गोपेश्वर। हिमालयी राज्य उत्तराखंड के बनने के बाद एक सशक्त भू कानून का मसला लटका पड़ा है। इसके चलते लोग अपनी ही जमीनों से बेदखल हो रहे हैं। मूल निवास को लेकर कोई ठोस कानून न बनने से राज्य निर्माण की अवधारणा को पलीता लग रहा है। मानव अस्तित्व के लिए जल, जंगल तथा जमीन के सवाल पर नीति नियंताओं ने कोई नीति बनाने की पहल नहीं की। इसके चलते राज्य बनने के बाद अपने ही जमीन से राज्य के मूल निवासी बेगाने होकर रह गए हैं।
हालात यही रहे तो भविष्य में लोग अपनी जमीन का हक ही खोकर रह जाएंगे। इसके चलते अब उत्तराखंड में भू कानून की जोरदार वकालत तो होने लगी है किंतु चुनावी परिदृष्य से यह मुद्दा गायब सा हो गया है।
उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद एक सशक्त भू कानून को लेकर कहीं कोई माथापच्ची नहीं हुई। मूल निवासियों की जमीन बाहरी लोगों के हाथों जाने के बाद अब लोग भू कानून को लेकर सडक़ों पर उतर तो रहे हैं किंतु मौजूदा लोक सभा के चुनाव में यह मसला चर्चा परिचर्चा से ही गायब हो गया है। यही वजह है कि लोक सभा चुनाव की घोषणा से पूर्व राज्य में उत्तराखंड मांगे भू कानून पर खूब बहस हुई किंतु हालिया चुनाव में मानव अस्तित्व से जुड़ा यह मसला भी नेपथ्य में चला गया है।
ब्रिटिश हुकूमत के दौर में तत्कालीन कुमाऊ कमिश्नरी तथा गढ़वाल जनपद (मौजूदा पौड़ी, चमोली तथा रू द्रप्रयाग) पर ब्रिटिश हुकूमत का एक छत्र राज कायम रहा। तब मौजूदा पौड़ी, चमोली तथा रू द्रप्रयाग जनपद भी कुमाऊ कमिश्नरी में शामिल रहे। मौजूदा टिहरी तथा उत्तरकाशी जनपद टिहरी रियासत के अधीन बने रहे। ब्रिटिश काल में न तो शहरों का विस्तार हुआ और ना ही गांव फले फूले। यही वजह है कि इन क्षेत्रों के ज्यादातर गांव वनों से सटे रहे। इसके चलते वनों पर हकहकूकों को लेकर भी लोग स्वर मुखर करते रहे किंतु ब्रिटिश हुकूमत शासकों के भय से लोग आंदोलन की भूमिका में नहीं रहते थे। वैसे बताया जाता है कि सन 1815 में जी डब्ल्यू ट्रेल द्वारा पहला भू बंदोबस्त अमल में लाया गया। इसे अस्सीसाला भू बंदोबस्त भी कहा गया है। इसके तहत गांवों के वनों की सरहदों का निर्धारण कर दिया गया। ग्रामीणों को वन सीमा के भीतर चरान चुगान, ईमारती लकड़ी तथा चारापत्ती लाने का अधिकार दिया गया। इसके तहत बंजर वन क्षेत्र जो गांवों की सीमाओं की परिधि में नहीं आते थे उन्हें सरकारी नियंत्रण में ला दिया गया। गांव की सरहदों के निर्धारण के साथ ही आस पास नजदीकी जंगलों के पारंपरिक हक बिना किसी नियंत्रण के मान लिए गए। हालांकि ब्रिटिश काल में ही 11 भू बंदोबस्त करने का उल्लेख मिलता है। इनमें बेटन बंदोबस्त (1842-48), विकट बंदोबस्त (1862-73), गूंज बंदोबस्त (1899-1904 तथा पॉ बंदोबस्त प्रमुख हैं। उत्तराखंड में कुमाऊ कमिश्नरी तथा टिहरी रियासत को केंद्र में रख कर ही भू बंदोबस्त को देखना होगा। टिहरी राजशाही के दौर में वनों पर खूब आरियां चली। 18४0 में मात्र 40 रू पए वार्षिक की दर पर लीज पर जंगल ब्रिटिश सेना के भगोड़े सैनिक विल्सन को दिया गया।
हालांकि इस ऐतिहासिक व्यावसायिक घटना से पूर्व न तो ब्रिटिश शासक और ना ही टिहरी नरेश वनों को आय का साधन नहीं मानते थे। वन तब टिहरी नरेश की संपति मानी जाती थी। व्यावसायिक तौर पर आर्थिक अर्जन का बड़ा स्रोत नजर आने पर टिहरी दरवार ने वनों पर अपना नियंत्रण व्यापक तौर पर बढ़ा दिया और जनता के वनाधिकारों को कु चलने के प्रयास शुरू हुए। यमुना वैली में ही 13 लाख स्लीपरों का व्यावसायिक दोहन इसी का नतीजा रहा।
हालांकि स्वतंत्र भारत में 1955-56 में भू बंदोबस्त किया गया। इसके बाद उत्तरप्रदेश जमीदारी उन्मूलन कानून भी बनाया गया। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद दो दशक तक भू कानून बनाने के लिए कहीं कोई पहल होती नहीं दिखाई दी। हां, जल, जंगल तथा जमीनों के सवाल पर सरकारें असंवेदनशील बनी रही। भूमि की विक्री के लिए हरीश रावत तथा भुवन चंद्र खंडूड़ी सरकार ने मानकों का जो निर्धारण किया था उस मानक को अगली सरकारों ने हटा दिया। इसका कहीं तीखा विरोध भी होता नहीं दिखाई दिया।
राज्य में निवेश बढ़ाने की बात कहते हुए 2018 में भू कानून के मानकों में संशोधन कर दिया गया। यह नीति भी यहां के लोगों की धीरे-धीरे जमीन से बेदखल करती जा रही है। राज्य बनने के बाद पहाड़ पलायन के चलते खाली होते चले गए और पर्यटन स्थलों तथा चारधाम यात्रा मार्गों की जमीन औने पौने दामों पर बिकने से लोग मालिक बनने के बजाय निवेशकों के नौकर बन कर रह गए हैं।
यह सर्वविदित है कि पहाड़ों में वैसे भी भू कानून न बनने के कारण संजायती जमीन के घपले अलग से खड़े हैं। भू कानून न बनने के कारण गोल खाता की समस्या भी चिंता का रू प धारण करती जा रही है। यही वजह है कि जमीनों के वास्तविक कब्जेदार भूमि के मालिकाना हक से वंचित हो रहे हैं और गोल खाते की जमीन पर काबिज न हुए अपने ही लोग मालिकाना हक पाए हैं।
वैसे यह मांग जोर सोर से उठती रही है कि स्वतंत्रता के दौर में (19५0 की डेडलाइन) उत्तराखंड में रह रहे लोगों को ही मूल निवासी माना जाना चाहिए किंतु उत्तराखंड में इस सवाल को हमेशा हासिए पर डालने के चलते ही लोग जमीनों का मालिकाना हक खोते गए। अब तो जमीनों के हालत इस कदर चिंताजनक बन गए हैं कि भावी पीढ़ी के लिए कई कई स्थानों पर घर बसाने की चुनौती आ खड़ी हो गई है। यही वजह है कि अब हिमाचल की तर्ज पर उत्तराखंड के लिए भू कानून बनाए जाने की जोरदार वकालत होने लगी है। हिमाचल की तर्ज पर भू अध्यादेश अधिनियम बनाने को लेकर हालांकि कई लोग मौजूदा दौर लोगों को जागरू क कर रहे हैं। इसके लिए डोर-टू-डोर भू कानून को लेकर जागरू कता अभियान चल रहा है। सरकार है कि निवेशकों को रोजगार के बहाने भूमि पर काबिज करवाने का नायाब तरीका ढ़ूंढ रही है। नीति नियंताओं की नासमझी का खामियाजा अब भावी पीढ़ी को भुगतना होगा।
वैसे पिछले दिनों जगह-जगह लोग सडक़ों पर भी उतर आए और ट्विटर, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया माध्यमों पर मुहिम चल रही है और लोग भू कानून बनाए जाने की जोरदार वकालत कर रहे हैं। मौजूदा लोक सभा चुनाव में मानव अस्तित्व को बचाने के लिए भू कानून को लेकर कहीं कोई बहस नहीं हो रही है। हालांकि जल, जंगल, जमीन के सवाल पर चिपको जैसे आंदोलन हुए किंतु इस आंदोलन के बाद अब भू कानून को लेकर कहीं कोई बड़ा आंदोलन छेडऩे की कवायद नहीं हो सकी। यही नहीं उत्तराखंड में वनाधिकार को लेकर भी आवाज तो उठ रही है किंतु यह मसला भी नेपथ्य में पड़ा है।
मूल निवास का मामला अब नई पीढ़ी के मूल निवासियों के लिए खतरे की घंटी बजा रहा है। सरकारी रोजगार के अवसरों से लोग वंचित होते जा रहे हैं। हिमाचल में यशवंत सिंह परमार ने पहले ही इस तरह के खतरे को भांप कर सशक्त भू कानून बना दिया था किंतु उत्तराखंड के रहनुमाओं ने इस पर कुछ करने तक की सोची तक नहीं।
इसका खामियाजा अब मूल निवासियों को भुगतना पड़ रहा है। हालात इस कदर चिंताजनक हैं कि सदियों से सरकारी भूमि पर काबिज लोगों को बेदखल किया जा रहा है। बुल्डोजर संस्कृति के पनपने से वनवासियों के कब्जे भी हटते जा रहे हैं।
इससे लोग काबिज जमीनों पर ही बेदखल होकर रह गए हैं। यह खतरा अभी टला नहीं है। साफ है कि यदि इस दिशा में कोई पहल नहीं की गई तो उत्तराखंड के मूल निवासी अपनी ही जमीन से बेदखल होकर धन्नासेठों के नौकर बन कर रह जाएंगे।