बादल सरोज
लगने को तो अनेक को लग सकता है कि हमारे प्रधानमंत्री जी बड़े विनोदी हैं, मजाकिए भी हैं। हालांकि अगर ऐसा लगता है तो कोई अजीब बात भी नहीं। ऐसा लगना सिर्फ अनुमान नहीं है, इसमें भरी-पूरी सच्चाई है। इसके अनेक-अनेकानेक उदाहरण भी हैं, जो अब आधुनिक तकनीक के आने के बाद सिर्फ कही-सुनी बातें भर नहीं हैं, बाकायदा वीडियो में इनके भण्डार के भण्डार उपलब्ध हैं। पिछले 10 वर्षों में यदि मोदी कार्टूनिस्ट्स के लिए सहज उपलब्ध प्रेरणास्रोत रहे, तो स्टैंड अप कॉमेडियन्स के लिए वे उनका रोजगार चमकाने वाले और उनका रोजगार खतरे में डालने वाले, दोनों रहे। कई बार तो वे इतना ज्यादा रोचक कर जाते हैं कि उसे और फनी या मनोरंजक बनाना इस विधा के जाने-माने महारथियों के लिए भी खासा चुनौतीपूर्ण हो जाता है। पिछले सप्ताह तेलंगाना की एक सभा में उन्होंने ऐसा ही कुछ किया। अपनी महत्तर से महत्तर होती महानता का आत्मालाप करते हुए उन्होंने बड़े मलाल के साथ गहरी सांस-सी लेते हुए कहा कि “मेरी बात कोई नहीं दिखाएगा, कोई नहीं छापेगा।” यह बिलकुल वैसा ही था, जैसी कि कहावत है कि सूप बोले तो बोले, चलनी भी बोल उठी – जिसमे बहत्तर सौ छेद!! यह बात वे मोदी जी कह रहे थे, जो घर से लेकर बाहर, भारत के हिस्से की पृथ्वी के हर दरो दीवार, पूरी टीवी और सारे अखबार और हाल के दिनों में आकाश से लेकर पाताल वे ही वे दिखाई दे रहे हैं, दिग-दिगंत में सिर्फ उन्ही की कही गूँज रही है। इसके बाद भी हतभाव का इतना करुण प्रलाप ; ऐसी सादगी है, जिस पर और कोई भले मिटे-ना मिटे, उनके भक्तजन तो जरूर ही मर मिटे होंगे। जब वे यह उलाहना दे रहे थे, तब वे उन शॉलों, अंगवस्त्रों, खुद का नाम बुने गये दस लखिया सूटों और परिधानों तथा उन भेंटों का जिक्र कर रहे थे, जो उन्हें उनके दौरों में मिलती हैं ; उनका दावा था कि वे उन्हें अपने पास नहीं रखते, उन्हें बेच कर उनकी नीलामी करवाके जो भी पैसा आता है, सरकारी खजाने में जमा करवा देते हैं। उनकी शिकायत थी कि उनके इस त्याग और अर्पण की खबरें कोई नहीं दिखाता। कुछ को लग सकता है कि वे खुद के राज में देश की संपदा, बैंक, अस्पताल, स्कूल, कॉलेज और सार्वजनिक क्षेत्र बेचने की खबरें न छापे जाने से इन छोटी-मोटी बेचा-बाची की खबरों से गड्डमड्ड करके कनफूजिया गए थे। मगर ऐसा लगता तो नहीं है, मोदी जानते हैं, मोदी यही एक काम तो बखूबी जानते हैं कि कब, कहाँ और क्या बोलना है। वे जुमलों के सदाबहार प्रपात ही नहीं है, वे असत्यों और अर्धसत्यों के अक्षय पात्र भी हैं। तेलंगाना में उनका भाषण देश की जनता की सहानुभूति पाने की आस में किया गया इसी तरह का घोर असत्य वचन था।
तथ्य यह है कि सरकारी खर्चों पर जनता के पैसों का जितना दुरुपयोग इनके कार्यकाल में, स्वयं इनके प्रचार में किया गया है, उतना भारत के अब तक के सारे प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल के जोड़ वाले कुल 66 वर्षों में कुल मिलाकर भी नहीं हुआ। दुनिया में भी शायद ही किसी देश का ऐसा राष्ट्रप्रमुख होगा, जिसने इतना धन खुद के प्रचार के लिए फूँका हो। “मुफ्त का चन्दन – घिस मेरे नंदन” वाले प्रचार शिरोमणि के नाम से वे सिर्फ अक्खा इंडिया में ही नहीं, पूरी धरा पर वर्ल्ड फेमस हैं। किसी भी वर्ष के, किसी भी विभाग के, किसी भी आयोजन के, किसी भी खर्च की माहिती लेने पर मोदी केन्द्रित प्रचार की जो राशि निकल कर आती है, वह अपार है और अब तक के सभी रिकार्ड्स के हिसाब से असाधारण है। इन मामलों में बीसियों आरटीआई लगाई जा चुकी हैं ; आकंड़ों के पहाड़ इकट्ठा किये जा चुके हैं और छुपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद वे सभी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं। यहाँ उनकी भीड़ लगाकर इस टिप्पणी को बोझिल करने की बजाय सिर्फ एक ताजा प्रसंग पर नजर डालना काफी है।
इन दिनों गूगल पर मोदी ही मोदी है ; यू-ट्यूब से लेकर सर्च इंजिन में घुसते ही, कुछ भी खोलने पर अगल-बगल दिखने वाले विज्ञापनों में दांत चियारे मोदी जी टंगे दीखते हैं। अनेक सचमुच की आपत्तिजनक मानी जाने वाली साइट्स पर भी मोदी और उनकी भाजपा का विज्ञापन दिखाई देता है। अकेले जनवरी और फरवरी के महीने में इस पर 30 करोड़ रूपये खर्च किये जा चुके हैं – जो पिछले आम चुनाव के पहले के दो महीनों में इन्ही के द्वारा खर्च किये गए पैसे से पांच गुना ज्यादा हैं। ये सिर्फ गूगल के विज्ञापन का खर्च है ; प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और बिल बोर्ड्स, होर्डिंग्स का जोड़ तो हजारों – जी हाँ हजारों – करोड़ रुपयों में बैठता है। यह पार्टी के खर्च की बात है ; जनता के पैसे से किया जाने वाला सरकारी प्रचार तो विद्रूपता की हदें पार कर जुगुप्सा जगाने की हद तक आ पहुंचा है। दिल्ली सहित सभी महानगरों में मेट्रो, रेलगाड़ियों से लेकर बसों तक, हर चौराहे और गुलम्बर इस या उस गारंटी के नाम पर मोदी की विराटाकार रंग-बिरंगी तस्वीरों से पटी पड़ी है। यह आज की बात नहीं है, पिछले दस वर्षों से यही हाल है – पिछले चार महीनों में यह दीवानगी जुनूनियत की हद तक जा पहुंची है। ‘लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल’ की तर्ज पर यत्र-तत्र-सर्वत्र वे ही वे हैं। मध्यप्रदेश में ‘जहां न पहुंचे कोई – वहां पहुँच गए मोई’ के अंदाज में शिवराज सरकार ने उनकी तस्वीर को बाकी सब संभव-असंभव स्थानों के साथ, सब्सिडी से बनने वाले शौचालयों की टाइल्स तक में लगवा दिया था। अत्युत्साह में शिवराज से चूक यह हुयी कि “एक डाल पर तोता बोले, एक डाल पर मैना” करते हुए एक टाइल पर मोदी, दूसरे पर मामा लगवा दिए – टाइल्स तो पता नहीं उखड़े कि बचे, मामा अलबत्ता मामू बना दिए गए। इनके अलावा अखबारों और इनकी आसक्ति में गोदी मीडिया का नाम पाने वाले चैनलों की तो बात ही क्या करना ; उनके 90 में मोदी हैं, बाकी 10 में मजाक का विषय बनाकर पेश किये जा रहे विरोधी हैं।
इतने सबके बावजूद भी उपेक्षा का आर्तनाद ऐसे ही नहीं है। यह वह विक्टिम कार्ड है, जिसे वे हर छठे-छमाहे — ख़ास तौर से खुद के घिर जाने के वक़्त — खेलते ही रहते हैं । ऐसा चमत्कार वे ही कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने के लिए अनंत ढीठ होना पहली शर्त है। विशेषज्ञों का कहना है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद के साढ़े तीन हजार दिनों में शायद ही कभी एक पोशाक को दूसरी बार पहनने वाले वे प्रधान नहीं, परिधान मंत्री हैं। इसके बाद भी वे खुद को गरीब चायवाला बता सकते हैं, दस लखिया सूट और न जाने कितने महंगे गजेट्स इस्तेमाल करते हुए भी आधी से ज्यादा उम्र तक भीख मांगकर खाने का दावा ठोंक सकते हैं। विक्टिम सिंड्रोम को मनोविज्ञान में व्यक्ति केन्द्रित विकार कहा गया है – मोदी युग की खासियत यह है कि उसमें इसे एक राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया गया है। पूरे देश का विकार बनाने की कोशिश की गयी है, आबादी का एक हिस्सा इसका शिकार भी बना लिया गया है।
अब चुनाव सिर पर हैं। इलेक्टोरल बांड्स की बेईमानियाँ उजागर हो रही हैं, पुरानी कब्रें खुल रही हैं और उनमें से घोटालों और देश के साथ किये गए अपराधों के जीते जागते जिन्न निकला रहे हैं, इसलिए हमदर्दी पाने के लिए वंचना, विपन्नता और उपेक्षा का स्वांग रचा जा रहा है। मगर पूरा यकीन अब भी नहीं हो पा रहा है, इसलिए आईटी सैल की अपनी अक्षौहिणी सेना की भी ड्रिल कराके उसकी मानप्रतिष्ठा की जा रही है। 8 मार्च को दिल्ली के भारत मंडपम — वही जहां कुछ सप्ताह पहले भाजपा की जम्बूरी हुयी थी — में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स का मेला लगाकर कंटेंट क्रिएटर्स अवार्ड बांटे गए, जो अब तक बाहर थे वे भी जाल में फांसे गए और अगले महीने से शुरू होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए झूठ, नफरत और अर्धसत्यों से देश को झिंझोड़ देने वाले बघनखे तराशे गए। कहने को ये राष्ट्रीय आयोजन था, जिसमें कुछ लाख सोशल मीडिया एक्टिविस्ट्स की 20 कैटेगरी में से छांटकर 20 श्रेणियों में 3 विदेशियों सहित 23 अवार्ड्स दिए गए। पिछले आमचुनाव के वक़्त 2019 में भी ऐसी ही कवायद हुयी थी – तब इसी तरह के लोगों को भाजपा – संघ की आईटी सैल के नाम पर जुटाया गया था ; इस बार भी लोग वही थे, उसी प्रजाति के थे, मगर आयोजन सरकारी था। ये बात अलग है कि इसमें नारे 400 पार के लग रहे थे, प्रधानमंत्री के रूप में आये मोदी भी खुद अपने हाथ की 4 अंगुलियाँ दिखाते हुए लगवा रहे थे।
यह वही नारा है, जिसे कुछ रोज पहले इसी भारत मंडपम में मोदी जी ने दिया था और हर पोलिंग बूथ पर पिछली बार की तुलना में 370 वोट बढाने के मुंगेरीलाल के हसीन सपने के साथ अपने कार्यकर्ताओं को 100 दिन के टास्क दिए थे। सनद रहे कि देश भर में 12 लाख पोलिंग बूथ्स हैं। हरेक बूथ पर 370 नए वोट जोड़ने का योग ही 44 करोड़ 40 लाख होता है। पिछली बार 2019 के चुनाव में मोदी की भाजपा को मिले कुल वोट्स 22 करोड़ 90 लाख थे। इन दोनों का टोटल 66 करोड़ हो जाता है। अब इस बार भी यदि पिछले चुनाव की तरह रिकॉर्ड तोड़ 67 प्रतिशत मतदान हो जाए तो भी, ईवीएम मशीन भी सारे कमाल दिखा दे और डाले गए सारे के सारे वोट्स भाजपा के खाते में चलो पहुंचा दिए जायें, तो भी यह शेखचिल्ली ख्वाब पूरा नहीं हो सकता। हाँ, यह बात अलग है कि विश्वगुरु अपने गुरुत्व का ब्रह्मास्त्र चलाकर 4-5 करोड़ मतदाता दुनिया के दूसरे देशों से मंगा लें, तो जरूर यह दिवास्वप्न पूरा किया जा सकता है।
बहरहाल क्या इता-सा गणित ये कंटेंट क्रिएटर्स नहीं जानते होंगे? यकीनन जानते होंगे ; मगर इससे पहले यह जानना ठीक होगा कि ये हैं कौन? कौन हैं?? ये कंटेंट क्रिएटर्स, जिन्हें इतने तामझाम के साथ सम्मानित किया गया? राजतंत्र की भाषा में कहें, तो ये वे चारण और भाट हैं, जो असमर्थ और अक्षम राजा की अतुलनीय सामर्थ्य का महिमा गान करते हैं। बाजार की भाषा में कहें, तो ये वे हैं, जो किसी उत्पाद के लिए जिंगल लिखते हैं, नारे बनाते हैं, उसे “हेमा, रेखा, जया और सुषमा” की रिदिम में बांधते हैं, और सबकी पसंद निरमा बना डालते हैं। ये वे हैं, जो धूम-धड़ाम से किसी भी अनुपयोगी साबित हो चुके माल की जरूरत पैदा करते हैं और इस तरह गंजे को कंघी और शैम्पू बेचने का कमाल दिखा मारते हैं। मार्केटिंग की इसी विधा का आजाद भारत में पहली बार राजनीतिक इस्तेमाल करते हुए देश के चंद कार्पोरेट्स ने 2014 में कोई 5 हजार करोड़ की किटी इकट्ठा कर मोदी नाम का उत्पाद लांच किया था। अब उसी माल को दोबारा बेचने की जुगाड़ करनी है, इसलिए लोग भी ज्यादा लगेंगे, पैसा भी अधिक खर्च होगा।
उन्हें पता है कि उनका पालित-पोषित गोदी मीडिया अपनी साख गँवा चुका है, यह भी कि इस बीच सोशल मीडिया ने लोगों के बीच जगह बनाई है। किसान आन्दोलन से लेकर हाल के अनेक झंझावातों में जनता के बीच सच पहुंचाने की हिम्मत दिखाई है और इज्जत कमाई है। इसके चलते इन माध्यमों की पहुँच भी अच्छी खासी हुयी है ; दुनिया भर में सबसे ज्यादा फेसबुक का उपयोग करने वाले भारत में हैं और इस जनवरी में 31 करोड़ 46 लाख थे। यू-ट्यूब देखने वाले भी कम नहीं हैं, पूरे 46 करोड़ 20 लाख हैं ; व्हाट्सअप इस्तेमाल करने वाले तो आधे अरब से ज्यादा 53 करोड़ 58 लाख हैं। इन्हीं से डरकर मोदी और उनका कुनबा धंधेबाज मार्क जुकरबर्ग के जरिये अल्गोरिथम में तिकड़म कर अपने विरोधियों की रीच घटवाने और एलन मस्क के जरिये ट्विटर (अब X) पर ब्लॉक करवाने का खेल खेलता रहा है। हाल के किसान आन्दोलन में ऐसे ही सरकारी आदेश पर मस्क ने अकाउंट ब्लॉक तो किये, मगर एक बयान जारी कर सरकार की पोल भी खोल दी। बहरहाल इस सबके बाद भी इन्हें सोशल मीडिया का भय है, इसलिए अब उस नाथने के लिए अपने रेवड़ को छुट्टा छोड़ने के उपाय आजमाए जा रहे हैं।
चुनाव के ठीक पहले मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ा जा रहा है। मार्केटिंग के सारे कौशल को झोंककर नाजायज को जायज और लानती काम को करामाती, सराहनीय और प्रतिष्ठित बनाने का खेल खेला जा रहा है। कुहासे को धुंआ और बुझते चिराग को सूरज साबित किया जा रहा है। मंदिरों में पीतवस्त्र धारण कर बनाए गए हुलिए से हरकतों को ढांपने की चतुराई दिखाई जा रही है, ताकि स्विस बैंक के कालाबाजारियों को बेनकाब करके सत्ता में आने वालों के स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया में जमा कालाबाजारियों के चिट्ठे उजागर करने से रोकने के सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिबंधित पापों पर पर्दा डाला जा सके। मोदी इस तरह की झान्सेबाजी और फ्रॉड में उस्ताद हैं – इसकी स्वीकारोक्ति वे खुद कंटेंट क्रिएटर्स वाले ड्रामे में फर्जी ज्योतिषी बनने कहानी सुनाकर दे चुके हैं। रेलगाड़ी की एक सीट के लिए फर्जीवाड़ा करने वाला देश की सबसे बड़ी सीट के लिए क्या कुछ नहीं कर सकताd?
मगर उन्हें पता है कि अब जनता को भी बहुत कुछ पता चल गया है। पटना के गांधी मैदान में हुई अब तक की सबसे विराट लामबंदी, 14 मार्च को रामलीला मैदान में किसानों के संयुक्त मोर्चे का समावेश और उससे निकले आव्हान इनकी बेचैनी को घबराहट में बदल रहे हैं। आत्मविश्वास का दिखावा इनके भय की चुगली खा रहा है। इसे प्रचार, और प्रचार और अति-प्रचार की दम पर जीतने का भरम भले पाले हुए हैं, मगर उन्हें भी 2004 में इसी प्रकृति के शाइनिंग इंडिया – चमकता भारत – प्रोपेगंडा का हश्र मालूम है। हर पोलिंग बूथ से एक-एक को राम मंदिर ले जाकर दर्शन कराने से जिस ज्वार के उभरने की उम्मीद उनने लगाई थी, वह शुरू होने पहले ही उतर गयी है ; इसलिए और ज्यादा ध्रुवीकरण और विभाजन के लिए सीएए के जिन्न को निकाल लाया गया है।
तय है कि आने वाले दिनों में यह भड़भड़ाहट और बढ़ेगी। लोगों की चिंता रोजगार, खेत और खलिहान की होगी, इधर से बातें शमशान और कब्रिस्तान की होगी। विवेक छीनने वाले हमलों के मुकाबले रास्ता विवेक को बनाए रखने और इसी के साथ बाकियों के विवेक को जगाये रखने से ही निकलता है। उम्मीद है, ऐसा ही होगा।
(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। )