डॉ गोपाल नारसन एडवोकेट
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम एग्जिट पोल के विपरीत भाजपा के पक्ष में गए है।तेलंगाना में सत्ता हासिल करने व छत्तीसगढ़ में संतोषजनक टक्कर देने के अलावा कांग्रेस राजस्थान व मध्यप्रदेश में बेअसर ही रही।चुनाव में जातीय जनगणना का मुद्दा जहां उसे ले डूबा वही राजस्थान में गहलोत-पायलट टकराव, मध्यप्रदेश में कमलनाथ व दिग्विजय का बड़बोलापन कांग्रेस की हार का कारण बना है। राजस्थान राज्य में 9 बड़े कारण कांग्रेस की हार के बने है। पहला तो यही कि राजस्थान में रिवाज कायम रहा है जनता ने हमेशा सत्ता में बदलाव किया है। वही कांग्रेस की मुफ्त की रेवड़ी नहीं चली। कांग्रेस को गहलोत-पायलट विवाद महंगा पड़ गया। कन्हैया लाल हत्याकांड से चुनावी ध्रुवीाकरण हुआ है।कांग्रेस चुनाव के कुछ महीने पहले तक गुटबाजी से जूझती नजर आई।अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच की खींचतान का भी कार्यकर्ताओं पर प्रतिकूल असर पड़ा, जनता के बीच गलत संदेश गया है।
भले ही चुनाव से ठीक पहले दोनों ही नेता हम साथ-साथ हैं का संदेश देते नजर आए हो लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।कांग्रेस जहां गुटबाजी से जूझती रही, वहीं बीजेपी ने अंतर्कलह को कहीं बेहतर तरीके से हैंडल करती रही। बीजेपी ने गुटबाजी से पार पाने के लिए वसुंधरा राजे को न सिर्फ सीएम फेस घोषित करने से परहेज किया बल्कि बड़े नेताओं को चुनाव मैदान में उतार दिया था। नतीजा ये हुआ कि नेताओं ने अपनी साख बचाने के लिए उस सीट पर जोर लगाया और इसका सकारात्मक असर आसपास की सीटों पर भी पड़ा।राजस्थान का चुनाव मोदी बनाम गहलोत हो जाना भी कांग्रेस को भारी पड़ा है। पीएम मोदी के चेहरे ने कांग्रेस के जातिगत जनगणना के दांव की धार भी कुंद कर दी है।
पीएम मोदी ने राजस्थान में ताबड़तोड़ चुनावी रैलियां कीं, वहीं कांग्रेस की ओर से प्रचार का भार सीएम गहलोत के कंधों पर अधिक नजर आया।चुनाव प्रचार के लिए राहुल गांधी मैदान में उतरे तो लेकिन वह भी महज खानापूर्ति ही रही। चुनाव पूरी तरह से मोदी बनाम गहलोत हो गया और इसका लाभ भी बीजेपी को मिला।अशोक गहलोत की सरकार ने चुनावी साल में एक के बाद एक चुनावी दांव चले,जिनमे चिरंजीवी योजना के तहत हेल्थ इंश्योरेंस की लिमिट बढ़ाकर 50 लाख रुपये करने का वादा किया गया, सस्ते गैस सिलेंडर समेत कई लुभावनी योजनाओं पर पेपर लीक, लाल डायरी और भ्रष्टाचार के आरोप भारी पड़े।कांग्रेस की हार के पीछे बागी भी बड़ी वजह माने जा रहे हैं। कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने के बाद कई नेताओं ने पार्टी से बगावत कर बतौर निर्दल उम्मीदवार ताल ठोक दी।कुछ बीजेपी और दूसरे दलों के टिकट पर भी मैदान में उतर गए।इन बागियों ने भी कांग्रेस का नुकसान किया है। इसके ठीक उलट बीजेपी ने एक-एक बागी को मनाने के लिए बड़े नेताओं को जिम्मेदारी दी और उनको मनाने की पूरी कोशिश की।कई बागी मान भी गए और बीजेपी को इसका लाभ मिला है।वही
मध्यप्रदेश की राजनीति में यह चुनाव परिणाम लंबे समय तक याद रखा जाएगा। इस परिणाम ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर कांग्रेस जो जीत की जोरदार ताल ठोक रही थी, उसे इतनी बुरी हार कैसे मिली? कारण चौंकाने वाले हैं,
मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ इन तीनों राज्यों में चुनाव के परिणाम पूरी तरह से बीजेपी के पक्ष मे रहे हैं। प्रचंड जीत की ओर जाते हुए बीजेपी के प्रदेश कार्यालयों में ढोल ढमाके बज रहे हैं, लड्डू बंट रहे हैं। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के खेमे में मायूसी है। जो लड्डू कांग्रेस कार्यालय में आए थे, वे वैसे ही रखे हुए हैं। सवाल यह है कि जो कांग्रेस 2019 में बहुमत के आंकड़े तक पहुंच गई थी, वो ऐसा क्या हुआ कि 2023 के चुनाव परिणाम के रुझानों में अब तक बुरी तरह हार की कगार पर है।जिसका कारण एंटी इंकंबेंसी का कोई रोल नहीं रहा।बीजेपी एंटी इंकंबेंसी को नकारकर जीती है। राजनीति में यह शोध का विषय होना चाहिए। क्योंकि 18 साल बाद भी एक चुनाव होता है और किसी पार्टी को प्रचंड जीत मिलती है, वो भी 18 साल तक शासन में रहने के बाद। जबकि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी सत्ता से चली गई पर 15 महीनों को छोड़कर एमपी में नहीं। दिग्गी कमलनाथ ने किसी को नहीं बढ़ने दिया
कांग्रेस ने कमलनाथ और दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता किसी को नहीं बनने दिया। दोनों नेता वयोवृद्ध हैं। कमलनाथ की उम्र 77 साल और दिग्विजय सिंह की उम्र 76 साल है।यूथ लीडर्स का कोई बैकअप नहीं ,किसी यूथ लीडर को आने नहीं दिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया जो कांग्रेस में एक बड़ा कद थे। युवा थे, उन्हें भी दरकिनार कर दिया गया था। मजबूरन उन्हें बीजेपी का दामन थामना पड़ा। मध्यप्रदेश कांग्रेस में युवा नेतृत्व का बैकअप में नहीं बन पाया। केवल विक्रांत भूरिया यूथ कांग्रेस अध्यक्ष है, जो कांतिलाल भूरिया के बेटे हैं और पेशे से एमबीबीएस डॉक्टर हैं। उन पर भी वरिष्ठ कांग्रेसी और पूर्व मप्र कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया की छाप है। कमलनाथ का अड़ियल रवैया, सबसे अहम बिंदू राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में यह है कि कमलनाथ में राजनीतिक नेतृत्व करने की क्षमता नहीं है, वो राजनेता कम और बड़ी कंपनी मैनेजर ज्यादा लगते हैं। वो राजनीतिक बैठकों में कार्पोरेट मीटिंग जैसा व्यवहार करते रहे हैं। कमलनाथ मिनटों के हिसाब से विधायकों को मिलने का समय देते थे। वो कहते थे ‘चलो चलो’ , उन्हें जनता ने चलता कर दिया।कमलनाथ की छवि पर भारी शिवराज की छवि
कांग्रेस में जहां कमलनाथ का रवैया तानाशाही रहा है, वहीं दूसरी ओर बीजेपी इसलिए आगे निकली कि एमपी के सीएम शिवराज सिंह चौहान कमलनाथ के विपरीत जमीनी नेता हैं, वे लोगों और विधायकों की सुनते भी हैं, बोलते भी हैं। शिवराज सिंह चौहान की सरल छवि कमलनाथ की छवि पर भारी पड़ी है।कांग्रेस को अब सोचना होगा कि घिसे पिटे नेताओं पर भरोसा करने के बजाए नए बेदाग छवि के निष्ठावान कार्यकर्ताओ को आगे लाए, तभी कांग्रेस में कुछ जान आ सकती है।
(लेखक राजीनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार है)