- सहाराश्री राष्ट्रीय प्रेस दिवस के दिन पंचतत्व में विलीन
- एक समय भारतीय रेलवे के बाद सहारा समूह ही था जिसने सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार दिए
- लाखों-लाख कर्मचारियों के भविष्य पर मंडराया संकट
ममता सिंह, कार्यकारी संपादक।
पहले के सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो उसमें स्पष्ट है कि भारतीय रेलवे (Indian Railways) के बाद सहारा समूह ( Sahara Group) ने ही सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार दिए हैं। सहारा के लिए राष्ट्रीयता सर्वोपरि रहा है। खिलाड़ियों की जर्सी से लेकर फिल्म-टीवी इंडस्ट्री में भी इस समूह की धाक रही है। कई नेता से लेकर अभिनेताओं के किचन तक आज भी सहारा ग्रुप ( Sahara Group) के रसोइए, सुरक्षा कर्मी और सेवक निःशुल्क सेवाएं दे रहे हैं। इसके लिए बाकायदा सर्विस डिविजन की स्थापना की गयी है।
इसे अजीब संयोग ही कहा जाएगा, आज जब हम राष्ट्रीय प्रेस दिवस मना रहे हैं, ठीक उसी दिन मीडिया जगत का यह सितारा पंचतत्व में विलीन हो जाएगा। ऐसे में बड़ी भूल होगी यदि हिन्दी पट्टी के सहारा मीडिया समूह के शुरूआती दौर का उल्लेख नहीं किया जाए तो। क्योंकि शुरूआती दौर में सहारा मीडिया का मुकाबला ट्रेडिशनल मीडिया संस्थानों से था। हिन्दी पत्रकारिता को नयी सोच के साथ आगे बढ़ाने में सहारा के योगदान को इंकार नहीं किया जा सकता।
वाकई सुब्रत राय करिश्माई व्यक्तित्व वाले ऐसे इंसान रहे जिन्होंने कंपनी को अपने बूते पर ही शिखर तक पहुंचाया और जिन्दा रहते तक कंपनी का ढलान भी देखा। लेकिन सभी के जेहन में एक ही सवाल है कि अब सहारा मीडिया या सहारा के अन्य संस्थानों का क्या होगा क्योंकि संस्थान पर घनघोर रूप से आर्थिक संकट मंडरा रहा है। सहारा को इस संकट से उबारना काफी जटिल काम है। क्योंकि यह अडानी या अंबानी की कंपनी नहीं है।
यह ऐसे शख्स की कंपनी है जो एक जमाने में साइकिल से भुजिया-गुजिया की सप्लाई करता रहा है। कोई भी सरकार क्यों न हो, किसी ने भी यह समझने की कोशिश नहीं की कि यह कंपनी डूब गई तो उन हजारों-लाखों कर्मचारियों का क्या होगा। ऐसे समय में जब तमाम वायदों के बावजूद खुद तो सरकार रोजगार दे नहीं पा रही है। सहारा मीडिया समूह के मुखिया होने के बावजूद सुब्रत राय जी को कभी भी संपादकीय मामलों में अमूमन अतिक्रमण करते नहीं देखा गया।
उनके विचारों और उनकी पुस्तकों में उनका दार्शनिक भाव झलकता है। सहाराश्री का व्यवहार अपने कर्मियों के प्रति परिवार की तरह रहा है। इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सहारा में कर्मचारियों के हितों की रक्षा के लिए कर्तव्य काउंसिल है। सहाराश्री ने मीडिया में नयापन और पैनापन लाने की दिशा में कई प्रयोग किए। उन्होंने उस दौर में भी अखबार की प्रिंटिंग में प्रयोग होने वाले कागज और इंक के साथ समझौता नहीं किया। ग्लासी पेपर वाले रंगीन चार पेज के परिशिष्ट ने अन्य मीडिया समूहों में खलबली मचा दी।
धीरे धीरे अन्य ट्रेडिशनल संस्थानों को भी अपने रूपरेखा में बदलाव लाना पड़ा। यह पहला संस्थान माना जाता है जिसने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एंट्री के पहले अपने कर्मियों को विशेष प्रशिक्षण के लिए विदेश भेजा। यह सब कुछ सहाराश्री की ही देन है। सहारा मीडिया में उर्दू तथा हिन्दी अखबार के अलावा अंग्रेजी की पत्रिका भी शामिल है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तहत राष्ट्रीय चैनल सहारा समय के साथ-साथ कई क्षेत्रीय चैनल भी हैं, जो आज संकट के दौर में भी बखूबी अपना फर्ज अदा कर रहे हैं।
सड़क से शिखर तक अपनी पहचान बनाने वाले सुब्रत राय की प्लानिंग खासकर मीडिया को लेकर काफी सीख देने वाली है। शुरूआती दौर में वे खुद ही खबरों को देखते और खबरों का चयन भी करते। नोएडा कार्यालय में देर तक मीडिया कर्मियों के साथ बैठकर खबरों पर विचार विमर्श करना सुब्रत राय की दैनिक रूटीन में शामिल था। जब तक उन्होंने खुद मीडिया को देखा, तब तक सहारा मीडिया अन्य मीडिया समूहों से अलग दिखता रहा। सहारा मीडिया की शोहरत गांव गांव तक दिखाई पड़ती रही।
फिर धीरे-धीरे उनके अन्य व्यवसायों का दायरा बढ़ा तो वे मीडिया से दूर होते चले गये। हालांकि, मीडिया की रूपरेखा जो उन्होंने तय की, आज भी उसी के अनुरूप सहारा मीडिया का संचालन किया जा रहा है। हां, टीम मैनेजमेंट में भ्रांतियां आज जरूर दिखाई पड़ रही हैं। लेकिन यह भी देखने वाली बात होगी है कि अब जो भी मैनेजमेंट आएगा, वह सहारा ग्रुप को कैसे संभालेगा। सहारा कर्मियों के जेहन में यह सवाल जरूर कुरेद रहा है। चिंता की लकीरें कर्मियों के मन-मिजाज में स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है।
क्योंकि हजारों-लाखों रुपए कंपनी में फंसे होने के बावजूद सहाराश्री पर लोगों को यकीन था। सहारा कर्मी चाहे वह सहारा के किसी भी विंग में कार्यरत क्यों न हो, आज अपने भविष्य को लेकर घबराया हुआ है। हाल के कुछ वर्षों में सहारा ग्रुप संकट के दौर से गुजर रहा है जो सर्वविदित है। लेकिन इसके बावजूद सहारा ने अपने किसी कर्मचारी की जबरन छंटनी नहीं की, जबकि तमाम बड़े मीडिया घराने, नेता-राजनेता खासकर मुख्यमंत्री और मंत्रियों के यहां तो बदलाव होते ही कर्मी भी सड़क पर चले आते हैं, लेकिन ऐसे वक्त में भी सहारा ने अपने कर्मचारियों को निर्ममता से चलता नहीं किया। वो भी तब जब उनके परिवार के लोग मीडिया चलाने के पक्ष में एकदम नहीं थे।
फिर भी करीब 10 साल से तमाम मुश्किलों के बावजूद सहारा मीडिया बिना ब्रेक चल रहा है। यह अपने आप में बताता है कि उनकी मंशा कभी भी गलत नहीं रही। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि सेबी के दरवाजे पर कागजातों से भरी 125 ट्रकों का काफिला सहारा ने लगा दिया था जिसको समझने-बूझने और परखने में ही सेबी को काफी वक्त लगा। हालांकि, अब उसका रवैया कुछ ढीला पड़ा है। लेकिन ये काम पहले हो गया होता तो कंपनी यूं आर्थिक संकट से दिनोदिन बिखरती नहीं। क्योंकि कई गंभीर बीमारियों से जूझ रहे सहाराश्री अंतिम समय तक अपने निवेशकों और कर्मचारियों का बकाया लौटने की कोशिश में जुटे रहे।
इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत सरकार ने भी माना कि सहारा में निवेशकों के पैसे सुरक्षित हैं। और बस एक माध्यम की जरूरत थी और बीते दिनों उसे एक पोर्टल का स्वरूप देकर स्वयं केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शुरुआत की, जिसके माध्यम से निवेशक अपनी बकाया राशि के लिए आवेदन कर रहे हैं। इसके बाद से ही हजारों-लाखों कर्मियों के मन में भी अपना बकाया वेतन मिलने की आस थी। सहाराश्री पर सभी का यकीन था, कि चेयरमैन साहब सारी मुसीबतों से स्वयं निपट लेंगे और उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं होने देंगेे। क्या आप जानते हैं कि सहारा के सभी स्थायी कर्मियांे की रिटायर डेट भी होती है।
अमूमन जो कर्मी सहारा में ही रह गए वो यही रिटायर होते रहे हैं। कई अधिकारी एवं कर्मचारी तो रिटायर होने के बाद भी सालोंसाल कंपनी में ही अपनी सेवाएं देते रहे हैं। कुछ अधिकारी एवं कर्मचारियों की तीसरी-चौथी पीढ़ी भी सहारा में ही काम करते देखा है। यानी इन हाउस सुब्रत राय का दूसरा नाम ही विश्वास रहा है। आपको बता दें बीते 9-10 सालों से तमाम संकट और झंझावतों के बावजूद सहारा ने अपने कर्मियों को धुत्कार कर नहीं भगाया है, उससे जो भी बन पड़ा हर माह भुगतान कर रहा है। ताकि किसी की रोजी-रोटी पर संकट नहीं आए।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि संकट के दौर में भी मीडिया कर्मियों की सैलेरी आल इंडिया एक साथ ही हो रही है। ऐसा नहीं है कि लखनऊ की यूनिट मुनाफे में है तो वहां पहले भुगतान होगा या कानपुर की यूनिट घाटे में है तो वहां बाद में किया जाएगा। यानी देशभर में फैली हर यूनिट में सैलरी एक ही दिन होती है। सहाराश्री अब इस दुनिया से अलविदा हो गये हैं। अब मीडिया संस्थान पर उनके नहीं रहने का क्या असर पड़ेगा, यह तो वक्त भी बताएगा। सभी लोग, खासकर मीडिया के लोग स्तब्ध हैं। हालांकि, सहाराश्री ने खास और आम सभी के दिल को स्पर्श किया है। बहरहाल, सुख-दुख, उत्थान-पतन तथा जन्म-मृत्यु से इस संसार में कोई न बच पाया है और न ही बचेगा। ऐसे ही सहारा इंडिया परिवार के संस्थापक, प्रणेता, मुख्य अभिभावक, समूह के प्रबंध कार्यकर्ता तथा चेयरमैन सहाराश्री सुब्रत राय सहारा बतौर मीडिया किंग युगों-युगों तक याद किए जाएंगे।
आज देश में अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की भरमार है। लेकिन सहारा मीडिया की अपनी पहचान है। इसके पीछे सुब्रत राय जी की महत्वपूर्ण प्लानिंग रही है।