अतुल मलिकराम
क्या हमारे लिए अपना पूरा जीवन दाँव पर लगा देने वाले वरिष्ठ नागरिकों का हमारी नज़रों में कोई मूल्य नहीं?
कुछ दिन पहले की बात है, मैं अपने घर से बाहर गली में टहल रहा था, मैं क्या देखता हूँ कि एक बुजुर्ग सज्जन सड़क के बीच कैंडी बेच रहे हैं, जो ठीक से चल भी नहीं पा रहे हैं। टेका लेकर चलने में एक छड़ी उनकी मदद कर रही थी। चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लग रहा था। मैं भीतर तक हिल गया, जब मुझे याद आया कि वे कौन हैं। वे हाई स्कूल के समय के मेरे गणित के शिक्षक थे। उन्हें इस हालत में देखकर मुझे गहरा सदमा लगा। मैं उसके पास गया और जैसे ही मैंने अपना परिचय दिया, उनके चेहरे के गंभीर भाव धीरे-धीरे बदलने लगे, और एक फीकी-सी मुस्कान उनके चेहरे पर दिखी। मेरे भीतर उसके साथ अधिक समय बिताने के लिए उत्सुकता काफी बढ़ गई और मैंने उन्हें सुझाव दिया कि हम पास के पार्क में थोड़ी देर साथ बैठते हैं। मैंने उन्हें सबसे पास वाली बेंच तक पहुँचने में मदद की और हम बैठ गए। शुरुआत में कुछ अनौपचारिक बातचीत के बाद, मेरी जिज्ञासा मुझ पर हावी हो गई और मैं पूछने से खुद को नहीं रोक सका, “सर, क्या वजह है, जो आप इस हाल में हैं?”
मेरा प्रश्न सुनते ही उनके चेहरे के भाव एक बार फिर बदलने में क्षण भर का भी समय नहीं लगा, इस बार उनके झुर्रीदार चेहरे पर गहरी उदासी छा गई। उन्होंने मुझे बताया कि मुझे और मेरी पत्नी को कुछ वर्ष पहले एक दुर्घटना का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप मेरा एक पैर टूट गया और मेरी पत्नी की दर्दनाक मृत्यु हो गई। पत्नी के निधन के बाद, कुछ समय तक तो मेरे दोनों बेटे मेरे साथ ही रहे, लेकिन एक-एक करके कुछ समय बाद दोनों विदेश वापस लौट गए। मैंने अपनी अधिकांश बचत अपने बेटों को सर्वश्रेष्ठ शिक्षा अर्जित करने और उन्हें विदेश भेजने में लगा दी थी। जो थोड़ा-बहुत पैसा बचा था, सो वह दैनिक जीवन के भरण-पोषण में लगता चला गया।
हालाँकि, पेंशन या बीमा पर भरोसा न करने के कारण, मेरी बचत कुछ ही समय में शून्य में तब्दील हो गई, जिसकी वजह से मैं भर पेट भोजन पाने के लिए भी मोहताज हो गया। जब मदद के लिए अपने बेटों से बात की और अपनी गंभीर परिस्थितियों के बारे में उन्हें बताया, तो उन्होंने कई तरह के बहाने बनाकर मुझसे जैसे किनारा ही कर लिया। कोई अन्य विकल्प न होने पर, पेट पालने के लिए जो कुछ भी कर सकता था, वह किया। दैनिक जरूरतें ही तो पूरी करना हैं, इसलिए मामूली आय के रूप में सड़कों पर घूम-घूमकर कैंडी बेचकर अपना गुजरा कर रहा हूँ। बच्चे जब मुझे देखते ही भागते हुए मेरे पास आ जाते हैं, तो मन को कुछ ऐसा सुकून मिल जाता है, जैसे अपने पोते-पोतियों से मिलने का मौका मिल गया हो। मेरे जीने और मुस्कुराने की सबसे बड़ी वजह ही ये बच्चे बन गए हैं।
उनकी कहानी ने मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया। उस दिन मैंने यह महसूस किया कि वे इस दुर्दशा से अकेले नहीं जूझ रहे हैं। देश में ऐसे अनगिनत बुजुर्ग व्यक्ति हैं, जिन्हें अपने अंतिम दिनों में इसी तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वो बच्चे, जिनका जीवन बेहतर बनाने के लिए माता-पिता अपने जीवन का सुख-चैन तक हँसी-खुशी न्यौंछावर कर देते हैं, उनकी बेहतर परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ते, जो वे नहीं कर पाए, उनके बच्चे सब करें, ऐसी सोच रखते हैं, उन माता-पिता को समय आने पर अपने ही बच्चों से सिवाए धुत्कार कुछ नहीं मिलता। उम्र के अंतिम पड़ाव पर आकर उनके अपनों और यहाँ तक कि सरकारों द्वारा भी मौत के भरोसे छोड़ दिया जाता है, हाँ वही सरकार, जो सम्मानजनक जीवन के खोखले वादे करती है।
क्या उम्र बढ़ जाने से किसी व्यक्ति का मोल कम हो जाता है? क्या हमारा मोल सिर्फ भौतिक सुख-सुविधाओं से ही मापा जाता है? यदि हमारे युग की गंभीर वास्तविकता यही है, तो क्या इसका मतलब यह है कि 60 की उम्र पार करने के बाद बुजुर्ग पैसा खर्च करने के लायक नहीं हैं? या फिर इस उम्र में उनके कोई खर्चे ही नहीं होते हैं? कोई स्पष्ट तो करे कि इसे समझा क्या जाए? ऐसे हजारों प्रश्न हमारे समाज में बुजुर्ग नागरिकों के प्रति व्यवहार को चुनौती देते हैं और हमें अपनी प्राथमिकताओं का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए प्रेरित करते हैं।
कुछ समय पहले, माननीय राज्यसभा सांसद जया बच्चन जी द्वारा एक महत्वपूर्ण बहस छेड़ी गई थी, जिसमें उन्होंने भावुक भाषण देते हुए कहा कि सरकार को 65 वर्ष की आयु तक पहुँचने के बाद वरिष्ठ नागरिकों को अनिवार्य रूप से मार डालना चाहिए, क्योंकि सरकार उन पर ध्यान ही नहीं दे रही है। इसके अलावा, उन्होंने वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए कुछ विशेष अधिकारों की माँग की। हालाँकि, यह बयान सुनने और देखने में उत्तेजक प्रतीत हो सकता है, लेकिन यह भारत की बुजुर्ग आबादी द्वारा सामना किए जाने वाले कुछ बेहद गंभीर मुद्दों पर प्रकाश डालता है। ऐसा लगता है कि भारत में वरिष्ठ नागरिक न सिर्फ अपनों, बल्कि दूसरों को भी बोझ लगने लगे हैं। जीवन का सबसे अधिक तजुर्बा होने और हमें श्रेष्ठ जीवन देने के नाते उन्हें जो हकीकत में सम्मान और देखभाल मिलनी चाहिए, अब वह मॉडर्न ज़माने में कहीं गुम हो गई है। नई दुनिया के ढकोसलों की चपेट में आकर शायद हम उनके अधिकारों को भूल बैठे हैं।
भारत में वरिष्ठ नागरिकों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। 70 वर्ष की आयु के बाद उन्हें चिकित्सा बीमा से वंचित कर दिया जाता है। यह सबसे बड़े कारणों में से एक है कि उनकी उम्र बढ़ने के साथ-साथ स्वास्थ्य सेवा उनकी पहुँच से बाहर होती जाती है। इतना ही नहीं, लोन और ड्राइविंग लाइसेंस तक पहुँच को भी प्रतिबंधित कर दिया जाता है, जिससे उनकी स्वतंत्रता आपो-आप ही सीमित हो जाती है। बात यहीं आकर खत्म नहीं होती, सरकार को आजीवन भर-भर कर टैक्स और प्रीमियम्स देने और समाज में तमाम तरह के योगदान देने के बावजूद उनके लिए रोजगार के अवसर कम ही हैं, जिससे वे आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं।
यदि हम अब भी नहीं पहचान सकें कि वरिष्ठ नागरिक समाज के लिए एक अमूल्य संपत्ति हैं, तो बहुत देर हो जाएगी। वे ज्ञान, मार्गदर्शन और हमारी विरासत से हमें जोड़कर रखने का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम हैं। वे हमारे समाज के नैतिक ढाँचे को आकार देने में मदद करते हैं और परंपराओं को आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं।
सरकार को चाहिए कि वह देश के वरिष्ठ नागरिकों की भलाई को प्राथमिकता दे। वे पूरे देश से समर्थन के पात्र हैं, जिसमें पेंशन, यात्रा रियायतें, सरकारी सहायता के साथ अनिवार्य बीमा और कानूनी मामलों का तुरंत समाधान शामिल है। प्रत्येक शहर में आवास के माध्यम से आवश्यक सुविधाओं के साथ वरिष्ठ नागरिकों की जरूरतों को पूरा किया जा सकता है और समुदाय की भावना को बढ़ावा दिया जा सकता है।
संक्षेप में, यह जरूरी है कि हम वरिष्ठ नागरिकों के उस अपार मूल्य को स्वीकार करें, जो वे हमारे समाज में लाते हैं और उन्हें वह देखभाल, सम्मान और समर्थन प्रदान करें, जिसके वे उचित हकदार हैं, क्योंकि उन्होंने अपना पूरा जीवन हमारी देखभाल करने में बिता दिया है, इसलिए अब बारी हमारी है।