सुभाष गाताडे
लोकसभा चुनाव के प्रचार में कई भाजपा नेता संविधान बदलने के लिए बहुमत हासिल करने की बात दोहरा चुके हैं। उनके ये बयान नए नहीं हैं, बल्कि संघ परिवार के उनके पूर्वजों द्वारा भारतीय संविधान के प्रति समय-समय पर ज़ाहिर किए गए ऐतराज़ और इसे बदलने की इच्छा की तस्दीक करते हैं।
कुछ तारीखें हर जम्हूरियत की तवारीख में सदा के लिए अंकित हो जाती हैं। 6 दिसंबर 1992 ऐसी ही एक तारीख है। इस घटना के तीन सप्ताह के अंदर दिल्ली में एक प्रेस सम्मेलन हुआ था। 25 दिसंबर 1992 को स्वामी मुक्तानंद और वामदेव महाराज, जो राम मंदिर आंदोलन से क़रीब से जुड़े थे, उन्होंने मौजूदा संविधान को बदलने की बात छेड़ दी और कहा कि यह संविधान ‘हिंदू विरोधी है’। (इंडिया टुडे, 31 जनवरी 1993 )
एक सप्ताह बाद 1 जनवरी 1993 को स्वामी मुक्तानंद के नाम से हिंदूवादी संगठनों की तरफ से एक श्वेत पत्र जारी किया गया, जिसमें भारतीय संविधान को ‘हिंदू विरोधी’ घोषित किया गया था। श्वेत पत्र के कवर पेज पर दो प्रश्न पूछे गए थे : एक, ‘भारत की एकता, बंधुत्व और सांप्रदायिक सद्भाव को नष्ट किसने किया?’ और ‘किसने भुखमरी, गरीबी, भ्रष्टाचार और अधर्म फैलाया?’
श्वेत पत्र का शीर्षक इस प्रश्न का जवाब दे रहा था, ‘वर्तमान इंडियन संविधान’! इस श्वेत पत्र की प्रस्तावना स्वामी हीरानंद ने लिखी थी, जिसमें यह लिखा था कि “भारत का संविधान यहां की संस्कृति, चरित्र, परिस्थिति आदि के विपरीत है, वह विदेशोन्मुखी है।” इस प्रस्तावना ने न केवल संविधान को ‘खारिज करने की’ बात की थी, बल्कि यह भी जोर देकर कहा था कि “दो सौ साल की ब्रिटिश हुकूमत ने जितना भारत का नुकसान किया, उससे अधिक नुकसान भारत के संविधान ने किया है।”
इस श्वेत पत्र पर सबसे पहली प्रतिक्रिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया की तरफ से आई थी। 14 जनवरी 1993 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में उन्होंने लिखा था : “वर्तमान विवाद की जड़ों को आंशिक तौर पर हम असली भारत की जरूरतें, उसकी परंपरा, मूल्यों को संबोधित कर पाने में हमारी व्यवस्था की कमियों में देख सकते हैं … इस मुल्क की कुछ विशेषताओं को संविधान में प्रतिबिंबित होना चाहिए था, ‘इंडिया दैट इज भारत’ की जगह ‘भारत दैट इज हिंदुस्तान’ कहना चाहिए था। आधिकारिक दस्तावेज भारत में ‘साझी संस्कृति’ की बात करते हैं, मगर यहां कोई ‘साझी संस्कृति नहीं’ है. …संविधान में बदलाव निहायत जरूरी हैं. एक ऐसा संविधान अपनाना चाहिए, जो यहां के इथॉस (लोकाचार/संस्कार) और प्रतिभा के अनुकूल हो।”
यह न पहला मौका था और न आखिरी, जब संघ ने संविधान पर सवाल उठाए थे और भारतीय संस्कृति में रचे-बसे संविधान को बनाने की बात की थी।
गौर करें, 2024 के संसदीय चुनाव के दौरान कई भाजपा सदस्यों ने संविधान बदलने की बात कही है। मौजूदा संविधान को खारिज करने और भारतीय पहचान के आधार पर नया संविधान बनाने की बात करने में भाजपा का पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा आगे रहा है।
जब 1949 नवंबर में संविधान सभा ने भारत के संविधान पर अपनी मुहर लगाई, उसके सिर्फ तीन दिन बाद ‘ऑर्गनाइज़र’ ने अपने संपादकीय में मनुस्मृति की हिमायत करते हुए संविधान की तीखी आलोचना की थी :
“हमारे संविधान में प्राचीन भारत के विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुकस या पर्शिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गई थी। आज तक इस विधि की, जो ‘मनु स्मृति’ में उल्लिखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।” (ऑर्गनाइज़र, 30 नवंबर 1949, पेज 3)
मनु की किताब को स्वाधीन भारत की सरजमीं पर लागू करने की मांग सिर्फ ‘ऑर्गनाइज़र’ ने नहीं उठाई थी, विनायक दामोदर सावरकर भी इस किताब को भारतीय कानून की नींव बतौर देखते थे। ‘मनुस्मृति में स्त्रियां’ नामक लेख में वह लिखते हैं: “मनुस्मृति वह ग्रंथ है, जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक व्यवहार्य है और जो प्राचीन समय से हमारी संस्कृति, रिवाजों, चिंतन और व्यवहार का आधार रहा है। हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक और दैवी यात्रा को उसी ने सदियों से संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपनी जिंदगियों में और आचरण में जिन नियमों का पालन किया जाता है, वह मनुस्मृति पर आधारित है। आज मनुस्मृति ही हिंदू कानून है।”
*हिंदू कोड बिल का संघर्ष*
जब डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल के माध्यम से हिंदू स्त्रियों को पहली दफा संपत्ति और तलाक के मामले में अधिकार दिलाने की बात की थी, तब कांग्रेस के अंदर के रूढ़िवादी धड़े से लेकर हिंदूवादी संगठनों ने उनकी मुखालिफत की थी, उसे हिंदू संस्कृति पर हमला बताते हुए उनके घर तक जुलूस निकाले गए थे।
सरसंघचालक एम एस गोलवलकर ने उन दिनों लिखा था : “जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए तथा इस संतोष में भी नहीं रहना चाहिए कि हिंदू कोड बिल का खतरा समाप्त हो गया है। वह खतरा अभी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है, जो पिछले द्वार से उनके जीवन में प्रवेश कर उनकी जीवन की शक्ति को खा जाएगा। यह खतरा उस भयानक सर्प के सदृश है, जो अपने विषैले दांत से दंश करने के लिए अंधेरे में ताक लगाए बैठा हो।” (श्री गुरुजी समग्र : खंड 6, पेज 64 , युगाब्द)
इतिहास में पहली बार इस बिल के जरिये विधवा को और बेटी को बेटे के समान संपत्ति के अधिकार दिलाने, एक जालिम पति को तलाक देने का अधिकार पत्नी को दिलाने, दूसरी शादी करने से पति को रोकने, अलग-अलग जातियों के पुरुष और स्त्री को हिंदू कानून के अंतर्गत विवाह करने और एक हिंदू जोड़े के लिए दूसरी जाति में जन्मे बच्चे को गोद लेने आदि बातें प्रस्तावित की गई थीं।
लेकिन हिंदुत्व के कई पैरोकार न सिर्फ़ इस बिल का विरोध कर रहे थे, वे दलितों और आदिवासियों के कल्याण और सशक्तिकरण के लिए नवस्वाधीन मुल्क द्वारा लिए गए सकारात्मक कार्रवाई (affirmative action programme) के प्रति भी अपनी असहमति दर्ज करा रहे थे कि इसके जरिये शासक वर्ग हिंदू सामाजिक एकता की जड़ों पर चोट कर रहे हैं और अतीत में जिस सद्भावपूर्ण माहौल में हिंदू धर्म के तमाम संप्रदाय एक पहचान की भावना के तहत रहते थे, उस भावना को चोट पहुंचाई जा रही है। वे इस बात से इंकार कर रहे थे कि निम्न जातियों की दुर्दशा के लिए हिंदू समाज व्यवस्था जिम्मेदार है, और संवैधानिक प्रावधानों को आपसी वैमनस्य बढ़ाने के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे थे।
भारत के संविधान ने रेखांकित किया था कि यह किसी धर्म विशेष का मुल्क नहीं है, यह उन सभी का मुल्क है — जो किसी भी जाति, संप्रदाय या धर्म के हों — जो यहां रहते आए हैं। भारत की इस संकल्पना के प्रति संघ का ऐतराज छिपा नहीं था।
14 अगस्त 1947 को आज़ादी की पूर्व-संध्या पर इस साझे मुल्क की प्रस्तावना को सिरे से खारिज करते हुए ‘ऑर्गनाइज़र’ में एक लेख छपा था : “हमें झूठे राष्ट्रवाद के विचार से खुद को प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। (समाज में व्याप्त) अधिकांश शंकायें और वर्तमान व भविष्य की समस्याएं बस इस तथ्य को स्वीकार करने से दूर हो सकती हैं कि हिंदुस्तान में केवल हिंदू ही राष्ट्र का प्रतीक हैं और राष्ट्रीय ढांचे का निर्माण इसी सुरक्षित और मज़बूत नींव पर हो सकता है। राष्ट्र का निर्माण हिंदुओं, हिंदू परंपराओं, संस्कृति, विचारों और महत्त्वाकांक्षाओं से होना चाहिए।”
संविधान द्वारा बनाए गए संघीय ढांचे पर भी संघ ने जबरदस्त हमला बोला था. वर्ष 1961 में राष्ट्रीय एकीकरण परिषद का पहला सम्मेलन हुआ था, जिसे भेजे गए अपने संदेश में संघ सुप्रीमो एमएस गोलवलकर ने कहा था : “मौजूदा सरकार का संघीय ढांचा अलगाववाद की भावना को न केवल पैदा करता है, बल्कि उसे बढ़ावा भी देता है, एक तरह से वह एक राष्ट्र की हकीकत को देखने से इनकार करता है और उसे नष्ट करता है। जरूरत इस बात की है कि उसे (संघीय ढाँचे को) जड़ से समाप्त किया जाए, संविधान का शुद्धिकरण किया जाए और एकात्मक (यूनिटरी) किस्म की सरकार को स्थापित किया जाए।” (श्रीगुरुजी समग्र, पेज 128, खंड 3)
संविधान बदलने की जरूरत को लेकर भाजपा नेताओं के बयान को इस रोशनी में समझना चाहिए। जब वे कहते हैं कि संविधान में विकृतियां हैं और उन्हें दूर करना चाहिए, वे अपने पूर्वजों के विचारों को जुबां दे रहे होते हैं।
(सुभाष गाताडे हिंदी और मराठी के जाने माने लेखक-पत्रकार, अनुवादक और सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। )