मध्यप्रदेश : इतना सन्नाटा क्यों है भाई!


टिप्पणी : बादल सरोज

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सभी राज्यों में मतदान हो चुका है। कहीं ज्यादा, कहीं कम के हिसाब से अब तक हुए सभी राज्यों के मतदान में कुछ भी असाधारण या असामान्य नहीं है। औसतन जितने प्रतिशत मतदान होता था, लगभग उसी के आसपास मत डाले गए हैं। औसतन जितनी हिंसा होती है, करीब-करीब उतनी ही हुयी। इसमें असामान्य केवल इतना था कि मुरैना के इतिहास में पहली बार चुनाव के दौरान ठाकुरों में आपस में गोलियां चली। इसके अलावा नया सा कुछ नहीं दिखा।

मगर एकदम नया यह है कि मध्यप्रदेश ( MP) में वोट डले करीब पखवाड़ा होने को है, लेकिन पूरे यकीन और आत्मविश्वास के साथ कोई भी इस बात की घोषणा करने को तैयार नहीं है कि अंततः जीत किसकी होगी, सरकार किसकी बनेगी। यह वाकई में नयी-सी लगने वाली बात है कि खुद मतदाता अपने आपको आश्वस्त महसूस नहीं कर रहे हैं।

यह अनायास नहीं है ; इसके पीछे कुछ है। ऐसा कुछ, जो चुनाव प्रणाली में किसी वायरस के संक्रमण का संकेत देता है। ऐसा वायरस, जिसका अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान दोनों है।

एक बड़ा कारण ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी पार्टी — भाजपा(BJP) – द्वारा पूरी चुनाव प्रणाली को उलट-पुलट कर उसे एकदम नया और मायावी बना देना है। मायावी मतलब हर तरह से मायावी। मौद्रिक माया यानि करोड़ों की रकम पैसे की तरह बहाकर चुनाव के मैदान को इतना गीला कर दिया गया है कि अब इसे वही पार कर सकता है, जिसे कीचड़ और गन्दगी में लिथड़ने की महारत हासिल है, जिसे कहीं भी कितना भी फिसल जाने में तनिक भर भी शर्म न आती हो।

इन चुनावों में इस विपुल धन राशि के इस्तेमाल के तरीकों में भी एक नया रुझान आया है और वह यह कि अब इसका उपयोग सिर्फ तामझाम और आभा बनाने के लिए ही नहीं किया जाता, उससे कहीं ज्यादा अनुपात में यह नकदी के रूप में बांटी जाती है। बंटती पहले भी थी, किन्तु एक तो उसका परिमाण कम होता था, दूसरे वह वोटों के कथित ठेकेदारों और असल दलालों तक ही सीमित रह जाती थी। इन दिनों इसका विकेंद्रीकरण हुआ है — अब यह द्रव और द्रव्य दोनों शक्लों में सीधे मतदाताओं तक भी पहुँचने लगी है।

अकल्पनीय धन संपदा की मालिक और देसी-विदेशी कारपोरेट कंपनियों की तिजोरियों की चौकीदार होने के चलते भाजपा के पास यह तरीका आजमाने की जितनी सहूलियत है, उतनी किसी और पार्टी के पास नहीं है।

इस चुनाव में आयी दो खबरों से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। एक खबर केन्द्रीय कृषि मंत्री जिस विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं, वहां से आयी है। इसमें यह बताया गया है कि उन्होंने दीपावली पूर्व भेंट के रूप में सभी सरपंचों को पचास-पचास लाख और उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी रहते हुए पराजित हुए सरपंचों को पच्चीस-पच्चीस लाख रूपये दिए हैं। इस विधानसभा क्षेत्र में कुल पंचायतें 89 हैं। इस हिसाब से अकेली इस रकम का जोड़ 66 करोड़ 75 लाख होता है। बाकी जो खर्च हुआ होगा, वह इससे दोगुना-तिगुना होगा ।

एक अन्य आदिवासी विधानसभा क्षेत्र में मतदान के तीन दिन पहले ही 21 पेटी शराब और उनके साथ सवा लाख रूपये पहुंचाने की खबर मिली है। इतनी विराट राशि की चकाचौंध के चलते, जो खुद इनके खिलाफ वोट डालकर आया होता है, वह भी गड़बड़ा जाता है कि न जाने क्या होने वाला है!

इनके अलावा भी कारण और हैं — जो लोक के लोकतंत्र में विश्वास को डिगाने वाले हैं। ठीक यही और इसके साथ और भी वजहें हैं कि परिणाम के पूरी तरह सामने आने से पहले कोई भी उसके बारे में कुछ भी कहने को तैयार नहीं है।

यह “इतना सन्नाटा क्यों है भाई” संवाद देने वाले शोले फिल्म के एक आम आदमी जैसी स्थिति है — जो सब कुछ देखने के बाद भी देख समझ नहीं पा रहा है, लेकिन यह जरूर महसूस कर रहा है कि कोई गब्बर सिंह आ गया है !! अब ये जो गब्बर आया है, उसे हराना अकेले जय और वीरू के बूते की बात नहीं है, क्योंकि यह सिर्फ गब्बर नहीं है — यह गब्बर की चाइना गेट के खलनायक जगीरा के साथ ब्लेंडिंग है, जिसका बहुचर्चित संवाद उसकी रणनीति का असली ब्रह्मास्त्र था, जिसमें ताकत और साहस से ज्यादा धूर्तता को महत्त्व देकर निर्णायक बताया गया था।

यह जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है — सिर्फ एक चुनाव का मामला नहीं है। यह लोकतंत्र का क्षरण है, यह संविधान का मखौल है, यह तानाशाही की पदचाप है।

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