उत्तराखंड समान नागरिक संहिता : एक बहुसंख्यकवादी संहिता – न समान, न सिविल

आलेख : बृंदा करात

अनुवाद : संजय पराते

उत्तराखंड विधानसभा द्वारा मंजूर की गई उत्तराखंड समान नागरिक संहिता इस बात का एक अच्छा उदाहरण है कि क्यों न्यायमूर्ति एस.बी. चौहान की अध्यक्षता वाले 21वें विधि आयोग ने इस पर विचार करते हुए इसे “न तो आवश्यक और न ही वांछनीय” बताया था। उत्तराखंड विधानसभा द्वारा पारित की गई संहिता न केवल कई मामलों में त्रुटिपूर्ण है, बल्कि कुछ मामलों में यह प्रतिगामी है और मौजूदा अधिकारों को समाप्त करता है।

जब भाजपा प्रवक्ता इस संहिता की सराहना करने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ में तीन तलाक और हलाला जैसी प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, यह इस कानून के घोर महिला विरोधी, अलोकतांत्रिक और कुछ मामलों में कठोर चरित्र को छिपाने के लिए है। इसके कई प्रावधानों में यह एक वयस्क महिला की यौन स्वायत्तता पर सीधा हमला है और नैतिक पुलिसिंग और सतर्कता के लिए एक कानूनी लाइसेंस है। यह राज्य, सरकार और नौकरशाही को विवाह और तलाक के मुद्दों सहित वयस्कों की सहमति से बने संबंधों में हस्तक्षेप करने की शक्ति भी देता है। संहिता का अंतर्निहित विषय अपराधीकरण का है। इसे “अपराधीकरण के लिए समान नागरिक संहिता” के रूप में वर्णित किया जा सकता है। लगभग हर एक धारा दंड और सज़ा से जुड़ी हुई है। दूसरी ओर, संहिता से स्पष्ट है कि मौजूदा कानूनों में कोई सुधार की नहीं किया गया है और इसके ख़िलाफ़ अदालत में अपील करने के पर्याप्त आधार हैं।

राज्यों पर आधारित यू.सी.सी

भारत के संविधान के निदेशक सिद्धांत खंड, भाग IV, अनुच्छेद 44 में कहा गया है : “राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा”। यहां राज्य का तात्पर्य केंद्र सरकार से है। इसलिए यह संदेहास्पद है कि क्या किसी राज्य सरकार को पहली बार में ऐसा कोड लागू करने का अधिकार है। इसके अलावा, समान नागरिक संहिता का समर्थन करने वालों का मूल तर्क यह है कि भारत में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के मामलों में सभी नागरिकों के लिए एक ही कानून लागू होना चाहिए। समान नागरिक संहिता के लिए अपने प्रयास में प्रधान मंत्री ने पिछले जुलाई में कहा था, “एक घर में, यदि एक सदस्य के पास एक कानून है और दूसरे सदस्य के पास दूसरा कानून है, तो क्या वह घर, परिवार चल सकता है? तो दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा? उनका इशारा मुस्लिम पर्सनल लॉ की ओर था। लेकिन अब उनके नेतृत्व में उत्तराखंड में भाजपा द्वारा संचालित डबल इंजन सरकार ने एक राज्य पर ही लागू होने वाली संहिता बनाकर इस तर्क को सिर के बल खड़ा कर दिया है, जिससे “दोहरी व्यवस्था” की स्थापना हो गई है। यदि प्रत्येक राज्य अपने स्वयं के कोड बनायेगा, तो कोड की एकरूपता कहां रहेगी? दूसरा पहलू यह है कि यह असंगत नहीं है कि आदिवासी समुदायों को संहिता से बाहर रखा गया है। ऐसा क्यों होना चाहिए? यदि वास्तव में, जैसा कि दावा किया जा रहा है, यह कानून महिलाओं के समान अधिकारों के लिए है, तो किसी भी समुदाय की महिलाओं को क्यों छोड़ा जाना चाहिए? आदिवासी समुदायों के रीति-रिवाजों की रक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान हैं। अल्पसंख्यक समुदायों, चाहे मुस्लिम, ईसाई, पारसी या कोई अन्य हों, की सुरक्षा के लिए भी संवैधानिक प्रावधान हैं। एक वर्ग को बाहर कर दूसरे को शामिल करना दोहरा मापदंड है। हमने बार-बार तर्क दिया है कि एकरूपता का मतलब समानता नहीं है। उत्तराखंड समान नागरिक संहिता न तो एकरूप है और न ही, जैसा कि हम देखेंगे, समान है।

अलोकतांत्रिक प्रक्रिया

एक प्रस्तावित कानून, जो वर्तमान प्रथाओं और अधिकारों में सीधे हस्तक्षेप करता है और उसे बदलता है, उसके पारित होने से पहले परामर्श, चर्चा और बहस की आवश्यकता होती है। सरकार और उसके समर्थकों का दावा है कि 60,000 से अधिक लोगों ने समिति को अपनी राय दी और मसौदा ऐसे “परामर्श” पर आधारित है। ऐसा हो सकता है। लेकिन यह मसौदा तैयार होने से पहले की कवायद थी। परामर्श का दूसरा चरण मसौदे पर ही होना चाहिए। यह एक स्वीकृत संसदीय प्रक्रिया है कि संसद या राज्य विधानमंडल में रखे गए विधेयक का मसौदा, विशेष रूप से ऐसे महत्व का विधेयक, सदन की संबंधित समिति को भेजा जाना चाहिए, जिसमें विपक्ष के प्रतिनिधि भी होते हैं। यह वह समिति है, जो विधेयक की जांच करती है, संबंधित नागरिकों, विशेषकर प्रस्तावित कानून से सीधे प्रभावित होने वाले प्रतिनिधियों से राय आमंत्रित करती है। इसके बजाय, भाजपा ने विधेयकों को पारित कराने के लिए अपने बहुमत का इस्तेमाल करने की आदत बना ली है। ऐसा संसद में भी हुआ है और उन राज्यों में भी जहां भाजपा की सरकारें हैं। उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक के मामले में, विपक्षी सदस्यों के इस विरोध के बावजूद कि उन्हें 192 पेज के मसौदे का अध्ययन करने के लिए कोई समय नहीं दिया गया, इसे आगे बढ़ा दिया गया। यह जल्दबाजी स्पष्ट रूप से लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले इसे पारित कराने को सुनिश्चित करने के लिए थी। परिणामस्वरूप, आपत्तिजनक धाराओं के अलावा, यह प्रारूपण का एक घटिया नमूना है।

कानून की प्रयोज्यता

पहला अलोकतांत्रिक खंड कानून की प्रयोज्यता से संबंधित है। “प्रारंभिक” खंड में कहा गया है कि कानून उत्तराखंड के निवासियों पर लागू है। परिभाषाओं की सूची में “निवासी” को एक व्यापक अर्थ में परिभाषित किया गया है, जिसमें न केवल उन लोगों को शामिल किया गया है, जो राज्य में निवास करते हैं, बल्कि वे लोग भी जो राज्य में सिर्फ एक वर्ष से रह रहे हैं और यहां तक कि केंद्र सरकार के वे कर्मचारी भी शामिल हैं, जिनका स्थानांतरण राज्य से हो चुका है : (अध्याय 3.(एन) (iii) और (iv)। उदाहरण के लिए, केरल की एक स्थायी निवासी, जिसे उसके नियोक्ता द्वारा दो साल के कार्यकाल के लिए उत्तराखंड में स्थानांतरित किया गया हो, को राज्य के कानून द्वारा शासित क्यों किया जाना चाहिए, जो उसका अपना राज्य नहीं है? या राज्य में दो साल का कोर्स करने वाली एक छात्रा को उस समय कानून के अधीन क्यों किया जाना चाहिए, जब वह एक निश्चित समय सीमा में राज्य छोड़ रही होगी। समान रूप से आपत्तिजनक कानून का वह प्रावधान है, जो कहता है कि भले ही विवाह/रिश्ते में शामिल एक पक्ष को ही उत्तराखंड के नागरिक के रूप में परिभाषित किया गया हो, कानून दोनों पक्षों पर लागू होगा और भले ही युगल उत्तराखंड से बाहर रह रहे हों, कानून उन पर भी लागू होगा। (उदाहरण अध्याय 2.6) इस प्रकार व्यक्तियों की एक विस्तृत श्रृंखला को इसमें लाकर कानून के दायरे और राज्य के क्षेत्र से परे अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाते हुए, उत्तराखंड सरकार ने उन अधिकारों को अपने लिए विनियोजित कर लिया है, जो संविधान द्वारा समर्थित नहीं हैं।

अनिवार्य पंजीकरण

संहिता विवाह के पंजीकरण को अनिवार्य बनाती है, जो कि होना ही चाहिए, क्योंकि ऐसा पंजीकरण किसी महिला को अलगाव, परित्याग या विवाह से इनकार के मामले में सुरक्षा प्रदान करता है। हालाँकि ऐसा प्रतीत होता है कि इस धारा का कारण महिला का हित नहीं है, बल्कि सरकार को विवाह को स्वीकृत या अस्वीकृत करने का नियंत्रण देना है। पंजीकरण के लिए प्राधिकारी उप-पंजीयक को विवाह पंजीकृत करने से इनकार करने का अधिकार है (अध्याय 13.2. ii)। उप-पंजीयक को जोड़े को लिखित में कारण बताना होगा। लेकिन संहिता का प्रारूप इतना घटिया है कि यह उन आधारों को निर्दिष्ट नहीं करता है, जिन पर पंजीकरण से इनकार किया जा सकता है। इसे खुला छोड़ दिया गया है। अपीलीय प्राधिकारी रजिस्ट्रार/रजिस्ट्रार जनरल हैं, जिनका निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होगा। (अध्याय 14.2) इससे सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारियों की दया पर निर्भर रहने वाला एक जोड़ा कितना प्रताड़ित हो सकता है, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है। उदाहरण के लिए, मान लीजिए, विवाह एक अंतर्जातीय या अंतर-सामुदायिक जोड़े का है, जिसे अधिकारी अस्वीकार करता है — यह संहिता उस अधिकारी को उनके जीवन में हस्तक्षेप करने और उन्हें दुखी करने की ताकत देता है। इसके अलावा “अंतिम” और “बाध्यकारी” का क्या यह अर्थ है कि जोड़ा अदालत नहीं जा सकता? संहिता अपने ख़राब प्रारूपण के कारण इसे स्पष्ट नहीं कर पाती है। इस प्रकार अनिवार्य पंजीकरण का एक खंड, जो महिलाओं की मदद कर सकता था, उसे प्रतिशोधी अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न की अनुमति देने के एक साधन में बदल दिया गया है। इसके अलावा, पंजीकरण के लिए आवेदन करने वाले जोड़े के सभी व्यक्तिगत विवरण और अस्वीकृति के कारणों के विवरण वाला रजिस्टर “किसी भी व्यक्ति द्वारा निरीक्षण के लिए खुला” रखा जाएगा (अध्याय 14. 15)। यह पूरी तरह से निजता का हनन है। इस तरह के अप्रिय खंड का एकमात्र कारण विवाह का विरोध करने वालों को चारा प्रदान करना है।

विवाह के लिए सार्वजनिक सूचना देने की बातसबसे पहले विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए) में पेश की गई थी। विवाह करने वाले ऐसे जोड़े, जिनके पास माता-पिता की मंजूरी नहीं हो सकती है, का अनुभव है कि ऐसे सार्वजनिक नोटिस वयस्कों की स्व-पसंद विवाह में अनुचित और अवांछित हस्तक्षेप के लिए आधार प्रदान करते हैं। विधि आयोग ने विषेश विवाह अधिनियम से ऐसे खंडों को हटाने और इसे सरल बनाने की सिफारिश की है, लेकिन एसएमए में सुधार करने के बजाय, इस पहलू को अनिवार्य पंजीकरण के लिए संहिता में शामिल किया गया है।

इसके अलावा, अनिवार्य पंजीकरण का खंड पूर्वव्यापी प्रभाव से है, जिसमें विशेष रूप से 2010 से पहले विवाहित सभी लोगों का उल्लेख है। यह एक बेतुकी शर्त है। यदि दंपत्ति पंजीकरण नहीं कराता है, तो इसे अपराध माना जाएगा और सजा का प्रावधान है — 10,000 रुपये से 25,000 रुपये तक का जुर्माना देना होगा और यदि अधिकारी द्वारा बयान झूठा पाया जाता है, तो तीन महीने की कैद हो सकती है। इस प्रकार सामाजिक सुधार को आगे बढ़ाने के एक उपाय को, एक दंपत्ति के साथ इस तरह से निपटने के लिए एक जबरदस्ती के उपकरण में बदल दिया गया है, जैसे कि वे अपराधी हों। इसके बजाय, सरकार द्वारा विवाहों को पंजीकृत करने की आवश्यकता के बारे में अभियान चलाया जाना चाहिए।

हिंदू विवाह अधिनियम कोई नागरिक संहिता नहीं है

संहिता में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के विवाह और तलाक पर धाराओं को लगभग पूरी तरह से दोहराया गया है और इसे सभी वर्गों और समुदायों पर लागू किया है। इस अधिनियम को हिंदू रूढ़िवादिता के खिलाफ डॉ. बाबसाहेब अंबेडकर के नेतृत्व में एक बड़ी लड़ाई के बाद अपनाया गया था, जो उस समय एक से अधिक पत्नी रखने का अधिकार चाहते थे, तलाक के अधिकार को अधिनियम में शामिल करने से इंकार कर रहे थे, हिंदू व्यक्तिगत कानूनों में कोई बदलाव नहीं चाहते थे, “निषिद्ध” रिश्तों की सूची जोड़े जाने और जोड़े के लिए एक ही जाति से संबंधित होने की शर्त को हटाने आदि के खिलाफ थे। सुधार के विरोधियों का मानना था कि चूंकि हिंदू “मान्यताओं” के अनुसार विवाह पवित्र था, इसलिए इसमें कोई भी हस्तक्षेप धार्मिक रीति रिवाज और विवाह की संस्था को नष्ट कर देगा। इस प्रकार हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 को रूढ़िवादिता से लेकर किसी भी प्रगतिशील परिवर्तन के प्रति संघर्ष और प्रतिरोध की पृष्ठभूमि में अपनाया गया था। इसलिए, हालांकि यह एक बड़ा कदम था, इसमें कई कमजोरियों को जन्म देने वाले समझौते की छाप भी है। उत्तराखंड यूसीसी, जो हिंदू विवाह अधिनियम के प्रमुख पहलुओं को ही सभी समुदायों पर लागू करता है, इन सभी कमजोरियों को जारी रखता है, विशेष रूप से निषिद्ध विवाह, तलाक, तथाकथित वैवाहिक अधिकारों आदि के संदर्भ में। इसमें मौजूदा असमानताओं को बरकरार रखते हुए, गोद लेने और संरक्षकता के मुद्दों को छोड़ दिया गया है। यह समान लिंग संबंधों को मान्यता नहीं देता है और इस प्रकार एक तरह से ऐसे संबंधों को अपराध मानता है।

जो लोग शादी कर सकते हैं और जो नहीं कर सकते, उन पर प्रतिबंध हिंदू विवाह अधिनियम 1955 से लिया गया है और समाज के सभी वर्गों पर थोपा गया है। उदाहरण के लिए, कुछ समुदायों में, चचेरे भाई-बहन शादी कर सकते हैं, यह एक प्रथा, परंपरा और उपयोग दोनों है। उत्तराखंड संहिता में यह निषिद्ध विवाहों में से है। साथ ही, यह भी कहा गया है कि यदि रीति-रिवाज और उपयोग की अनुमति है, तो इसकी अनुमति दी जा सकती है, बशर्ते यह “सार्वजनिक नीति और नैतिकता के विरुद्ध न हो।” यह निर्णय कौन करेगा कि क्या नैतिक है या क्या नहीं? केवल सरकार और उसकी नौकरशाही। यह प्रयोग और रीति-रिवाज की व्याख्या के लिए निंदनीय स्थिति है।

तलाक

तलाक के मुद्दे पर भी संहिता सरकारी अधिकारियों को इसी प्रकार का हस्तक्षेप करने की शक्ति देती है। तलाक या विवाह को रद्द करने को भी पंजीकृत करना होगा। यहां फिर से सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारियों को तलाक दर्ज न करने का अधिकार दिया गया है। जब अदालतें तलाक दे देती हैं, तो सरकारी अधिकारी कौन होता है, जो इसे पंजीकृत करने से इंकार कर दें? हिंदू विवाह अधिनियम का यह अतार्किक प्रतिबंध कि शादी के एक साल बाद तक तलाक की कोई कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती, बरकरार रखा गई है। यदि किसी महिला की शादी एक हिंसक जीवनसाथी से हुई है, तो उसे तलाक की कार्यवाही शुरू करने के लिए एक साल तक इंतजार क्यों करना चाहिए? (अध्याय 4.28.1) इसके अलावा एक वर्ष की अवधि से पहले तलाक के लिए आधार जैसे “असाधारण भ्रष्टता और कठिनाई” अपरिभाषित हैं, ताकि पत्नी की पिटाई जैसे अपराध को “कठिनाई” नहीं माना जा सके। अदालत को तलाक की याचिका में वैकल्पिक “राहत” के रूप में तलाक नहीं, बल्कि “न्यायिक अलगाव” देने का भी अधिकार है, जिससे तलाक का अधिकार कमजोर हो जाता है। जहां तक आपसी सहमति से तलाक का सवाल है, एचएमए का “एक साल तक अलग-अलग रहने” का प्रावधान बरकरार रखा गया है। “अलग से” का क्या मतलब है? कभी-कभी तलाक लेने का फैसला कर चुके जोड़े विभिन्न परिस्थितियों के कारण एक ही छत के नीचे रहते हैं, भले ही वैवाहिक रिश्ते में नहीं। जब एक जोड़े ने तलाक लेने का फैसला कर लिया है, तो शर्तें क्यों रखी जाएं?

बहुविवाह और हलाला

भाजपा द्वारा संहिता (खंड 29) में बहुविवाह पर प्रतिबंध के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। जहां तक मुस्लिम समुदाय का सवाल है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीन तलाक को गैरकानूनी घोषित करने के बाद अपनाया गया मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 पहले से ही लागू था। संहिता का खंड 29 इसे दोहराता है लेकिन एक नकारात्मक अंतर के साथ। जबकि अधिनियम, 2019 “नाबालिग बच्चों” की हिरासत मां को देता है, संहिता बच्चे की मातृ हिरासत को केवल पांच साल की उम्र तक सीमित करती है (अध्याय 5.35.2)। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 में प्रदर्शित बहुविवाह के आंकड़े बताते हैं कि इससे मुस्लिम महिलाएं ही नहीं, बल्कि अन्य समुदाय की महिलाएं भी प्रभावित होती हैं। इसमें 1.9 प्रतिशत मुसलमानों और 1.3 प्रतिशत हिंदू महिलाओं ने कहा कि उनके पतियों की एक से अधिक पत्नियाँ थीं। सर्वेक्षण के अनुसार एक से अधिक पत्नियों वाले पुरुषों की सबसे अधिक संख्या वाले समुदाय में 2.4 प्रतिशत के साथ आदिवासी समुदाय, 1.4 प्रतिशत के साथ अनुसूचित जाति, 1.3 प्रतिशत ओबीसी और 1.2 प्रतिशत अन्य शामिल हैं। इससे यह भी पता चलता है कि विभिन्न समुदायों में बहु विवाह के राष्ट्रीय औसत में गिरावट आ रही है। इस प्रकार मुसलमानों के बीच बहुविवाह से निरंतर परहेज, समुदाय को लक्षित करने के लिए एक सांप्रदायिक अभियान के अलावा और कुछ नहीं है, न कि सभी समुदायों की उन सभी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने के लिए, जो बहुविवाह वाले पतियों के साथ रहती हैं। यह याद रखने की जरूरत है कि यह हमेशा साहसी मुस्लिम महिलाएं ही रही हैं, जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए समुदाय के भीतर रूढ़िवाद को चुनौती दी है। समीना बेगम ने ही हलाला जैसी घृणित प्रथा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। मामला 2018 से चल रहा है। संहिता (अध्याय 4. 30.2) ऐसी किसी भी प्रथा पर रोक लगाती है। वैसे भी ऐसे मामले दुर्लभ हैं, लेकिन ऐसा कदम उठाने से पहले उत्तराखंड सरकार को समुदाय के साथ चर्चा करनी चाहिए थी। निकाह के सकारात्मक पहलुओं को संहिता में शामिल किया जा सकता था — जैसे कि मेहर की अवधारणा, जहां शादी के समय महिला को पहले से तय राशि का भुगतान करना होता है और यदि इसे टाल दिया जाता है, तो तलाक के मामले में यह, भरण-पोषण के अधिकार के अलावा, अनिवार्य है। निकाह में ब्रेकअप की स्थिति में दोनों पक्षों के बीच एक अनुबंध का भी प्रावधान है। इससे महिला को कुछ शर्तों पर बातचीत करने की अनुमति मिलती है।

संहिता में बिना दहेज विवाह का प्रावधान भी शामिल हो सकता था। लेकिन इनमें से किसी भी सुधार पर विचार नहीं किया गया है। यह महज़ बहुसंख्यकवादी सोच थोपना है।

अनिवार्य सहवास

वर्तमान कानून यह है कि एक पक्ष द्वारा अलग होने की स्थिति में पति-पत्नी में से कोई भी “दाम्पत्य अधिकारों की बहाली” की मांग कर सकता है। इस प्रावधान को संहिता (अध्याय 3.21) में शामिल किया गया है, जो इस विचारधारा के साथ अच्छी तरह से फिट बैठती है कि विवाह पवित्र है, भले ही युगल नाखुश हों। समस्याग्रस्त विवाहों में महिलाओं के बीच हमारे काम में हमने पाया है कि ऐसी महिलाएं थीं, जिनके पतियों ने उन्हें छोड़ दिया था, जो अपने पतियों को “वापस” लाने के लिए कानूनी रास्ते के रूप में इस खंड का उपयोग करना चाहती थीं। हालाँकि, उन्हें जल्द ही पता चला कि भले ही अदालत ने “दाम्पत्य अधिकारों की बहाली” के पक्ष में फैसला सुनाया हो, अगर डिक्री को एक वर्ष के भीतर लागू नहीं किया गया, तो बिना किसी देरी के तलाक की अनुमति दी गई। इस प्रकार महिलाओं की रक्षा करने वाला यह कानून विपरीत तरीके से कार्य करता है। मुख्य आपत्ति यह है कि इस कानून का इस्तेमाल पुरुषों द्वारा महिलाओं को पति से अलग होने पर उनके “दाम्पत्य अधिकारों” को मानने के लिए मजबूर करने के लिए किया जाता है। आम तौर पर कोई भी महिला तब तक तलाक या अलग होना नहीं चाहेगी, जब तक ऐसा करने के जायज कारण न हों, खासकर अगर बच्चे हों। जब एक महिला अलग होने का निर्णय लेती है, तो वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिंग खंड को तटस्थ बनाए रखना प्रतिगामी है। संहिता में इस्तेमाल की गई भाषा ही पितृसत्तात्मक है और वास्तव में वैवाहिक बलात्कार को मंजूरी है। उदाहरण के लिए न्यायिक पृथक्करण के मुद्दे पर (अध्याय 3.22.2) यह कहा गया है कि “जहां न्यायिक पृथक्करण का आदेश पारित किया जाता है, वहां याचिकाकर्ता के लिए प्रतिवादी के साथ रहना अनिवार्य नहीं होगा।” इस धारा को अदालतों में चुनौती दी गई है। संहिता में इसे शामिल नहीं किया जाना चाहिए था।

मनुवादी आक्रमण

संहिता में जिस अनुभाग पर कई टिप्पणीकारों ने सबसे अधिक ध्यान और आलोचना की है और यह सही भी है, वह संहिता में अंतरंग साझेदारियों की व्यक्तिगत पसंद में अत्यधिक मनुवादी आक्रमण है। “लिव इन रिलेशनशिप” (भाग 3, 378-389) के रूप में वर्णित यह खंड दो वयस्कों के बीच स्व-पसंद, लिव इन रिलेशनशिप को विवाह ढांचे में बांधने का प्रयास करता है। ऐसी साझेदारी यदि एक महीने से अधिक पुरानी हो, तो पंजीकृत होनी चाहिए। यहां तक कि अगर कोई ऐसे लिव-इन रिलेशनशिप में शामिल होने का कोई “इरादा” रखता है, तो भी इसे पंजीकृत किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से यह सूत्रीकरण वास्तविक जीवन के रिश्तों के प्रति अपनी पूर्ण असंवेदनशीलता के लिए विश्व पदक का हकदार है! यदि अगले महीने, युगल अलग होने का निर्णय लेते हैं, तो उसे भी पंजीकृत करना पड़ेगा। पंजीयक को “सारांश जांच” करना अनिवार्य होगा। इस प्रकार पंजीकरण का कार्य ही जोड़े को उनके रिश्ते में “जांच” के लिए खुला छोड़ देता है और यदि रजिस्ट्रार को कुछ “संदिग्ध” लगता है, तो पुलिस को सूचित किया जाएगा। इससे भी अधिक आक्रामक, यदि पंजीकरण प्राधिकारी को “शिकायत” मिलती है कि एक जोड़ा एक साथ रह रहा है और उसने पंजीयन नहीं कराया है, तो शिकायत को नोट किया जाएगा और कार्रवाई की जाएगी। यह सतर्कता का स्पष्ट वैधीकरण है। जिस तरह आपके पास सार्वजनिक स्थानों पर युवा जोड़ों का शिकार करने वाले रोमियो दस्ते और एंटी-वेलेंटाइन दिवस दस्ते हैं, अब आपके आसपास उपद्रवी और गुंडे होंगे, जो घरों में घुसकर यह जानने की मांग करेंगे कि साथ रहने वाले युवा जोड़े पंजीकृत हैं या नहीं, अब अंतर यह होगा कि ऐसी गतिविधि अब संहिता की कानूनी मंजूरी होगी। यह वयस्कों की पसंद की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार पर सीधा हमला है, यह निजता के अधिकार का मखौल उड़ाने के अलावा मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन है। यह एक वयस्क महिला पर नियंत्रण स्थापित करना है, जो मनुवादी दृष्टिकोण का मूल है। अगर ऐसा रजिस्ट्रेशन नहीं कराया गया, तो कम से कम तीन महीने से छह महीने तक की सजा हो सकती है। यह संहिता राज्य के बाहर रहने वाले जोड़ों तक निगरानी की लंबी पहुंच रखती है, यदि उनमें से एक उत्तराखंड का निवासी है। उन्हें अपने लिव इन रिलेशनशिप को “रजिस्ट्रार” के पास पंजीकृत करने के लिए कहा जाएगा, जहां वे रहते हैं। संहिता स्वयं क्षेत्राधिकार की कमी को पहचानती है, इसलिए राज्य के बाहर रहने वाले लोगों के लिए प्रासंगिक खंड में भाषा को बदल देती है (378.2) “राज्य के बाहर रहने वाले उत्तराखंड के निवासी लिव-इन रिलेशनशिप आदि का विवरण प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं।” सहमति देने वाले वयस्कों की पसंद पर असंवैधानिक शर्तें थोपने की पूरी अवधारणा कि वे कैसे रहते हैं, एक घृणित बात है, जिसका हमारी क़ानून की किताब में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

संपत्ति और उत्तराधिकार अधिकार

वर्तमान व्यक्तिगत कानूनों में उत्तराधिकारियों और उनकी विस्तृत परंपराएँ हैं। समान नागरिक संहिता ने इसमें शामिल समुदायों के साथ बहस किए बिना उन सभी को खत्म कर दिया है। यह पुरुषों और महिलाओं के बीच समान अधिकार सुनिश्चित करने का दावा करता है, विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं को लाभ मिलने का। उत्तराखंड की संहिता मुस्लिम बेटों और बेटियों के लिए समान हिस्सेदारी सुनिश्चित करने का दावा करता है, क्योंकि वर्तमान में एक मुस्लिम बेटी को अपने भाइयों का केवल आधा हिस्सा मिलता है। यह भी दावा किया गया है कि यह पैतृक और स्वयं अर्जित संपत्ति के बीच मौजूदा अंतर को दूर कर रहा है। ये दावे भ्रामक हैं। संहिता संपत्ति धारक को अपनी पूरी संपत्ति को वसीयत करने का अधिकार देती है। यह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 2005 में हुए सुधार को रद्द कर देता है, जो महिला आंदोलनों के लंबे संघर्ष के बाद, कम से कम पैतृक संपत्ति में बेटे और बेटियों को जन्म के आधार पर बराबरी का हिस्सा देता था। वर्तमान में अधिकांश व्यक्तिगत कानून यह सुनिश्चित करते हैं कि महिलाओं के लिए संपत्ति में एक निश्चित हिस्सेदारी की गारंटी हो। इस अर्थ में यह संहिता महिलाओं को उस गारंटीशुदा हिस्सेदारी से भी वंचित कर देगी, जो उनके पास अब तक है। बेटियों के प्रति पूर्वाग्रह को अब एक बार फिर कानूनी मंजूरी मिल गई है, जहां पूरी संपत्ति पुरुष उत्तराधिकारियों को देने का रिवाज है। कृषि भूमि के मामले में यह और भी अधिक है। चूंकि बेटियों को पैतृक संपत्ति में अपने हिस्से के रूप में कृषि भूमि विरासत में मिलती है, इसलिए उनके परिवार के पुरुषों का उस अधिकार को छोड़ने का जबरदस्त दबाव होता है। संहिता बेटियों को कृषि भूमि में हिस्सा न देना आसान बनाती है। हिंदू संयुक्त परिवारों के अधिकारों का प्रश्न, जो कि अन्य समुदायों की तुलना में हिंदुओं को प्राप्त एक विशेषाधिकार है, जस का तस बना हुआ है, क्योंकि संहिता में इसका कोई उल्लेख नहीं है। जल्दबाजी में तैयार किया गया यह कोड, महिलाओं की मदद करने का दावा करते हुए वास्तव में उनके मौजूदा अधिकारों और सुरक्षा को ख़त्म कर देता है, क्योंकि किसी की पूरी संपत्ति पर वसीयत करने का अधिकार एक बड़ा बदलाव है। वैवाहिक संपत्ति पर अधिकार की लंबे समय से मांग रही है। संहिता में इस अधिकार को शामिल करने का अवसर था, लेकिन संहिता के वैचारिक आधार को देखते हुए, इसे नजरअंदाज कर दिया गया है।

निष्कर्ष

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता एक घटिया कानून है, जिसे एक संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपनाया गया है। यह एकरूपता और समानता दोनों ही दृष्टि से धोखा है। यह सरकार में सहमति वाले रिश्तों पर सत्ता को केंद्रीकृत करता है, जो संविधान विरोधी है। यह सभी समुदायों पर बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण थोपना चाहता है। सीपीआई (एम) इस संहिता का विरोध करती है और इसे वापस लेने की मांग करती है।

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