राजेंद्र शर्मा
मोदी सरकार द्वारा हाल में पारित कराए गए कथित ‘‘नये’’ अपराध कानूनों में, जिनका औपनिवेशिक कानूनों से ‘‘मुक्ति’’ के रूप में खूब ढोल पीटा जा रहा है, अब मूल नाम हिंदी में रखे जाने के सिवा, नया और औपनिवेशिकता-विरोधी क्या है, इसके लिए दूरबीन से खोजने की जरूरत है। लेकिन, एक चीज जो किसी एक या किन्हीं एक प्रकार के कानूनों के मामले में नहीं, बल्कि आम तौर पर इस समूची ‘‘न्याय संहिता’’ के बारे में ही सच है, वह है नागरिकों के अधिकारों को ज्यादा से ज्यादा घटाने की और सजाओं को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की प्रवृत्ति, जो औपनिवेशिक राज की परंपरा के बनाए रखे जाने को ही नहीं, आगे बढ़ाए जाने को भी दिखाती है। औपनिवेशिक राज में ऐसी प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह प्रवृत्ति उस दौर के शासक और शासित के बीच, बुनियादी अंतर्विरोध को ही दिखाती है। लेकिन, औपनिवेशिक शासन से आजाद हो चुके, एक औपचारिक रूप से जनतांत्रिक देश में इस तरह की प्रवृत्ति का आगे बढ़ाया जाना, मौजूदा शासन के पूरी तरह से आम नागरिकों की विशाल संख्या के खिलाफ हो जाने को ही दिखाता है। लेकिन, जहां औपनिवेशिक शासन, आम जनता के विरोध के दमन के जरिए, अपने आम जनता विरोधी राज को बनाए रखने की कोशिश करता था, वर्तमान शासन धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता का नशा पिलाने के जरिए, नागरिकों और खासतौर पर बहुसंख्यक समुदाय की अपने हित की चेतना को ही कुंद करने के जरिए, ठीक वही करता नजर आ रहा है।
इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि इस कथित नयी न्याय संहिता के तहत एक ‘‘सख्त’’ कर दिए गए कानून के खिलाफ परिवहन उद्योग की और खासतौर पर ड्राइवरों की देशव्यापी हड़ताल ने, नये साल के पहले दिनों में ही देश में अनेक जगहों पर, आपूर्तियों को बाधित कर, मुश्किलें खड़ी कर दी और यहां तक कि बहुत सी जगहों पर वाहनों के ईंधन की भी गंभीर तंगी पैदा कर दी थी। फिर भी सरकार के कान पर कोई खास जू तक रेंगी नहीं लगती है। उल्टे नये साल के पहले दिन, जब सडक़ परिवहन उद्योग और खासतौर पर ट्रक, बस, टैक्सी आदि के ड्राइवरों की यह हड़ताल शुरू हुई, देश का शासन जैसे अयोध्या के अपने 30 दिसंबर के रोड शो, उद्घाटन, घोषणा कार्यक्रम से प्रधानमंत्री मोदी ने, जिस ‘‘राम मंदिर’’ भुनाओ अभियान की विधिवत शुरूआत की थी, उसकी खुमारी से ही निकला नहीं था। तभी तो, जनजीवन को प्रभावित करने वाली किसी हड़ताल को संभालने के लिए, सामान्यत: किसी जनतांत्रिक व्यवस्था में जिस तरह के कदम उठाए जाते हैं, उस प्रकार के कदमों या चिंता का कहीं दूर-दूर तक अता-पता ही नहीं था। शासन निश्चिंत था कि राम मंदिर के उद्घाटन से जुड़ा उसका अभियान, ऐसी हरेक आवाज को तुच्छ बना देगा। कहां इतना बड़ा काम हो रहा है और कहां ये ड्राइवर वगैरह,अपनी मामूली शिकायतें ले आए हैं! बहरहाल, हड़ताल के जबर्दस्त असर ने जैसे मोदी सरकार को झकझोर कर जागने के लिए मजबूर कर दिया और हड़ताल की दूसरी शाम ही, हड़ताल का आह्वान करने वाली, आल इंडिया रोड ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के बाद, केंद्र सरकार इसका एलान करने के लिए तैयार हो गयी कि नये कानून के ‘‘हिट एंड रन’’ संबंधी प्रावधानों को अभी लागू नहीं किया जाएगा और उन्हें रोड ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के साथ चर्चा के बाद ही लागू किया जाएगा। सडक़ परिवहन कर्मियों के साथ ही नहीं, संसद तक में बिना किसी बहस-मुबाहिसे के हाल ही के सत्र में विपक्ष की गैर-हाजिरी में संसद से ठप्पा लगवाए गए इस कानून का पालन स्थगित कराने में आंशिक सफलता के बाद भी, वाहन चालक हड़ताल वापस लेने के मूड में नहीं थे।
ड्राइवरों की शिकायतों का मुद्दा एकदम सरल है। नये कानून में दुर्घटना में मौत की सजा को बढ़ाकर ‘‘हत्या’’ की सजा के करीब पहुंचा दिया गया है। अब तक दुर्घटना से मौत के लिए 2 साल की कैद का प्रावधान था। जाहिर है कि दुर्घटना होने की स्थिति में, ड्राइवर की लापरवाही को ही दुर्घटना के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन, नये कानून में ऐसी मौत होने की सूरत में सजा सीधे बढ़ाकर 5 साल तक कर दी गयी है और इसके अलावा तगड़े जुर्माने का भी प्रावधान है। ‘‘सख्ती’’ पर इसी जोर को आगे बढ़ाते हुए, ‘‘हिट एंड रन’’ यानी वाहन चालक के दुर्घटना की जगह से भाग जाने की सूरत में, सजा और बढ़ाकर 10 साल की कैद तक कर दी गयी है और जुर्माना भी 7 लाख रुपए कर दिया गया है।
कहने की जरूरत नहीं है कि इस देश में कॉमर्शियल वाहनों के ड्राइवरों की जिंदगी की सचाइयों के संबंध में जरा-सी भी बाखबर किसी भी सरकार ने, सजा के प्रावधानों में इस तरह की सख्ती लाने से पहले, अपने कदमों के प्रभाव पर बीस बार सोचा होता। और जाहिर है कि जनतांत्रिक व्यवस्था में संबंधित तबके से बातचीत के जरिए, उनके लिए कम से कम दिक्कतें पैदा करते हुए, अपना उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा आगे बढ़ाने का रास्ता निकाला गया होता। लेकिन, वर्तमान सरकार ने इस पूरे मामले में ड्राइवरों को दोषी और उससे भी बढक़र अपराधी की नजर से देखा लगता है। यह इसके बावजूद है कि यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है कि कोई पेशेवर ड्राइवर जान-बूझकर दुर्घटनाएं नहीं करता है। बेशक, दुर्घटना में विक्टिम तो स्वत:स्पष्ट होता है, लेकिन ड्राइवर को ‘‘अपराधी’’ और उसमें भी हत्या जैसे जघन्य अपराध के अपराधी की तरह देखा जाना भी, किसी भी तरह से न्यायपूर्ण नहीं है। लेकिन, यहां वर्तमान शासन तो, ‘‘जान के बदले जान’’ के आग्रह से संचालित लगता है, जिसकी जगह सिर्फ आदिम कानूनों में हो सकती है, किसी आधुनिक न्याय व्यवस्था में नहीं।
एक ओर 7 लाख रुपए तक जुर्माने का प्रावधान और दूसरी ओर, दुर्घटना स्थल से भागने के नाम पर, जेल की सजा बढ़ाकर 10 साल किए जाने में, यह और भी साफ दिखाई देता है कि इस कानून को बनाने वालों का वास्तविकताओं से कुछ लेना-देना ही नहीं है। वर्ना 7 लाख रु0 के जुर्माने का प्रावधान करते हुए, यह तो ध्यान में आया होता कि देश में पेशेवर ड्राइवर की आय औसतन, पच्चीस-तीस हजार रूपये से ज्यादा नहीं होगी। ऐसे में करीब दो साल की कुल आय के बराबर जुर्माना कोई ड्राइवर कहां से भरेगा और वह भी तब, जबकि जेल की सजा की अवधि कई गुना बढ़ायी जा रही है। लंबी सजा के साथ, ड्राइवर के बाकी परिवार के लिए भी जुर्माने की ऐसी रकम जुटाना मुश्किल होगा।
बहरहाल, इससे भी ज्यादा वास्तविकताओं से कटा हुआ है, दुर्घटना स्थल से भागने के ‘‘अपराध’’ के लिए जेल और जुर्माने, दोनों की सजा में उल्लेखनीय बढ़ोतरी का फैसला। दुर्घटना को इरादतन अपराध की तरह न देखने वाला कोई भी व्यक्ति इस सचाई को अनदेखा नहीं कर सकता है कि दुर्घटना में मौत होने की सूरत में, मृतक के परिजनों की ही नहीं, आम लोगों की भी प्रतिक्रिया, बहुत बार काफी हिंसक हो जाती है। ऐसी सूरत में ड्राइवर से घटनास्थल पर रुके रहने की अपेक्षा करना, उससे जान जोखिम में डालने की ही अपेक्षा करना है। रही पुलिस को सूचित करने की बात तो, ज्यादातर मामलों में कामर्शियल वाहनों के ड्राइवर घटनास्थल से भागकर, पुलिस के पास ही जाते हैं। यह अक्सर उनके लिए प्राणरक्षा के उपाय के तौर पर कारगर भी होता है। लेकिन, पुलिस और कॉमर्शियल वाहनों के ड्राइवरों के रिश्तों की हमारे यहां जो आम व्यवस्था है, उसमें यह भी ड्राइवर के लिए आर्थिक रूप से काफी महंगा ही पड़ता है। ऐसे में पुलिस को सूचित करने-न करने की सूरत में सजाओं का भारी अंतर, पुलिस के हाथों में वसूली का एक और हथियार बन सकता है। आखिरकार, इसका साक्ष्य तो पुलिस के ही हाथ में होगा कि उसे दुर्घटना करने वाले ड्राइवर ने खुद इसकी जानकारी दी थी, या पुलिस ने तफ्तीश में उससे संबंधित जानकारी ‘‘निकलवायी’’ थी! कहने की जरूरत नहीं है कि मजिस्ट्रेट को सूचित करने का विकल्प, महज एक कागजी विकल्प ही रह जाने वाला है।
बेशक, हमारे देश मेें सड़क दुर्घटनाओं में मौतें असह्य रूप से ज्यादा हैं। 2021 में भारत में सडक़ दुर्घटनाओं में 1,53,792 मौतें दर्ज हुई थीं, जबकि 2018 में यही आंकड़ा 1,50,785 था। 2010 में सडक़ दुर्घटना में मौतें 1.3 लाख ही रही थीं। साफ तौर पर यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। यह और भी परेशान करने वाली बात है कि भारत में तो ये मौतें बढ़ती ही जा रही हैं, जबकि दुनिया के पैमाने पर इन्हीं मौतों में 5 फीसद की गिरावट दर्ज हुई है। लेकिन, अगर सरकार हड़बड़ी में, सड़क दुर्घटना में मौतों के मामले में वाहन चालकों के लिए सजा बढ़ाने जैसे कदमों का सहारा लेती है, तो उससे इस समस्या पर काबू पाने में कोई मदद नहीं मिलने वाली है। सचाई यह है कि ड्राइवरों की लापरवाही से भी ज्यादा संख्या में इन मौतों के पीछे सड़कों की डिजाइन से लेकर रख-रखाव, भारी वाहनों के लिए मार्ग-अलगाव, अलग-अलग श्रेणी के वाहनों का अलगाव आदि-आदि की कमजोरियां काम करती हैं। इसीलिए, विकसित दुनिया में वाहनों की संख्या कई गुना ज्यादा होने के बावजूद, सडक़ दुर्घटना मौतों का आंकड़ा न सिर्फ विकासशील देशों की तुलना में एक-तिहाई से भी कम है, इस आंकड़े में और कमी भी हो रही है। दूसरी ओर, हमारे देश में तो ढांचागत क्षेत्र तथा सड़क निर्माण व संचालन तथा रख-रखाव के बढ़ते निजीकरण के चलते, अब बेहतर प्रौद्योगिकियां आने के बावजूद, इन पहलुओं की पहले से भी ज्यादा उपेक्षा हो रही है। इसके ऊपर से हमारे देश में कथित गोरक्षा के जुनून में सड़कों पर आवारा मवेशियों की बढ़ती संख्या के लिए दरवाजे और खोल दिए गए हैं। ऐसे में भारतीय न्याय संहिता का गरीब वाहन चालकों को ही अपराधी बनाकर पीसना, न तो भारतीय है और न न्याय; ये तो सरासर अन्याय है। हैरानी की बात नहीं है कि वाहन चालकों की हड़ताल, कानून के इस मनमाने बदलाव को ही वापस लिए जाने के लिए थी।