यूपी में विपक्ष से अधिक वोट पाकर भी भाजपा नेतृत्व वाला एनडीए पिछड़ा
भाजपा को विपक्षी इंडिया ही नहीं, अकेले समाजवादी पार्टी से भी कम सीटें मिलीं
– डॉ. प्रभात ओझा, नई दिल्ली।
इस लोकसभा चुनाव परिणाम के कुछ आंकड़े गजब हैं। उत्तर प्रदेश में विपक्ष से अधिक वोट पाकर भी भाजपा नेतृत्व वाला एनडीए पिछड़ गया। उसे विपक्षी गठबंधन इंडिया से थोड़े ही सही, पर करीब 47 हजार ज्यादा वोट मिले। इंडिया को 03 करोड़ 81 लाख 60 हजार 235 मत मिले। इसके विपरीत एनडीए ने 03 करोड़ 82 लाख 07 हजार 930 वोट हासिल किए। भाजपा को विपक्षी इंडिया ही नहीं, अकेले समाजवादी पार्टी से भी कम सीटें मिलीं। उत्तर प्रदेश में बहुचर्चित नेता योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा नीत सरकार है। उधर कर्नाटक को देखें, जहां अपार बहुमत से कांग्रेस की सरकार है। इस आधार पर कांग्रेस निश्चिंत थी कि उसे लोकसभा चुनाव में भी अच्छी सफलता मिलेगी। इसके विपरीत कांग्रेस को मिली 09 सीटें भाजपा के 17 के मुकाबले काफी कम रह गईं। दो राज्य सिर्फ उदाहरण के लिए रखे गए हैं।
अजब-गजब बहुत से हैं। विश्लेषक काफी हद तक उत्तर प्रदेश को ही भाजपा की कम सीटें मिलने की जिम्मेदार बताते हैं। उधर मध्य प्रदेश है, जहां मतगणना के दिन मौसम खुशगवार हो गया था। बरसाती रिमझिम के बीच भाजपा के लिए राज्य का चुनाव परिणाम भी अनुकूल बन गया, जहां सभी की सभी सीटें उसने अपने नाम कर लीं। बीजेपी को दिल्ली (07), उत्तराखंड (05), हिमाचल प्रदेश (04) और त्रिपुरा (02) में भी सभी सीटों पर जीत मिली है।
चुनाव परिणाम के जो सच अब सामने हैं, उनमें मुख्य यह है कि भाजपा को 2019 के मुकाबले 63 सीटें कम मिलीं। पिछली बार के 303 की जगह इस बार उसके पास 240 सांसद ही हैं। दूसरी ओर कांग्रेस 100 तक नहीं पहुंच पायी। वह 99 पर रहकर भी खुश है कि पिछली बार के 52 की स्थिति उसने बदल दी है। अलग बात है कि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतराव पाटिल के पौत्र और पार्टी से बगावत कर निर्दल चुनाव लड़े और जीते विशाल पाटिल के फिर से साथ आने के बाद यह संख्या 100 हो गई है। संभव है कि बिहार के पप्पू यादव को भी साथ लेकर पार्टी 100 के पार निकली दिखाई दे। कांग्रेस को लोकसभा में इस बार नेता प्रतिपक्ष का आधिकारिक दर्जा मिल जाएगा। एक सच यह भी है कि समाजवादी पार्टी के सांसद 37 तक पहुंच गए हैं। सपा 2019 में बसपा से समझौता कर बसपा के 10 की जगह सिर्फ 05 सांसद जिता पायी थी। इस बार कांग्रेस से मिलकर उत्तर प्रदेश में उसके सांसदों की संख्या सात गुने से भी अधिक बढ़ गयी। कांग्रेस के यूपी में 06 सांसद जीत कर आए हैं। पश्चिम बंगाल जहां भाजपा बेहतर करने की उम्मीद में थी, तृणमूल कांग्रेस के 29 के मुकाबले सिर्फ 11 सीटें हासिल कर पाई है। यूपी और पश्चिम बंगाल की तरह महाराष्ट्र और राजस्थान में भी भाजपा को झटके लगे हैं। इन राज्यों में पार्टी कहीं बहुत अधिक की मान कर चल रही थी। महाराष्ट्र में पार्टी को सिर्फ 09 सीटें मिलीं। पिछली बार भाजपा ने महाराष्ट्र से 23 सीटें जीती थीं। भाजपा की सहयोगी शिवसेना (शिंदे) को 07 और एनसीपी (अजित) को सिर्फ एक सीट मिली। इस तरह भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए को महाराष्ट्र में 48 में से सिर्फ 17 सीटें ही मिल सकीं। राजस्थान में पिछले दो लोकसभा चुनाव 2014 और 2019 में भाजपा ने सभी 25 क्षेत्रों में जीत हासिल की थी। इस बार उसके सांसदों की संख्या घटकर सिर्फ 14 रह गई।
रणनीति के तहत बनाया लक्ष्य
अबकी बार 400 पार का भाजपा का नारा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया था। इससे यह हुआ कि विपक्षी पार्टियों के साथ आम आदमी भी बीजेपी के इस लक्ष्य के पूरा होने अथवा नहीं होने की बहस में उलझे रहे। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि इससे पार्टी कार्यकर्ता और भाजपा के मतदाताओं में मतदान के प्रति उदासीनता फैली। वे मानकर चलने लगे कि उनके नहीं लगने पर भी पार्टी को कोई नुकसान नहीं होने जा रहा है। इस तरह कम मतदान पार्टी के हक में नहीं रहा। यह जरूर हुआ कि भाजपा बहुमत से दूर होते हुए भी ‘चुनाव पूर्व गठबंधन’ को बहुमत के सिद्धांत पर सरकार बनाने में सफल रही। इस तरह का गठबंधन बीजेपी ने नरेंद्र मोदी की अगुवाई में 2014 से ही बनाया है। इस ‘गठबंधन धर्म’ का पालन प्रधानमंत्री ने पिछले दोनों निर्वाचन के बाद भी किया, जब भाजपा को अकेले दम पर बहुमत हासिल हुआ था पिछली दोनों सरकार में साथी दलों के प्रति सदाशयता की क्रेडिट काम आयी। मोदी ने पिछली दोनों सरकारों में साथी दलों के भी मंत्री बनाए। उससे अबकी बार भी साथी पार्टियों ने सहज ही मोदी के नेतृत्व पर एकदम से मंजूरी दे दी। इसके पहले चुनाव प्रचार के दौरान कुछ ऐसे घटनाक्रम बने, जो सत्तारूढ़ और विपक्ष, दोनों के लिए निर्णायक सिद्ध हुए।
संविधान बदलने का मुद्दा
चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के कुछ नेताओं ने अपने बयान में खुलकर अथवा संकेतों में संविधान में बदलाव की संभावना जताई। ऐसे नेताओं में अनंत हेगड़े, लल्लू सिंह, ज्योति मिर्धा और हिमंत बिस्व सरमा शामिल रहे। इनमें हिमंत बिस्व सरमा असम के मुख्यमंत्री हैं और उन्होंने खुद लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा। बिस्व सरमा ने कहा था कि बीजेपी के लोकसभा में 400 पार पहुंचने पर मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान और काशी में ज्ञानवापी मस्जिद के स्थान पर भव्य मंदिर बनाए जाएंगे। असम के सीएम ने यह भी जोड़ा था कि पूरे देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने के लिए एनडीए को 400 से अधिक सांसद लाने होंगे। कर्नाटक की उत्तर कन्नड़ सीट से छह बार सांसद अनंत हेगड़े ने संविधान बदलने के लिए लोकसभा में 400 सीटों की जरूरत बताई थी। भाजपा नेतृत्व ने इस बार उन्हें टिकट ही नहीं दिया। राजस्थान की नागौर से बीजेपी उम्मीदवार ज्योति मिर्धा ने भी एक रैली में कुछ कठोर फैसलों के लिए 400 सीटों पर जीत जरूरी बताया था। वे हनुमान बेनीवाल से चुनाव हार गईं। इसी तरह से नया संविधान बनाने के लिए बीजेपी को दो तिहाई बहुमत जरूरी बताने वाले लल्लू सिंह भी फैजाबाद से चुनाव हार गये।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने नेताओं के संविधान बदलने सम्बंधी बयानों का प्रतिकार किया। दूसरी ओर विपक्ष, खासकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी रैलियों के दौरान हाथ में संविधान की संक्षिप्त प्रति लेकर बोलते रहे कि संविधान बचाने के लिए भाजपा को हराना आवश्यक है। उन्होंने लगभग हर बार कहा कि दबे-कुचलों का आरक्षण बचाने के लिए बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का बनाया संविधान बचाना कांग्रेस का लक्ष्य है। उत्तर प्रदेश में सपा नेता अखिलेश यादव ने भी इसी तरह के बयान दिए। इस तरह चुनाव में संविधान भी प्रचार का जरिया बना और यह किसी के हक में तो किसी के विरोध में गया।
जातीय जनगणना का सवाल
यह भी खूब रही कि जो नीतीश कुमार बाद में भाजपा के साथ गठबंधन में आ गए, उन्होंने इसके पहले आरजेडी के तेजस्वी यादव के साथ वाली सरकार में बिहार में जातीय जनगणना कराई। वहीं भाजपा पहले तो दबे स्वर में इसके साथ दिखी, पर बाद में चुप हो गई। दूसरी ओर राहुल गांधी, बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जातीय कार्ड खूब खेला। इस तरह विपक्ष ने ओबीसी को एकजुट किया। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आक्रामक भाषणों में यहां तक कहा कि विपक्ष पिछड़ों के आरक्षण को मुसलमानों में बांटना चाहता है। मोदी ने कर्नाटक का उदाहरण दिया और कहा कि वहां कांग्रेस सरकार बनते ही यह प्रक्रिया शुरू कर दी गई। इससे कुछ जगहों पर भाजपा को गैर मुस्लिम मतों का लाभ मिला, तो कुछ पर विपक्ष ओबीसी को एकजुट करने में सफल रहा।
बसपा ने खेल बिगाड़ा
बहुजन समाज पार्टी इस बार जोरशोर से चुनाव लड़कर अपना भले ही फायदा न कर पायी हो, भाजपा के साथ उसने विपक्ष का भी खेल बिगाड़ा। बहुजन समाज पार्टी मुख्यतया उत्तर प्रदेश के चुनावी परिदृश्य में थी। इस बार उसने बड़ी संख्या में मुसलमान और अन्य दलित प्रत्याशी मैदान में उतारे। हालांकि उसका कोई भी उम्मीदवार जीत नहीं सका। आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी और उसके समर्थन वाले कांग्रेस उम्मीदवारों को ही वोट देना ठीक समझा। बाद में मायावती ने यह बयान भी दिया कि आगे से मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने से पहले उन्हें सोचना होगा। इस बार के लोकसभा चुनावों में बसपा का वोट प्रतिशत 2.07 रह गया। यह 2019 में 3.67 प्रतिशत था। इस तरह उसका वोट प्रतिशत भी 1.6% कम हो गया। विश्लेषकों ने बताया है कि उत्तर प्रदेश की कम से कम 16 सीटों पर बसपा ने लाभ-हानि पहुंचाने का काम किया।
राम मंदिर और महंगाई
इस वर्ष 22 जनवरी को भव्य राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को भाजपा ने अपने पक्ष में समझा और हिंदुत्व की लहर पर चुनाव जीतने का प्रयास किया। यह मसला धीरे-धीरे धूमिल पड़ता गया, जिसे समझने में भाजपा के रणनीतिकारों को देर लगी। परिणामस्वरूप जहां राम मंदिर मौजूद है, उत्तर प्रदेश में ही भारतीय जनता पार्टी पिछली बार के मुकाबले काफी अधिक पिछड़ गई।
राहुल संग विपक्ष एकजुट
इस चुनाव के संदर्भ में राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को भी एक कारक कहा जा सकता है। इस यात्रा से राहुल की छवि बदली और साख में इजाफा हुआ। उन्होंने विभिन्न प्रदेशों में स्थानीय मुद्दों को समझा। किसानों, मजदूरों, महिलाओं, युवाओं से मिले अनुभव को उन्होंने सभाओं में बताया। बदले में 100 न सही, कांग्रेस पिछली बार के 52 को मुकाबले इस बार 99 सांसदों तक पहुंची। यह भी देखने लायक है कि विपक्ष के बाकी नेता भी प्राणपण से चुनाव में जुटे। तथ्य है कि पिछले पांच साल में कई दलों के नेता भ्रष्टाचार में लिप्त दिखे। इस आरोप में उन्हें जेल जाना पड़ा। परिणाम यह हुआ कि सभी एकजुट हुए। उदाहरण के लिए आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भले ही दिल्ली में कोई उम्मीदवार जिता नहीं पाए,मतदाताओं में यह बात डाल गए कि भाजपा में 75 साल की वय में रिटायरमेंट के अपने ही बनाये नियम पर मोदी आगे क्या करेंगे।
कुल मिलाकर मतदाताओं को अपनी-अपनी बात समझाने के सभी के अपने तरीके थे। योजना के अनुसार दोनों पक्षों ने काम किया। कहीं स्पष्ट तस्वीर बनी, तो कहीं भ्रम बना रहा। परिणाम यह रहा कि 10 साल तक गठबंधन में रहकर भी अकेले बहुमत में रहने वाली भाजपा अब गठबंधन के ही सहारे है। लोकसभा में आधिकारिक तौर पर 10 साल तक नेता प्रतिपक्ष की खाली कुर्सी पर अब कोई बैठा दिखेगा। पहले की ही तरह देश की जनता यह देखेगी की पक्ष अथवा विपक्ष में उसने जिस नेता को सांसद बनाया है, वह क्या कर रहा है। फिलहाल तो हर दल कुछ जीत, कुछ हार के भंवर में ही है।