ज्यादा वोट पाकर भी हार गई कांग्रेस!

भाजपा में जिन क्षत्रपों के नेतृत्व में चुनाव लड़ा वे सत्ता से बाहर

छुपे रुस्तम को सौंप दी सत्ता की कमान, जातिगत समीकरण भी साधे

डॉ  गोपाल नारसन , रुड़की।

भाजपा न सिर्फ विपक्ष के साथ बल्कि खुद अपने नेताओं के साथ भी गजब का खेल खेलती है।पल भर में रंक से राजा बनाना और राजा को रंक बना देना उसके बाएं हाथ का खेल है।मध्यप्रदेश प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चुनाव जीतकर भी सत्ता से बाहर हो गए और सत्ता सुख से बेखबर मोहन यादव एक ही झटके में मुख्यमंत्री बन दिए, जिसकी उम्मीद उन्हें स्वयं भी नहीं थी।ऐसा ही राजस्थान में हुआ जहां वसुन्धरा राजे को दरकिनार कर पहली बार के विधायक भजन लाल शर्मा मुख्यमंत्री बना दिए गए। छत्तीसगढ़ में भी गजब ही हुआ ,जहां तमाम कयासों को झुठलाते हुए विष्णु देव साय को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। यह भी गजब का करिश्मा है जो वोट तो ज्यादा कांग्रेस को मिले लेकिन सत्ता हाथ भाजपा के लगी।हाल ही में 5 राज्यो के चुनाव में कांग्रेस को भाजपा से करीब साढ़े नो लाख वोट अधिक मिले लेकिन फिर भी कांग्रेस का छत्तीसगढ़, राजस्थान से सफाया हो गया और मध्यप्रदेश में भी भाजपा की सत्ता बरकरार रही।

मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के चुनाव परिणाम आ गए हैं।बीजेपी ने मध्य प्रदेश में सत्ता में वापसी की है। इसके अलावा, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से सत्ता छीन ली है। कांग्रेस को तेलंगाना में ही सत्ता मिल पाई, वहां केसीआर को सत्ता से हटाकर कांग्रेस काबिज हो गई है। हर बार की तरह इस चुनावी रेस में भी वोट स्विंग का अहम रोल रहा है।एक या दो प्रतिशत नहीं, बल्कि 0.49 प्रतिशत में मध्य प्रदेश में बड़ा खेला हो गया है।वहां सन 2018 के मुकाबले में कांग्रेस का वोट प्रतिशत सिर्फ 0.49 प्रतिशत घटा है और 48 सीटें कम हो गई हैं। इसी तरह अन्य राज्यों के चुनाव में भी वोट स्विंग ने सरकार बनाने और गिराने में अहम रोल निभाया है।विधानसभा चुनाव में वोट स्विंग होना आम बात मानी जाती है। एक-दो प्रतिशत वोट स्विंग होने से ही सरकारें बनाने और गिराने के सारे समीकरण बदल जाते हैं। कई राज्यों में सिर्फ एक या दो परसेंट वोटों के अंतर से सरकार बदली हैं।

मध्य प्रदेश में 230 विधानसभा सीटें हैं। बीजेपी ने इस चुनाव में 163 सीटों पर जीत हासिल की है।बीजेपी को 54 सीटों का फायदा हुआ है। कांग्रेस ने इस चुनाव में 66 सीटें जीतीं और 48 सीटों का नुकसान हुआ है।सन 2018 में बीजेपी को 109 सीटें मिली थी।कांग्रेस ने 114 सीटें जीती थीं।तब बीजेपी का वोट शेयर ज्यादा था,लेकिन सीटों के मामले में कांग्रेस को फायदा पहुंचा था।सन 2018 में बीजेपी को 41.02% और कांग्रेस को 40.89% प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार बीजेपी को 48.55% और कांग्रेस को 40.40% वोट शेयर मिला।सन 2018 के मुकाबले इस बार कांग्रेस का वोट प्रतिशत सिर्फ 0.49 प्रतिशत घटा है।
सन 2023 के इस चुनाव में बीजेपी ने 46.27 वोट हासिल किए हैं और 54 सीटें जीतीं हैं। कांग्रेस 35 सीट पर सिमट गई है। कांग्रेस का वोट शेयर 42.23% रहा है। यानी दोनों की हार-जीत में 4 प्रतिशत से भी कम का अंतर रहा है।इसी से 19 सीटों का अंतर आने से सत्ता के गणित बदल गए हैं। इस बार चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 14 प्रतिशत बढ़ा है। सन 2018 में बीजेपी को 32.97 प्रतिशत वोट मिले थे,वहीं, कांग्रेस ने सिर्फ एक प्रतिशत से भी कम वोट घटने पर सत्ता गंवाई है। कांग्रेस को पिछले चुनाव में 43.04 प्रतिशत वोट मिले थे,इस बार 42.23 प्रतिशत वोट मिले हैं। छत्तीसगढ़ में बीजेपी तीन बार 49-50 सीटें जीतकर सरकार में आती रही है।सन 2003 में बीजेपी ने 50, सन 2008 में 50 और सन 2013 में 49 सीटें जीतकर सत्ता पर काबिज रही है। छत्तीसगढ़ में कुल 90 सीटें हैं। बहुमत के लिए 46 आवश्यक है।राजस्थान में 6 बार से सत्ता बदलने रिवाज कायम है।सन 1993 के बाद से छठवीं बार राजस्थान में सत्ता पलटने का रिवाज को मतदाताओं ने बरकरार रखा है।200 में से कुल 199 सीटों पर चुनाव हुए, सत्ता के लिए 101 सीटों का आंकड़ा जरूरी है। बीजेपी ने 115 सीटें जीतीं है जिससे कुल 42 सीटों का फायदा बीजेपी को हुआ है।जबकि कांग्रेस 69 सीटों पर सिमट गई ।जबकि कांग्रेस को 30 सीटों का नुकसान हुआ है, अन्य को 15 सीटें मिली हैं। सन 2018 में बीजेपी को 73 सीटें मिली थीं। कांग्रेस ने 99 सीटों पर जीत हासिल की थी,अन्य को 27 सीटों पर जीत मिली थी। इस बार बीजेपी ने 41.69 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं।कांग्रेस को 39.53% वोट मिले हैं।सन 2018 में बीजेपी को 38.77% और कांग्रेस को 39.30% वोट मिले थे। यानी कांग्रेस ने इस बार 0.23 प्रतिशत ज्यादा वोट हासिल किए हैं, लेकिन उसे 30 सीटों का नुकसान हो गया है। वहीं, बीजेपी के वोटिंग परसेंटेज में जबरदस्त 2.92 फीसदी सुधार हुआ है और सीधे 42 सीटों का फायदा पहुंचा है। बीजेपी ने कांग्रेस समेत अन्य दलों के वोट बैंक में सेंध लगाई है। निर्दलीय से लेकर बागी और छोटे दल भी पिछली बार के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सके और ज्यादातर हार गए है।वही तेलंगाना की सत्ता से केसीआर बाहर हो गए हैं, वे 9 साल से सरकार चला रहे थे।कांग्रेस ने तेलंगाना में पहली बार जीतकर सरकार बनाई है। सन 2014 में केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने तेलंगाना को अलग राज्य बनाया था। तब से दो चुनाव हुए और दोनों में केसीआर की पार्टी बीआरएस ने जीत हासिल की थी, तेलंगाना में 119 सीटों पर चुनाव हुए, बहुमत के लिए 60 सीटों का होना आवश्यक था। इस चुनाव में कांग्रेस ने 64 सीटें जीती है, कांग्रेस को 45 सीटों का फायदा हुआ है।इस चुनाव में बीआरएस ने 39 सीटों पर जीत हासिल की है, उसे 49 सीटों का नुकसान पहुंचा है।जबकि भाजपा ने 8 सीटें जीतीं है,उसे सात सीटों का फायदा पहुंचा है।

सन 2018 में भारत राष्ट्र समिति ने 47.4 प्रतिशत वोट हासिल किए थे और 88 सीटें जीती थीं। कांग्रेस ने 29% वोट शेयर हासिल किए और 19 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही थी। इस बार चुनाव में पूरी तस्वीर बदल गई है, कांग्रेस का 10 प्रतिशत से ज्यादा वोट शेयर बढ़ा और 45 सीटों का फायदा पहुंचा है। जबकि बीआरएस को 10 प्रतिशत वोट का नुकसान हुआ है और 49 सीटें गंवानी पड़ी है।सन 2018 में सिर्फ एक सीट जीतने वाली भाजपा ने अपने वोट शेयर को लगभग दोगुना कर लिया है। पिछले चुनाव में उसे करीब 7 प्रतिशत वोट मिले थे, इस बार करीब 14 प्रतिशत वोट मिले हैं।
अध्यक्ष होकर भी नायक नहीं बन पा रहे है

तीन राज्यों में मिली हार के बाद कांग्रेस में विचार मंथन का दौर जारी है। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने संबंधित प्रदेशों के नेताओं से बात कर उन कारणों को तलाशने की कोशिश की है, जिसके चलते कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है। कांग्रेस सियासी पिच तो खुद तैयार करती है, लेकिन जब मैच की बारी आती है, तो आपसी गुटबाजी व पात्र को टिकट न देने के कारण उसके हिस्से में हार के अलावा कुछ नहीं आता। कांग्रेस में फैसला लेना, आज भी टेढ़ी खीर है। खिसकते वोट बैंक और सत्ता पक्ष द्वारा लगाए जाने वाले परिवारवाद के आरोपों से बचने के लिए कांग्रेस ने ‘गैर-गांधी’ के रूप में अध्यक्ष की कुर्सी पर मल्लिकार्जुन खड़गे को बैठा तो दिया लेकिन कांग्रेस के क्षत्रपों ने खड़गे को तवज्जो न देकर उनको बेअसर कर दिया है।जिस कारण तीन राज्यों में कांग्रेस की हुई है।हार के बाद प्रदेशाध्यक्ष या सीएलपी लीडर के त्यागपत्र पर रार मच गई।

क्षत्रप अध्यक्ष की ज्यादा नहीं सुन रहे।विधानसभा चुनाव में हुई हार के बाद कांग्रेस में कई तरह के मायूसी स्वर सुनने को मिल रहे हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हार क्यों हुई, इस पर पार्टी ने चर्चा की है, मगर किसी ने कोई त्यागपत्र नहीं दिया। कांग्रेस ने भले ही मल्लिकार्जुन खरगे को पार्टी अध्यक्ष की कमान सौंप दी हो, लेकिन क्षत्रप उनकी ज्यादा नहीं सुन रहे हैं। उन्हें भी मालूम है कि अंतिम निर्णय गांधी परिवार से होना है। कांग्रेस और भाजपा में यही फर्क है। भाजपा में केंद्रीय स्तर पर जो फैसले होते हैं, शीर्ष नेतृत्व से लेकर निचले स्तर के कार्यकर्ता, सभी उनका सम्मान करते हैं। कांग्रेस में इस बात को लेकर चर्चा हुई थी कि तीन राज्यों में हुई पराजय के बाद वहां के सीएलपी लीडर और प्रदेश अध्यक्षों का त्यागपत्र मांगा जाए। इसी पर रार मच गई। तीनों ही राज्यों के क्षत्रपों का दखल सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका तक रहा है। चुनाव में अति आत्मविश्वास को लेकर कुछ नेताओं की तरफ इशारा हुआ, लेकिन उनके खिलाफ कुछ नहीं हुआ। चुनाव प्रचार के दौरान कई कमियां सामने आई थीं, मगर प्रदेशों के क्षत्रपों ने अपनी पहुंच के चलते उन्हें नजरअंदाज कर दिया। इस मामले में भी कोई कार्रवाई नहीं हो सकी।

खड़गे पार्टी के अध्यक्ष हैं, मगर हाईकमान असर अभी खत्म नहीं हुआ है। जब खड़गे के लिए अपने विवेक के आधार पर कोई फैसला लेने की बात आती है, तो वे मजबूरी में सोनिया, प्रियंका और राहुल की तरफ देखते हैं। यही बात, पार्टी के क्षत्रपों के लिए खुद को महफूज करने की स्थिति में ला देती है। जब तक पार्टी अध्यक्ष कुछ सोचते हैं, तब तक टारगेट वाले नेताओं का बचाव हो जाता है। जैसा सोचा गया था कि खड़गे खुले हाथों से कठोर फैसले लेंगे, वैसा कुछ नहीं दिख रहा है। पार्टी में मोदी जैसी सक्रियता नहीं है। किसी के पर कतरे जाएं, ऐसा तो बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ता है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में पार्टी प्रभारी की नियुक्ति तक नहीं हो पा रही है। पार्टी में कौन सा मुद्दा कब उठाया जाए, इस बाबत कोई चर्चा नहीं होती। ईवीएम का मुद्दा कब और किन स्थितियों में उठाया जाए, पार्टी को अंदाजा नहीं होता। मुद्दे कांग्रेस तय करती है, उसका फायदा भाजपा उठा लेती है।

भाजपा में किसी भी मुद्दे को उठाने के लिए, पहले जमीनी स्तर पर होमवर्क किया जाता है। उसका नफा नुकसान देखा जाता है। भाजपा में प्रभावशाली मुद्दों को भुनाने की कला है। अगर मध्यप्रदेश में मोहन यादव को सीएम बनाया गया है, तो उसके लिए पार्टी ने कोई चांस नहीं लिया। जातिगत गणना और ओबीसी जैसे मुद्दे से पार्टी को जो नुकसान संभावित था, उसका निराकरण कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी, हर क्षेत्र में कम से कम ‘दस लोगों से सौ गुना फायदा’ लेने की क्षमता रखते हैं। उन्हीं से ग्राउंड रिपोर्ट भी लेते हैं। केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा का चुनाव लड़ा दिया। कोई बोला तक नहीं, ऐसे कठोर फैसले लेने के लिए कांग्रेस में माहौल तैयार करने से खड़गे चूक रहे हैं। कांग्रेस को अपना घर दुरुस्त करने की बजाय, दूसरों के भरोसे राजनीति करना छोड़ना होगा।तभी कांग्रेस संभल सकती है।

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