आगामी चुनाव में नीतीश के लिए राजद से मुकाबला नहीं होगा आसान
ताजा राजनीतिक समीकरण का फायदा आईएनडीएआई को मिलने की उम्मीद
-प्रमोद झा,पटना/नई दिल्ली।
सत्ता के लिए सियासी समीकरण साधने में माहिर नीतीश कुमार अपने इसी राजनीतिक कला-कौशल की वजह से बिहार में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले मुख्यमंत्री बने हुए हैं। लेकिन, बदले हालात में राजनीतिक सूझबूझ के साथ परिपक्व बन रहे लालू के लाल तेजस्वी यादव का तेज जिस तरह से बढ़ रहा है उससे नीतीश के लिए आगे की डगर आसान नहीं होगी। पाला बदलने के बाद आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार की पार्टी को विपक्षी गठबंधन से कड़ी शिकस्त मिल सकती है। वहीं, राजद समेत आईएनडीएआई को इसका फायदा मिलेगा। युवा चेहरे के तौर पर उभरे तेजस्वी यादव ने बिहार विधानसभा में शक्ति-परीक्षण के दौरान जिस ढंग से मुख्यमंत्री समेत सत्ता पक्ष के नेताओं की आलोचना की उससे सूबे में उनकी जनप्रियता बढ़ी है। युवाओं के बीच लोकप्रिय बन रहे तेजस्वी के भाषण की हर तरफ तारीफ हो रही है।
हालांकि, राजद के कुछ विधायकों के सत्ता पक्ष के साथ जाने के बाद उनकी पार्टी विधानसभा में संख्याबल के हिसाब से भाजपा (78 सीट) के बाद दूसरे नंबर पर आ गई है। विधानसभा में राजद की सीटें 79 से घटकर 75 रह गई हैं। लेकिन, आगामी लोकसभा चुनाव में उनका संख्या बल बढ़ सकता है क्योंकि 2020 के बाद तेजस्वी की अगुवाई में राजद मजबूत हुआ है और पार्टी को इसका फायदा आगामी चुनाव में मिलेगा। नीतीश के आईएनडीआईए गठबंधन से हटने के बाद विपक्षी गठबंधन का कुनबा छोटा जरूर हुआ है, लेकिन उसकी शक्ति बढ़ गई है। खासतौर से तेजस्वी की ताकत बढ़ी है। अब वह लोकसभा चुनाव में अधिक सीटों पर अपनी पार्टी के उम्मीदवार उतार पाएंगे। यही नहीं, गठबंधन के घटकों के साथ सीटों की साझेदारी में तालमेल बिठाने में भी सहूलियत होगी। राजद नेता चाहेंगे कि कांग्रेस, वामदल व अन्य उन्हीं सीटों चुनाव लड़ें जहां उनके उम्मीदवार जीत सुनिश्चित करने में सक्षम होंगे।
वस्तुत: बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव वैसा नहीं होगा जैसा 2019 में हुआ था। पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव जेल में बंद थे और उनकी तेजस्वी यादव ने राजनीति का ककहरा सीख रहे थे। लेकिन उनकी छवि अब एक परिपक्व नेता जैसी बन गई है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में पिछली सरकार के 17 महीने के कार्यकाल में बतौर उपमुख्यमंत्री उन्होंने अपने चाचा से राजनीति के जो दांव पेच सीखें हैं उसका इस्तेमाल भी करेंगे। वह उन जातीय समीकरणों को साधने की कोशिश करेंगे जिनकी बदौलत नीतीश कुमार 2005 से बिहार की सत्ता में बने हुए हैं। मसलन, दलित, महादलित और अगड़ी जातियों को अपने खेमे में लेने के लिए वह हर चाल चलेंगे। वहीं, एमवाई समीकरण यानी मुस्लिम और यादव वर्गों के वोटों का तालमेल का जहां तक सवाल है उसमें और मजबूती मिलने की प्रबल संभावना है। जानकार बताते हैं कि इन दोनों वर्गों के लोग नीतीश कुमार के पाला बदलने से नाराज हैं, जिससे आईएनडीआईए के वोट शेयर में इजाफा हो सकता है।
हालांकि, नीतीश कुमार का दावा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में सूबे की 40 की 40 सीटें राजग के खाते में जाएगा। पिछली बार राजग 39 सीटों पर जीत हासिल करने कामयाब हुआ था। जाहिर है कि उनका यह दावा पिछले लोकसभा चुनावों के अनुभवों से प्रेरित है। मगर, इस पांच साल में हालात काफी बदल गए हैं। खुद कुमार दो बार पाला बदल चुके हैं, जिसके बाद उनकी विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं। सियासी हलकों में तो चर्चा यह भी है कि नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के कुछ उम्मीदवार आगामी लोकसभा चुनाव में अगर जीतेंगे भी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही।
मतलब, सूबे के मुखिया के नाम पर उनकी पार्टी का लोकसभा चुनाव में खाता खुलने पर भी संदेह जताया जा रहा है। शायद यही वजह है कि खुद भी कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग बिहार में लोकसभा की सभी सीटें जीतेगा। यही नहीं, वह 2025 में बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से 200 से अधिक सीटों पर राजग की जीत का दावा करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा और जदयू समेत कुछ अन्य दलों के एक साथ आने से राजग का कुनबा बढ़ा है। जाहिर है कि कुनबे की ताकत भी बढ़ी है। लेकिन, सीटों की साझेदारी को लेकर कुनबे में किसी प्रकार का कलह नहीं होगा, इसपर संदेह है। मतलब, सीटों का बंटवारा पहले जैसा नहीं होगा। जानकार बताते हैं कि भाजपा 30 से अधिक सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारना चाहेगी। अगर ऐसा हुआ तो सीटों के बंटवारे को लेकर पेंच फंस सकता है।
2019 में लोजपा के छह प्रत्याशी जीतकर संसद पहुंचे थे, जो अब दो घरों में बंटे हुए हैं।
वहीं, जदयू को 16 जबकि भाजपा को 17 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। कांग्रेस को सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा था जबकि राजद का खाता भी नहीं खुला था। वह मोदी लहर थी जिसमें विपक्ष का सफाया हो गया था। अयोध्या में नवनिर्मित भव्य मंदिर में रामलला के नवीन विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद कुछ इसी तरह की लहर की उम्मीद को लेकर शायद नीतीश कुमार एक बार मोदी के शरण में आए हैं। अगर, ऐसा नहीं होता तो शायद वह इतना बड़ा फैसला नहीं लेते क्योंकि राजद के साथ रहने पर उनकी पार्टी को लोकसभा में अधिक सीटें मिलने की संभावना बनी हुई थी।
जहां तक दबाव की राजनीति की बात है कि लोकतंत्र में संख्याबल का महत्व होता है और गठबंधन की सरकार में जिस पार्टी का संख्याबल ज्यादा होता है उसका दबाव हमेशा बना रहता है। इसलिए सूबे के मुखिया पर गठबंधन के बड़े दल का अब दबाव नहीं होगा, यह नहीं कहा जा सकता है। बिहार की सियासत के जानकार बताते हैं कि तेजस्वी यादव की नई रणनीति के तहत राजद के वोट बैंक में एमवाई समीकरण को कायम रखने के अलावा ब्राह्मण और भूमिहार को भी खुश करने की कोशिश होगी और आईएनडीएआई के कुनबे को सहेजने की कोशिश की जाएगी। विपक्षी दलों को एकजुट कर आईएनडीएआई के सूत्रधार रहे नीतीश कुमार के पाला बदल लेने के बाद अब विपक्षी गठबंधन को मजबूत करने की जिम्मेदारी तेजस्वी ही निभाएंगे।