे, इस बार वह अंतर घटकर 1 लाख 52 हजार रह गया है। मोदी के खिलाफ कांग्रेस के उम्मीदवार अजय राय को 4 लाख 60 हजार वोट मिले हैं।
मोदी की लोकप्रियता में गिरावट को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि इस बार 542 लोकसभा सीटों में से 224 सीटों पर जीतने वाले उम्मीदवार प्रधानमंत्री मोदी के मुकाबले ज़्यादा वोटों के अंतर से जीते हैं।

कैबिनेट में एनडीए का दबदबा

2024 के मोदी मंत्रिमंडल में कुल 72 मंत्री हैं, यह मोदी के बाकी दो कार्यकालों के मुकाबले ज्यादा बड़ा है, इसमें सहयोगी दलों के भी कई सांसदों को शामिल किया गया है। जिसमें 30 मंत्री कैबिनेट का हिस्सा होंगे, पांच मंत्रियों को स्वतंत्र प्रभार और 36 को राज्य मंत्री का पद दिया गया है। मोदी 3.0 कैबिनेट में शामिल कुल मंत्रियों में 25 भाजपा से हैं और पांच मंत्री पद सहयोगी पार्टियों को दिए गए हैं। स्वतंत्र प्रभार के साथ पांच सांसदों को राज्य मंत्री बनाया गया है, जिनमें 2 मंत्री सहयोगी दलों के हैं। इनमें आरएलडी से जयंत मलैया और शिवसेना से प्रतापराव जाधव को शामिल किया गया है। इनके अलावा चार राज्य मंत्री पद भी सहयोगियों को दिए गए हैं।
नियमानुसार भारत सरकार में मंत्रियों की संख्या 81 तक हो सकती है। यानी अभी आगे भी मंत्री परिषद में विस्तार की गुंजाइश है।

सहयोगी दलों के मंत्री व उनके मंत्रालय

मोदी कैबिनेट में जेडीयू के राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को पंचायती राज मंत्रालय/पशुपालन एवं डेयरी मंत्रालय दिया गया है। एचएएम के जीतन राम मांझी सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय, एलजेपी के चिराग पासवान को खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय, टीडीपी पार्टी के सांसद के राममोहन नायडू को नागरिक उड्डयन मंत्रालय व जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी को भारी उद्योग और इस्पात मंत्रालय दिया गया है।
इसके साथ-साथ आरएलडी के जयंत चौधरी को कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय जबकि शिवसेना के प्रतापराव जाधव को आयुष, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बनाया गया है।
एनडीए में शामिल टीडीपी के डॉ चंद्रशेखर पेम्मासानी को ग्रामीण विकास, संचार मंत्रालय, जेडीयू के रामनाथ ठाकुर को कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, आरपीआई के रामदास आठवले को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय व अपना दल की अनुप्रिया पटेल को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, केमिकल और फर्टिलाइजर मंत्रालय में राज्य मंत्री बनाया गया है।
गौरतलब है कि भाजपा अल्पमत में है अतः अपने सहयोगियों को मंत्रिमंडल में जगह देना उसकी मजबूरी है। फिलहाल लगता नहीं है कि सहयोगी दल अपने लिए ज्यादा भारी भरकम मंत्रालयों का जुगाड़ कर पाए हों। इन्हें सामान्य से मंत्रालय अलॉट किये गए हैं। जल्द ही हर सहयोगी दल अपने लिए ज्यादा से ज्यादा मंत्रिपदों की मांग करेगा और महत्वपूर्ण मंत्रालय अपने पास रखने की कोशिश करेगा।
पिछली सरकार में कुल 24 कैबिनेट मंत्री ही थे, अब ये तीस हैं। इसका अर्थ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में अब अन्य राजनेताओं का अधिक दखल होगा।
लोकसभा अध्यक्ष पद पर निगाहें
सबसे महत्वपूर्ण और भारी भरकम पद रहेगा लोकसभा अध्यक्ष का। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक इस पद का फैसला नहीं हो पाया है। इस पद पर सभी सहयोगी दल नजर गड़ाए हुए हैं। खासकर टीडीपी और जेडीयू इस पद को अपने पास रखना चाहेंगे। वजह यह है कि अगर कोई पार्टी सांसदों में तोड़फोड़ करना चाहेगी तो उसमें लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अहम होगा। जिस पार्टी का लोकसभा अध्यक्ष होगा वह अपने आपको ज्यादा सेफ महसूस करेंगी। दल-बदल कानून में लोकसभा अध्यक्ष में सारी शक्तियां निहित हैं। बहुत से छोटे दलों को भय है कि भाजपा अपने सांसदों की संख्या 272 करने के लिए उनके सांसदों में तोड़फोड़ कर सकती है। देखना दिलचस्प रहेगा कि क्या भाजपा लोकसभा अध्यक्ष का पद अपने पास रखने में कामयाब रहेगी या अपने किसी सहयोगी दल के दबाव में आ जायेगी!
तीखे रहेंगे विपक्ष के तेवर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत में संसद के केंद्रीय कक्ष में प्रवेश करने से पहले उसकी सीढ़ियों को चूमा था। इस बार उन्होंने भारतीय संविधान को नमन किया है। इसकी वजह यह रही कि लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने संविधान में बदलाव को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाया था। इसका व्यापक असर पड़ा और भाजपा बहुमत पाने में सफल नहीं हो पाई। आज विपक्ष बेहद मजबूत है और वह किसी भी तरह भाजपा को संसद में मनमानी नहीं करने देगा।
2019 के बाद केंद्र सरकार ने प्रचंड बहुमत के कारण ही विवादित तीन कृषि कानून बनाकर लागू कर दिए थे। विपक्ष की नहीं सुनी ही नहीं गई, हालांकि व्यापक जनविरोध के चलते मोदी को ये तीनो कानून बेहद अपमानित तरीके से वापस लेने पड़े थे (भाजपा और मोदी को इस जनविरोध का खामियाजा इस चुनाव में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश और राजस्थान प्रदेशों में उठाना पड़ा)। इसके अलावा अनुच्छेद 370 हटाना, तीन तलाक के खिलाफ कानून व सीएए को लागू कर दिया गया। संख्याबल में कमजोर विपक्ष कुछ खास विरोध नहीं कर सका।
इन लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी बार-बार कह रहे थे कि उनका तीसरा कार्यकाल बड़े रिफॉर्म्स का होगा।इनमें एक देश-एक चुनाव, यूनिफॉर्म सिविल कोड व जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाये जाने की बात कही जा रही थी। लेकिन क्या इस तीसरे कार्यकाल में यह सब कर पाना सम्भव होगा?
इस सवाल का जवाब इन घटनाओं में निहित है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेता चुने जाने और शपथ ग्रहण के पहले ही कांग्रेस के नेता राहुल गांधी शेयर बाजार में घोटाला और इस पर जेपीसी की जांच की मांग कर दी है। कांग्रेस के मीडिया विभाग के प्रमुख जयराम रमेश ने संसद भवन में महात्मा गांधी समेत अन्य महापुरुषों की मूर्ति विस्थापन को मुद्दा बना दिया है। मजबूत विपक्ष आक्रामक है, ऊर्जा से लबरेज है और सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने का संदेश दे रहा है। मोदी को इस कार्यकाल में इस भारी-भरकम चुनौती से निपटना होगा।
फैसलों में दिखेंगी मजबूरियां
नरेंद्र मोदी पहली बार सहयोगी दलों के सहयोग से चलने वाली सरकार चलाने जा रहे हैं। भाजपा के पास बहुमत के आंकड़े से 32 सांसद कम हैं। टीडीपी और जद(यू) केवल दो दलों के सांसदों को मिलाकर लोकसभा में 28 होंगे। इसलिए दोनों दलों की एनडीए में सबसे ज्यादा अहमियत रहेगी और मोदी को हर क्षण ध्यान में रखना होगा कि वे इन दोनों सहयोगी दलों के बिना नहीं चल सकते। टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू व जेडीयू के नेता नीतीश कुमार अपने-अपने राज्यों के मुख्यमंत्री भी हैं। इसलिए ये अपने राज्यों के विकास कार्यों की सारी जिम्मेदारियां आने वाले दिनों में केंद्र सरकार पर ही डालते दिखेंगे। जब तक मोदी सरकार इन्हें मनचाही मदद देती रहेगी तब तक सब ठीक रहेगा। बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं।

नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले दो कार्यकालों में आरएसएस के एजेंडे हिन्दुत्व के मुद्दे को धार दी थी। उन्होंने अगले 100 दिन के सरकार के कामकाज का एजेंडा तैयार कर लिया था, लेकिन त्रिशंकु सरकार के चलते इसे बदलना पड़ेगा। अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के मुद्दे पर नरेन्द्र मोदी का अभी तक का रवैया सन्तुलित नहीं दिखाई दिया है। खासकर हालिया चुनावी रैलियों में मोदी ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री पद की गरिमा तक को धूमिल कर दिया। विपक्ष को उनकी शिकायत केंद्रीय चुनाव आयोग तक करनी पड़ी।
मोदी के अपने तीसरे कार्यकाल में इस विषय पर बहुत बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। वजह साफ है कि टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए यह विषय महत्वपूर्ण है। वे किसी भी सूरत में भाजपा को इसके लिए फ्री हैंड नहीं दे सकेंगे, नहीं तो उनकी राजनीतिक जमीन खिसक जाएगी। मोदी को कॉमन सिविल कोड, एनआरसी समेत तमाम मुद्दों पर एनडीए में ही आम सहमति बनाने में पसीने छूटेंगे।
अग्निवीर बनेगी अग्निपरीक्षा
भारतीय सेना में अग्निवीर भर्ती योजना लागू करते समय नरेन्द्र मोदी ने इसे परिवर्तनकारी बताया था। वे बिल्कुल सही थे, इस योजना ने परिवर्तन तो किया मगर ये परिवर्तन मोदी की आशा के बिल्कुल विपरीत हो गया। सेना में भर्ती होने के इच्छुक पूरे देश के युवा इस योजना के खिलाफ सड़कों पर आ गए और उन्होंने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए। मोदी और भाजपा ने इन युवाओं के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई और देश में पहली बार तीनों सेनाओं के प्रमुखों का राजनीतिक उपयोग किया गया। तीनों प्रमुखों ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके केंद्र सरकार द्वारा लागू की गई इस योजना के कसीदे पढ़े। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। सरकार द्वारा नजरअंदाज किये गए अग्निवीर योजना का विरोध करने वाले युवा थक हारकर शांत तो हो गए लेकिन उन्होंने अपनी भड़ास 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ वोट डालकर निकाली। उत्तरप्रदेश में भाजपा की पराजय का एक बड़ा कारण अग्निवीर योजना भी रही है। इस बार सत्ता में आई एनडीए में अग्निवीर को लेकर भारी विरोध हो रहा है। सहयोगी दल भाजपा पर इसकी समीक्षा का दबाव बना रहे हैं। प्रधानमंत्री को इस बारे में अनचाहा कठोर निर्णय लेना पड़ सकता है।
अंतरराष्ट्रीय समस्याएं और महंगाई
अगर वैश्विक परिदृश्य की बात करें तो इजराइल व फिलिस्तीन के बीच और रूस व यूक्रेन युद्ध जारी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था व व्यापार चुनौती के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में महंगाई का लगातार दबाव बना हुआ है। अमेरिका, चीन से संबध, यूरोप, यूरेशिया, मध्य एशिया का संतुलन साधना भी बड़ी चुनौती है। ऐसे में नरेन्द्र मोदी को भारत की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाई पर ले जाने के साथ-साथ तमाम अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों से जूझना पड़ेगा।
विपक्ष की एकजुटता बनेगी सिरदर्द
भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने से रोकने में सबसे महत्वपूर्ण कारक रहा है विपक्ष की एकजुटता। इंडिया गठबंधन की लामबंदी भाजपा से बेहतर रही और पिछले 10 साल की तुलना में उनमें गजब का उत्साह था। उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा में यह हर जगह दिखाई दिया। जहां भाजपा ने कुल 543 सीटों पर अकेले ही अपने 441 उम्मीदवार उतारे वहीं इंडिया एलायंस ने 466 सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ा और एक ही उम्मीदवार को उतारा। इसका फायदा इंडिया अलायंस को मिला इकट्ठा वोट शेयर मिला जो जीत में तब्दील हो गया।
भाजपा के मुकाबले इंडिया गठबंधन अपनी बातों को बेहतर तरीके से लोगों तक पहुंचा सका। उनके सामने उनका लक्ष्य स्पष्ट था कि उन्हें किसी भी तरीके से भाजपा को सरकार बनाने से रोकना है। अगर इंडिया गठबंधन की जुगलबंदी यूँ ही चलती रही तो भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी के आने वाले पांच साल कठिनाई भरे होंगे।
किसी भी बड़े फैसले को लेते समय उन्हें विपक्ष को विश्वास में लेना ही पड़ेगा। इस बार सरकार बगैर चर्चा कराए विधेयक पारित नहीं करा पाएगी। सदन में तीखी बहस होगी और विभिन्न मुद्दों पर प्रधानमंत्री से जवाब मांगा जाएगा। पहले की तरह ध्वनिमत से प्रस्ताव पास नहीं हो पाएंगे।
अभी तक यह होता रहा है कि नोटबन्दी हो या नए कृषि कानून या अग्निवीर योजना प्रधानमंत्री ने एलान कर दिया और काम हो गया। लेकिन अब संख्याबल उनके खिलाफ है हर बड़ा फैसला लेने से पहले उन्हें अच्छी तरह सोच विचार करना पड़ेगा और अपने लहजे की तल्खी कम करनी पड़ेगी। हो सकता है वो कई बार मजबूत नहीं बल्कि मजबूर प्रधानमंत्री नजर आएं।
प्रधानमंत्री को किसान कल्याण और कृषि, ग्रामीण विकास, रोजगार पर विशेष ध्यान देना होगा। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, बिहार में राजनीतिक-सामाजिक समीकरण भी नई चुनौती बने हैं। कुछ ही महीने बाद हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र, झारखंड समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। यहाँ भी नरेन्द्र मोदी की परीक्षा होगी कि क्या उनका तिलिस्म वाकई धराशायी हो गया है।
सच तो यह है कि नरेंद्र मोदी की पिछ्ली सरकारों में उनके बाक़ी मंत्री उनके कहे पर चलते थे, लेकिन अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गठबंधन सहयोगियों के दख़ल के साथ तालमेल बिठाना पड़ेगा। मोदी एक बड़े अच्छे वक्ता हैं, अभी तक यही मोदी की सबसे बड़ी ताक़त थी, लेकिन नई पारी में यही उनकी यही सबसे बड़ी कमज़ोरी साबित होगी।
चलते-चलते
2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को कुल 36.5 प्रतिशत वोट मिली जो कि 2019 के 37.7 प्रतिशत से केवल 1.2 प्रतिशत कम है। लेकिन इस 1.2 प्रतिशत वोटों की कमी ने भाजपा को 303 से 240 सीटों तक ला दिया। केवल 1.2 प्रतिशत वोटों की कमी से भाजपा को 63 सीटों का नुकसान हो गया।
इसी तरह कांग्रेस को 2024 में कुल 21.1 प्रतिशत वोट मिले जो कि 2019 के 19.6 प्रतिशत से केवल 1.5 प्रतिशत ज्यादा है। लेकिन इस 1.5 प्रतिशत ने कांग्रेस के सांसदों की संख्या 52 से 99 तक पहुंचा दी। केवल 1.5 वोटों से कांग्रेस को 47 सीटों का फायदा हो गया। इससे यह पता चलता है कि वोटों के प्रतिशत में थोड़ा सा ही स्विंग सीटों में कितना बड़ा उलटफेर कर सकता है। देश की जनता ने जिस तरह इस बार वोटिंग की है उससे एग्जिट पोल करने वाली एजेंसियों और सत्ताधारी दल को बुरी तरह धूल चटा दी है। जनता वाकई जनार्दन होती है।

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