भू कानून लाएगा ‘भूचाल’ !

  • उत्तराखंड वासियों ने की 1950 के भू कानून को लागू करने की बात
  • सरकार नहीं जागी तो आगे व्यापक पैमाने पर होगा जन आंदोलन
  • आंदोलन का नेतृत्व राज्य आंदोलनकारियों, महिलाओं, युवाओं और लोक कलाकारों ने संभाला

-आसा असवाल, देहरादून।

उत्तराखण्ड (Uttarakhand) राज्य की मांग सर्वप्रथम 1897 में उठी और धीरे-धीरे यह मांग अनेक समय पर उठती रही। 1994 में इस मांग ने जन आन्दोलन का रूप ले लिया और आखिरकार नियत तिथि 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंडियों का सपना साकार हुआ और नए राज्य का गठन हुआ। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में 24 दिसंबर 2023 को हुई उत्तराखंड स्वाभिमान रैली ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन की याद दिला दी। मुद्दा सिर्फ स्थाई निवास बनाम मूल निवास है। राज्य की जनता इसी पशोपेश में है कि सरकार के अनुसार वह मूल निवासी है या स्थाई निवासी आखिर क्या है यह मूल निवास प्रमाण पत्र।

क्या है मूल निवास प्रमाण पत्र
उत्तराखंड में 1950 के मूल निवास की समय सीमा को लागू करने की मांग की जा रही है। देश में मूल निवास यानी अधिवास को लेकर साल 1950 में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन जारी हुआ था। इसके मुताबिक देश का संविधान लागू होने के साथ वर्ष 1950 में जो व्यक्ति जिस राज्य का निवासी था, वो उसी राज्य का मूल निवासी होगा। वर्ष 1961 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने दोबारा नोटिफिकेशन के जरिये ये स्पष्ट किया था। इसी आधार पर उनके लिए आरक्षण और अन्य योजनाएं चलाई गईं। पहाड़ के लोगों के हक और हितों की रक्षा के लिए ही अलग राज्य की मांग की गई थी। उत्तराखंड बनने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी भाजपा सरकार ने राज्य में मूल निवास और स्थायी निवास को एक मानते हुए इसकी कट ऑफ डेट वर्ष 1985 तय कर दी।
24 दिसंबर 2023 को पवेलियन ग्राउंड देहरादून में देखने को मिला जहां पर भू आंदोलन और भू-कानून 1950 को लागू करने के लिए हजारों की भीड़ इकट्ठा हुई। यह आंदोलन सिर्फ उत्तराखंड राज्य की राजधानी देहरादून में ही नहीं देखा गया इसका असर चमोली और कुमाऊं जिले के कई क्षेत्रों में भी देखा गया। आखिर अपना राज्य मिलने के बावजूद उत्तराखंड वासियों की पीड़ा क्या है …

इसी संदर्भ में आंदोलनकारियों के साथ स्वर से स्वर मिलाने वाली एक उत्तराखंड की राजधानी देहरादून निवासी महिला नीमा भंडारी ने बताया कि उत्तराखंड राज्य बनने के बाद बाहरी लोग यहां के स्थाई निवासी बन गए हैं। आज स्थिति यह है कि मूल निवासियों को बाहरी लोगों ने हाशिए पर खड़ा कर दिया है। देहरादून में बैठे गद्दी सीन सिर्फ अपना भला चाहते हैं, राज्य के मूल निवासी भटक रहे हैं। 23 साल से यही चल रहा है लेकिन अब उत्तराखंड के लोग जाग गए हैं।

उत्तराखंड आंदोलनकारी मंच के प्रदेश प्रवक्ता प्रदीप कुकरेती ने बताया कि सरकार ज्ञापन का झुनझुना जनता की आवाज को दबाने के लिए ही पकड़ा रही है उन्होंने कहा यह कोई नया मसला नहीं है उत्तराखंड स्वाभिमान रैली वर्ष 2012 में भी राज्य आंदोलनकारी मंच द्वारा निकाली गई थी और 8 अगस्त को क्रांति दिवस का आगाज भी किया गया था। उन्होंने कहा कि गढ़ रतन प्रसिद्ध लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी जी के आह्वान पर ही इतना बड़ा उत्तराखंड का जन सैलाब सड़कों पर उमर पड़ा इसमें युवा अधिक थे। अब सरकार पर इसका क्या असर होगा इस विषय पर उन्होंने बताया कि यह स्वाभिमान रैली और इसमें जुटी भीड़ एक प्रकार से सरकार के लिए गर्म दूध साबित होगी जिसे ना तो वह पी पाएगी और ना ही छोड़ सकेगी। इसी की बानगी मूल निवास कानून के लिए गठित कमेटी का अध्यक्ष निष्पक्ष प्रशासनिक अधिकारी राधा रतूड़ी जी को बनाया जाना है। जिन उद्देश्यों को लेकर पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग की गई थी हम उस पर खरा नहीं उतर पाए। हम अपने अधिकारों और हक हकूकों से पीछे छूटते चले गये। हमारे उत्तराखंड में बसे नागरिकों के मूल निवासियों का रोजगार न होना, छोटे छोटे ठेकेदार के हक मारे गये, जमीनें छिन गईं रोजगार एजेंसियों का भी बाहरी प्रदेशों से अतिक्रमण हो गया। हम सीमांत और विषम परिस्थितियों वाले राज्य हैं। अब सरकार को चाहिये कि विधान सभा में प्रदेश के नागरिकों के लिए ठोस नीति बनाए जिसमें हमारे नौनिहालों का रोजगार व हमारी भूमि और संस्कृति के साथ जल जंगल जमीन संरक्षित और सुरक्षित रह सकें।

कवयित्री एवं संस्कृति कर्मी शांति अमोली बिंजोला का कहना है कि आंदोलन सही है मै समर्थन करती हूं ये हमारा अधिकार है। पूरे विश्व में इस धरती को भगवान और ऋषियों ने तपस्या के लिए चुना। ये पावन भूमि है इसे पवित्र रखना और सुरक्षित रखना यहां के रैवासियों का नैतिक अधिकार है।

 देहरादून निवासी ममता असवाल ने आक्रोश जताते हुए बताया कि जनता मूर्ख नहीं है। आज जनता स्थाई और मूल निवास के बीच झूल रही है जिसका फैसला होना आवश्यक है कई राज्यों के अपने लैंड बैंक हैं। हिमाचल का अपना स्थाई भू-कानून है लेकिन उत्तराखंड राज्य के 23 साल के बावजूद राज्य का कोई स्थाई कानून नहीं है। यहां राजधानी भी दो हैं, जो राज्य निवासियों के साथ सिर्फ छल प्रतीत होता है। यही वजह है कि उत्तराखंड स्वाभिमान रैली में सरकारों के प्रति गुस्से के सैलाब में डौर-थाली, हुड़का, मसक बाज और ढोल-दमाऊ की थाप पर स्वनाम धन्य नरेंद्र सिंह नेगी के गीत परेड ग्राउंड से शहीद स्थल तक गूंजते रहे। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह रहा कि अपने आप में बड़े-बड़े पर्यावरण विद् उत्तराखंड की शोभा बढ़ा रहे हैं लेकिन उनमें से शायद ही कोई इस रैली को राज्य की प्राकृतिक संपदा और संस्कृति के संरक्षण के तहत देखता हों पहाड़ी ढोल-दमाऊ और रणसिंघे की हुंकार से उत्तराखंड शासन में कंपकपाहट स्पष्ट देखी गई। प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो आम लोकसभा चुनाव पर इस महा रैली का कोई दुर्भाग्यपूर्ण असर ना हो और लोकसभा की पांचों सीट भाजपा के ही खाते में आए, इसी डर से उसी दिन सरकार द्वारा महारैली निकाली गई।
वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र अन्थवाल ने कहा कि हम आज पहाड़ों पर अपना मालिकाना हक जमा रहे हैं। उन्होंने कहा कि राज्य की सबसे बड़ी समस्या है यहां पर भूतिया गांवों का हजारों की संख्या में होना। इन गांवों में अब बड़े बुजुर्ग भी नहीं बचे हैं, बल्कि कई गांव बिल्कुल वीरान हो चुके हैं। सरकार को 5 साल तक जो अपनी जमीन पर काम नहीं करता है वैसी जमीनों और उनके घरों का अधिग्रहण कर लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में इन्वेस्टर समिट का भव्य आयोजन किया गया तो इन्वेस्टर समिट में हुए ऐसे कई एमओयू हैं जो उत्तराखंड के हित में है। सरकार को मैदानी क्षेत्रों के विकास को ही ध्यान में नहीं रखना चाहिए, बल्कि पहाड़ों में ऐसे उद्योगों की स्थापना की जानी चाहिए जिससे युवाओं को रोजगार मिल सके और पहाड़ों में रहने को लोग प्रेरित हो सके।

मूल निवास का मुद्दा
मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति ने जिन दो मुद्दों को लेकर आंदोलन छेड़ा है उसमें कई मांगें हैं। जैसे, प्रदेश में ठोस भू कानून लागू हो, शहरी क्षेत्र में 250 मीटर भूमि खरीदने की सीमा लागू हो, ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगे, गैर कृषक की ओर से कृषि भूमि खरीदने पर रोक लगे। साथ ही पर्वतीय क्षेत्र में गैर पर्वतीय मूल के निवासियों के भूमि खरीदने पर रोक लगे, राज्य गठन के बाद से वर्तमान तिथि तक सरकार की ओर से विभिन्न व्यक्तियों, संस्थानों, कंपनियों को दान या लीज पर दी गई जमीन का ब्यौरा सार्वजनिक किया जाए। इसके अलावा प्रदेश में खासकर पर्वतीय क्षेत्रों में लगने वाले उद्यमों, परियोजनाओं में भूमि अधिग्रहण या खरीदने की अनिवार्यता अगर है या भविष्य में होगी तो उन सभी में स्थानीय निवासी और जिले के मूल निवासी का हिस्सा सुनिश्चित किया जाए. इसके अलावा ऐसे सभी उद्यमों में स्थानीय व्यक्ति को रोजगार देना सुनिश्चित किया जाए।

संघर्ष समिति की मुख्य मांगें
मूल निवास प्रमाण पत्र जारी के अलावा मूल निवास का प्रावधान लागू किया जाने की मांग मुख्य है। साल 2000 से उत्तराखंड में रहने वाले सभी लोगों को स्थायी निवास प्रमाण पत्र मिलता है. संघर्ष समिति की मांग है कि मूल निवास प्रमाण पत्र जारी किए जायें और इसकी कट ऑफ डेट 26 जनवरी, 1950 रखी जाए यानी कि जो व्यक्ति उक्त तारीख को राज्य में निवास करता था वही (और उसकी पुश्तें) ही यहां के मूल निवासी माने जायें। दरअसल, उत्तराखंड एकमात्र हिमालयी राज्य है, जहां राज्य के बाहर के लोग पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि, गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद सकते हैं।

भू-कानून पर विचार के लिए समिति
इससे पहले 22 तारीख को राज्य सरकार ने अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया था। इसे भू-कानून समिति की ओर से दाखिल रिपोर्ट का विस्तृत परीक्षण करने के बाद सरकार को अपनी सिफारिशें देनी हैं। पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद पुष्कर सिंह धामी ने भू-कानून पर विचार के लिए एक समिति गठित की थी, जो 2022 में ही अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप चुकी है लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इससे पहले उत्तराखंड के सबसे लोकप्रिय गीतकार और गायक नरेंद्र सिंह नेगी, मशहूर गायिकाएं उप्रेती सिस्टर्स समेत कई गायक-कलाकार महारैली में शामिल होने की अपील कर चुके थे।
मूल निवास, भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति के संयोजक मोहित डिमरी ने कहा कि सरकार की ओर से विभिन्न माध्यमों से संघर्ष समिति से जुड़े सदस्यों से संपर्क कर रैली को टालने का अनुरोध किया गया था लेकिन यह उत्तराखंड की जनता की अस्मिता और अधिकारों की लड़ाई है, इसलिए रैली टाली नहीं जा सकती थी।

पूर्व सैनिकों का जज्बा
उत्तराखंड गौरव सेनानी एसोसिएशन ने रैली में शामिल होकर प्रदर्शन किया। पूर्व सैनिकों ने जल, जंगल और जमीन के मुद्दों को उठाया। कहा कि राज्य को बचाने के लिए कानून नहीं ला रही है। कहा कि ये तो पहला प्रदर्शन था, जिसमें शासन और प्रशासन के पैर फूल गए। सरकार को उत्तराखंड के अस्तित्व को बचाने के लिए भू-कानून 1950 को लागू करना होगा। पूर्व सैनिकों ने ये भी कहा कि उत्तराखंड के निवासी राजनीतिक पार्टियों की मंशा भली-भांति जान गए हैं। इसलिए जनता इन सबको आने वाले समय में बहुत बड़ा सबक सिखाने वाली है।

जोशीले नारों से गूंजी राजधानी देहरादून
विभिन्न संगठनों की रैली में राज्य से जुड़े मसलों पर जोर जोर से नारे लगाए गए। “उत्तराखंड्यू जागी जा आंदोलन की ध्वजा उठा”, “ जल, जंगल, जमीन हमारी नहीं चलेगी धौंस तुम्हारी” “भैजी भी मांगे भू-कानून”, “जय बद्री, जय केदार मूल निवास, हमारा अधिकार”, “हरजू की धूणी बोले भू-कानून”, “एक ही जज्बा, एक जुनून”, “गोल्ज्यू देवता, न्याय कीजिए घमंडी सत्ता को, सद्बुद्धि दीजिए”, “एक ही नारा एक ही जूनून हमें चाहिए भू कानून”, और “सुन लो, दिल्ली, देहरादून हमें चाहिए, भू-कानून” जैसे नारों की गूंज रैली में रही।

पारंपरिक वाद्य यंत्रों की थाप ने बढ़ाया जोश
रैली के दौरान लोगों ने परंपरागत गीतों पर नृत्य कर अपनी भावनाओं को व्यक्त किया। परेड मैदान से निकली रैली में लोग राज्य आंदोलन से जुड़े गीतों को गाते हुए आए। शहीद स्थल में जुटी भीड़ में दौरान अलग-अलग जगहों पर लोगों ने राज्य से जुड़े गीतों को गाया। ढोल और दमाऊ के साथ गीतों की गूंज ने राज्य आंदोलन की याद दिला दी।

पुलिस दिखी चौकस
लोगों की भीड़ को देखते हुए कचहरी शहीद स्थल में भारी पुलिस बल तैनात रहा। स्वयं एसपी सिटी ने मोर्चा संभाले रखा। इस दौरान शहीद स्थल में ड्रोन भी उड़ाया गया। जो ड्रोन भीड़ का आकलन करते हुए दिखा। वहीं, इस रैली को लेकर एलआईयू की टीम भी फील्ड में रही। मजबूत भू-कानून और 1950 से मूल निवास की मांग को लेकर देहरादून में विशाल महारैली का आयोजन किया गया। जिसमें प्रदेश भर से आये लोगों ने शिरकत की। हाथों में पोस्टर और बैनर लिए युवा, मातृशक्ति, वरिष्ठ नागरिक उत्तराखंड में मजबूत भू-कानून और मूल निवास की मांग कर रहे थे। महारैली में आये लोगों का कहना था कि उत्तराखंड के अस्तित्व को बचाने के लिए यहां भू-कानून और मूल निवास जरूरी है। प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से देहरादून परेड ग्राउंड में सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग आने शुरू हो गये थे। इसके बाद जुलूस की शक्ल में रैली परेड ग्राउंड, बुद्धा चैक, तहसील चैक होते हुए शहीद स्मारक कचहरी पहुंची। लोग लोक गीतों के जरिये भी भू-कानून और मूल निवास की मांग कर रहे थे।

लंबे अंतराल के बाद उत्तराखंड के लोग आंदोलित

राजधानी देहरादून में 24 दिसंबर को प्रदर्शन का आह्वान किया गया है। इस बार का मुद्दा है, सशक्त भू-कानून और मूल निवास प्रमाण पत्र। लेकिन आखिर यह मुद्दा क्या है। दरअसल, उत्तराखंड एकमात्र हिमालयी राज्य है, जहां राज्य के बाहर के लोग पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि, गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद सकते हैं। वर्ष 2000 में राज्य बनने के बाद से अब तक भूमि से जुड़े कानून में कई बदलाव किए गए हैं और उद्योगों का हवाला देकर भू खरीद प्रक्रिया को आसान बनाया गया है। लोगों में गुस्सा इस बात पर है कि सशक्त भू कानून नहीं होने की वजह से राज्य की जमीन को राज्य से बाहर के लोग बड़े पैमाने पर खरीद रहे हैं और राज्य के संसाधनों पर बाहरी लोग हावी हो रहे हैं, जबकि यहां के मूल निवासी और भूमिधर अब भूमिहीन हो रहे हैं। इसका असर पर्वतीय राज्य की संस्कृति, परंपरा, अस्मिता और पहचान पर पड़ रहा है। देश के कई राज्यों में कृषि भूमि की खरीद से जुड़े सख्त नियम हैं। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में भी कृषि भूमि के गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद बिक्री पर रोक है।
महारैली में 100 से अधिक संगठन शामिल
मालूम हो कि महारैली में 100 से अधिक संगठन शामिल हुए थे और कांग्रेस, उत्तराखंड क्रांति दल, आम आदमी पार्टी, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी, राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी जैसे छोटे-बड़े राजनीतिक दल भी इस महारैली में शामिल हुए। इनके अलावा राज्य के सभी जिलों से लोग व्यक्तिगत रूप से इस रैली में शामिल होने के लिए पहुंचे थे। अलग-अलग जगहों से, अलग-अलग समूहों में आए लोगों का असर रैली में भी दिखा. कचहरी स्थित शहीद स्मारक पर पहुंचने और नेतृत्व के संक्षिप्त संबोधन के बाद जब रैली समाप्त हो गई उसके बाद भी लोग समूहों में पहुंचते रहे।

भू कानूनों में बदलाव
राज्य में बाहरी लोगों द्वारा भूमि खरीद सीमित करने के लिए वर्ष 2003 में तत्कालीन एनडी तिवारी सरकार ने उत्तर प्रदेश के कानून में संशोधन किया और राज्य का अपना भूमि कानून अस्तित्व में आया। इस संशोधन में बाहरी लोगों को कृषि भूमि की खरीद 500 वर्ग मीटर तक सीमित की गई। वर्ष 2008 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने संशोधन कर भूमि खरीद की सीमा घटाकर 250 वर्ग मीटर की।
विडंबना यह है कि हर जिले में छोटे-छोटे औद्योगिक क्षेत्र बनाए गए हैं लेकिन आज तक इनमें उद्योग नहीं लगे। हरिद्वार, उधमसिंह नगर और पौड़ी के यमकेश्वर के कुछ क्षेत्रों में जमीनों की खरीद कर लैंड बैंक बनाया गया है। गढ़वाल में श्रीनगर से आगे अलकनंदा और मंदाकिनी घाटी, बद्रीनाथ, केदारनाथ की ओर व्यावसायिक फायदे वाली सारी जमीन बिक चुकी हैं। ज्यादातर होटल और रिसॉर्ट के लिए उनका प्रयोग किया जा रहा है।
2018 के संशोधन में व्यवस्था की गई थी कि खरीदी गई भूमि का इस्तेमाल निर्धारित उद्देश्य के लिए नहीं किया जाता या किसी अन्य को बेचा जाता है तो वह राज्य सरकार में निहित हो जाएगी। लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी सरकार ने सिंगल विंडो एक्ट लागू किया। इसके तहत खरीदी गई कृषि भूमि को गैर कृषि घोषित करने के बाद वह राज्य सरकार में निहित नहीं की जा सकती। धामी सरकार ने भी एक तरफ कानून में ढील दी, वहीं भू-सुधार के लिए एक समिति भी गठित की। इस समिति ने वर्ष 2022 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। जिसमें सख्त भू कानून लाने के लिए सुझाव दिए गए। लेकिन इस रिपोर्ट के बाद अब तक कुछ बदला नहीं है। नैनीताल हाईकोर्ट में वकील चंद्रशेखर करगेती कहते हैं अलग-अलग राज्यों में जमीन को लेकर अलग-अलग नियम हैं। जम्मू कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिमालयी राज्यों ने अपनी जमीनें सुरक्षा की हैं, सिर्फ उत्तराखंड ही एकमात्र राज्य है जहां कोई भी आकर जमीन खरीद सकता है।


आंदोलन पर सवाल

भाकपा (माले) के राज्य सचिव इन्द्रेश मैखुरी ने अपनी पार्टी के साथ ही भाकपा और माकपा के नाम से इस रैली को लेकर एक संयुक्त संदेश जारी किया। इसमें उन्होंने आशंका जताई कि जिस दिशा में यह आंदोलन जा रहा है उससे अंध क्षेत्रीयतावाद को ही बढ़ावा मिलेगा।

उन्होंने लिखा, कि इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी राज्य के संसाधनों-जल, जंगल, जमीन पर पहला अधिकार, उस राज्य के मूल निवासियों का होता है, होना चाहिए. राज्य की नियुक्तियों में भी पहली प्राथमिकता उस राज्य के मूलनिवासियों को मिलनी चाहिए। लेकिन मूल निवास को बहाल किए जाने की मांग को पहाड़-मैदान और बाहरी-भीतरी के लबादे में लपेटना, अंध क्षेत्रीयतावादी उन्माद खड़ा करने की कोशिश है। यह कुछ लोगों को सस्ती लोकप्रियता तो दिला सकता है, लेकिन वह राज्य की उस बड़ी आबादी के हितों को सुरक्षित नहीं कर सकती।
रैली के दौरान दिखाए जा रहे कुछ प्लेकार्ड्स और मंच से किए गए कुछ संबोधन में भी पहाड़ी-बाहरी की बात उठी, जिसे लोगों का समर्थन भी मिला।


‘जमीन बचाने की लड़ाई’

दिनेश जुयाल कहते हैं, कि किसी भी असंगठित आंदोलन में ऐसी बातें उठती ही हैं. बीजेपी और कांग्रेस जैसे बड़े, संगठित दलों से भी अलग-अलग बातें आ जाती हैं। लेकिन आंदोलन की मूल भावना और आज की रैली कुल मिलाकर सत्याग्रह जैसी ही रही है। वह कहते हैं कि बड़ा सवाल यह भी है कि राज्य में कृषि योग्य भूमि 5 प्रतिशत भी नहीं रह गई है. आप एयरपोर्ट बना रहे हो, सड़कें बना रहे हो, रेलवे स्टेशन बना रहे हो और उसके लिए लोगों की जमीन का अधिग्रहण करते जा रहे हो। वो कहते हैं, ‘अब आप निवेश के नाम पर भी बाहर से लोगों को ला रहे हो और लोगों की जमीन का अधिग्रहण करते जा रहे हो. ऐसे में तो जमीन रह ही नहीं पाएगी लोगों के पास’।

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