आलेख : राजेंद्र शर्मा
चुनाव के इकतरफा होने की संभावनाओं में गिरावट का यह रुझान देशव्यापी है। लेकिन, इसके साथ यह और जोड़ दें कि यह देशव्यापी रुझान सिर्फ इस पहले चरण तक ही सीमित रहे और आगे पलट जाए, इसके आसार भी कम ही हैं। 2019 और 2014 के भी चुनाव के मतदान के आंकड़ों का विश्लेषण यही दिखाता है कि पहले चरण में सामने आया रुझान, पूरे चुनाव के ही रुझान की बानगी पेश कर देता है।
हैरानी की बात नहीं है कि लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान से निकला एक आम तौर पर चिंताजनक रुझान आश्चर्यजनक तरीके से चर्चा से प्राय: दूर ही बना रहा है। हमारा इशारा इस तथ्य की ओर है कि 19 अप्रैल को हुए पहले चरण के चुनाव में, मतदान का प्रतिशत कुल 65.5 फीसद के करीब रहा है, जो कि 2019 के चुनाव के मुकाबले लगभग 4 फीसद गिरावट को दिखाता है। बेशक, चुनाव आयोग द्वारा पहले चरण के मतदान के अनुपात के अंतिम आंकड़े दिए जाने का अभी इंतजार ही हो रहा है, फिर भी चूंकि उक्त कच्चे आंकड़े खुद चुनावी मशीनरी से ही निकले हैं, अंतिम आंकड़ों के मत फीसद में गिरावट के इस रुझान को नकार ही देने की संभावनाएं नहीं के बराबर हैं। याद रहे कि आम चुनाव का यह पहला चरण, करीब पौने दो महीनों में फैली समूची चुनावी प्रक्रिया का, सबसे बड़ा चरण था, जिसमें देश भर में फैले 21 राज्यों तथा केंद्र शासित क्षेत्रों में, कुल 102 लोकसभा सीटों पर वोट पड़े थे। अब तक प्राप्त जानकारियों के अनुसार, इनमें से 19 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में मतदान का फीसद, 2019 के मुकाबले गिरावट पर रहा है, जो स्पष्ट रूप से इस रुझान के देशव्यापी होने का संकेत करता है। छत्तीसगढ़ तथा मेघालय ही गिरावट के इस रुझान के अपवाद रहे हैं।
इस महत्वपूर्ण रुझान के चर्चा से लगभग बाहर ही बनेे रहने के कारणों का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। किसी भी तरह से क्यों न देखा जाए, यह रुझान अब की बार चार सौ पार के सत्ताधारी गठजोड़ के प्रचार-दावों की तेजी से हवा निकालता नजर आता है। आखिर, इस गिरावट से कम-से-९कम यह स्वयंसिद्घ है कि इस चुनाव में कोई उस तरह की इकतरफा लहर तो है ही नहीं, जिसके बिना सत्ताधारी पार्टी कुल 543 सीटों में से चार सौ पार तो किसी तरह कर ही नहीं सकती है। सबसे बढ़कर इसी अंतर्निहित संकेत के चलते, मुख्यधारा के मीडिया पर अपने लगभग पूर्ण नियंत्रण के सहारे, सत्ताधारी संघ-भाजपा ने इस रुझान की चर्चा को दबा ही दिया है।
लेकिन, मतदान अनुपात में गिरावट के इस रुझान का अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं कि अब की बार चार सौ पार के नारे, कोरे प्रचार जुमलों के सिवा और कुछ नहीं हैं, जिन्हें मनौवैज्ञानिक प्रचार युद्घ के हिस्से के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। दूसरी ओर, यह रुझान इसकी कल्पनाओं पर भी अंकुश लगाता है कि सत्ताधारी गठजोड़ के खिलाफ जन विक्षोभ की कोई ऐसी आंधी चल रही है, जो चुनाव में उसका सफाया कर देने वाली हो। कम-से-कम ऐसा कोई अनुमान, मत फीसद में इस गिरावट की संगति में नहीं होगा। वास्तव में सामान्य तौर पर तो मतदान के अनुपात मेें बढ़ोतरी को ही, किसी सत्ताविरोधी लहर की संभावना का इशारा समझा जाता है। लेकिन, मत फीसद में गिरावट को उसी प्रकार, सत्ता-समर्थक रुझान का संकेतक नहीं माना जाता है। उक्त दो अतियों के नकार के दायरे में, इस गिरावट के कहीं जटिल संकेत बनते हैं।
इन संकेतों में काफी स्थानीय भिन्नताएं भी होंगी। मिसाल के तौर तमिलनाडु में, जहां पुदुच्चेरी की एक सीट को मिलाकर, कुल 40 सीटों में से अधिकांश पर द्रमुक के नेतृत्ववाले वर्तमान सत्ताधारी मोर्चे का कब्जा है और उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी अन्नाद्रमुक में पिछले आम चुनाव के बाद के दौर में गंभीर विभाजन हो चुका है और उसके साथ गठजोड़ टूटने के बाद भाजपा, कुछ और छोटी पार्टियों को साथ लेकर, काफी पीछे तीसरा खिलाड़ी बनने की कोशिश कर रही है, मत फीसद में 2019 के आम चुनाव के मुकाबले लगभग 3 फीसद की गिरावट के, चुनाव के नतीजों को एक प्रकार से तयशुदा मानने से पैदा होने वाली उत्साह और उत्सुकता की कमी का ही इशारा होने की ही संभावनाएं ज्यादा हैं। दूसरी ओर, राजस्थान में और उत्तराखंड में भी देखने को मिली 6 फीसद के करीब गिरावट, वहां 2019 में सभी सीटें जीतने वाली भाजपा के जनसमर्थन में गिरावट और इसके चलते चुनावी हवा उसके प्रतिकूल होने की संकेतक हो सकती है।
बहरहाल, जैसा कि हमने शुरू में ही कहा है, मत फीसद में गिरावट और इसलिए, चुनाव के इकतरफा होने की संभावनाओं में गिरावट का यह रुझान देशव्यापी है। लेकिन, इसके साथ यह और जोड़ दें कि यह देशव्यापी रुझान सिर्फ इस पहले चरण तक ही सीमित रहे और आगे पलट जाए, इसके आसार भी कम ही हैं। 2019 और 2014 के भी चुनाव के मतदान के आंकड़ों का विश्लेषण यही दिखाता है कि पहले चरण में सामने आया रुझान, पूरे चुनाव के ही रुझान की बानगी पेश कर देता है। यानी गिरावट का यह रुझान, इस बार चुनाव के शेष चरणों में भी दुहराए जाने की ही ज्यादा संभावनाएं हैं। यानी चार सौ पार के दावों को तो भूल ही जाएं, सत्तापक्ष के लिए आसार कोई बहुत अच्छे नहीं हैं, बल्कि कुछ-न-कुछ प्रतिकूल ही लगते हैं।
इन संभावनाओं पर पर्दा डालना अपनी जगह, इसी सच्चाई के एहसास ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में संघ-भाजपा को, हिंदुत्व की अपनी सांप्रदायिक दुहाई का सहारा लेने की ओर, चुनाव के इस शुरूआती दौर में ही धकेल दिया लगता है। राजस्थान में बांसवाड़ा में प्रधानमंत्री के चुनावी भाषण में जैसी हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक दुहाई का इस्तेमाल किया गया, वह इस बार के चुनाव में खुद नरेंद्र मोदी के अब तक के रिकार्ड को भी बहुत पीछे छोड़ देता है। बेशक, जैसा कि हमने अपनी पिछली टिप्पणी में ध्यान दिलाया था, इस बार चुनाव प्रचार की शुरूआत से ही खुद प्रधानमंत्री मोदी राम मंदिर के उद्घाटन, सनातन के नाम पर विवाद आदि के माध्यम से, खुद को हिंदू-हितैषी और उससे भी बढ़कर, अपने राजनीतिक-चुनाव विरोधियों को हिंदू-विरोधी साबित करने की कोशिशों में लगे रहे थे। इसी क्रम में कुछ नये हथियार जोड़ते हुए उन्होंने, अपने विरोधियों को हिंदुओं के पवित्र दिनों में मांस-मछली पका-खाकर, मुगलों की तरह सोच-समझकर हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला साबित करने की कोशिश की थी। बहरहाल, बांसवाड़ा की चुनावी सभा का प्रधानमंत्री का भाषण तो, बदहवासी में सांप्रदायिकता के दोहन की पराकाष्ठा तक पहुंच जाने को ही दिखाता है।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण के प्रमुख हिस्से में शुरूआत तो कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र का जिक्र कर, इसके दावे करने से की कि वामपंथी/ शहरी माओवादी नीतियां अपनाकर कांग्रेस, संपत्तियों का सर्वे कर, संपत्तियों के वितरण के रास्ते पर जा रही है, जो कि शुद्घ झूठ है। लेकिन, इसे फौरन उन्होंने कांग्रेस पर इसके लिए हमले में बदल दिया कि अगर वह सत्ता में आ गयी, तो गरीबों की संपत्ति, महिलाओं के गले के मंगलसूत्र तक छीन लेगी।
लेकिन, यहां से उन्होंने शुद्घ सांप्रदायिक प्रचार में छलांग लगाते हुए, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 2006 के एक संबोधन के संंबंध में सरासर झूठे तथा तोड़-मरोड़ पर आधारित दावे करते हुए कहा कि जैसा कि सिंह ने कहा था, राष्ट्रीय संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का होगा यानी गरीबों से लूटकर संपत्ति मुसलमानों को दे दी जाएगी! लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी को इतने पर भी संतोष नहीं हुआ। और उन्होंने मुसलमानों यानी इन कथित रूप से लूट की संपत्तियों के लाभार्थियों के लिए दो सांप्रदायिक नफरत छलकाते विशेषणों का प्रयोग और किया — ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले और घुसपैठिए! यहां से आगे प्रधानमंत्री का अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत को, नरसंहार की पुकारों तक ले जाना ही बाकी रहता है, जो चुनाव के आखिरी चरणों तक पहुंचते-पहुंचते किसी-न-किसी रूप में सामने आ जाए, तो हैरानी की बात नहीं होगी। इसकी वजह यह है कि चुनाव आयोग ने सत्ताधारी पार्टी और उसमें भी खासतौर पर प्रधानमंत्री तथा अन्य शीर्ष नेताओं को नियम-कायदों से ऊपर रखना तय किया है, जिससे उसकी ओर से उन्हें किसी रोक-टोक की परवाह करने की जरूरत नहीं है और दूसरी ओर, चुनाव को हाथ से फिसलता देखकर, उनकी बदहवासी बढ़ती ही जाने वाली है।
चुनाव हाथ से फिसलने के मोदी एंड कंपनी के इसी एहसास, जिसे पहले चरण के मतदान के संकेतों ने और तीखा बना दिया है, का एक और संकेतक स्वयं प्रधानमंत्री का चुनाव की पूर्व-संध्या में प्रमुख मीडिया संस्थानों को घर बुला-बुलाकर इंटरव्यू देना है और इस तरह, चुनाव सभाओं से लेकर, विज्ञापनों तक तमाम माध्यमों से अपने धुंआधार प्रचार को भी अपर्याप्त मानकर, निजी तौर पर कुछ और प्रचार उसमें जोड़ना है। कहने की जरूरत नहीं है कि न सिर्फ ये इंटरव्यू पूरी तरह से पहले से तय सवालों के पहले से तय जवाब प्रसारित करने के हिसाब से तैयार किए जा रहे हैं, बल्कि इन तथाकथित साक्षात्कारों के लिए संबंधित मीडिया घरानों के अनुकूल पत्रकारों का चयन भी, खुद प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा ही किया जा रहा बताया जाता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब इसलिए भी हो रहा है कि अपनी तमाम सीमाओं और सत्ताधारी गिरोह द्वारा सामने खड़ी कर दी गयी सारी प्रतिकूलताओं के बावजूद, विपक्ष उसके सामने गंभीर चुनौती पेश कर रहा है, जिसमें इस चुनाव में विपक्षी एकता सूचकांक का काफी ऊंचा रहना भी शामिल है। इसी के एक और संकेत में, पहले चरण के मतदान के दो दिन बाद ही, रविवार को झारखंड में विपक्ष की जबर्दस्त उल-गुलान रैली हुई है, जिसमें एक बार विपक्ष ने सारी चुनौतियों के बावजूद अपनी एकता का जबर्दस्त प्रदर्शन किया है। यही सब मोदी को प्रचार के हर गुजरने वाले दिन के साथ, ज्यादा से ज्यादा बदहवास कर रहा है और वह धर्म की सांप्रदायिक दुहाई को ज्यादा से ज्यादा आगे कर रहे हैं। गीतकार ने सही कहा है- कैसे घबराया साहिब, बात-बात पर डरता है ; डगमग-डगमग होवै कुर्सी, धर्म को आगे करता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)