चुनावी जंग में उलझे महारथी

  • क्या चुनाव के कारण ताक पर रख दी विदेश नीति?
  • इजरायल अहम फैक्टर होगा चुनाव में
  • पितृ पक्ष में उम्मीदवारों की लिस्ट क्या सनातनी परम्परा?
  • चर्च की भी रहेगी भूमिका?
  • किस राज्य में किसके बीच है मुख्य मुकाबला
  • राजनीतिक दलों में क्यों खौफ है एमपीएफ का
अमित नेहरा, नई दिल्ली। 
‘इजराइल पर हुए आतंकवादी हमलों की खबर से गहरा सदमा लगा है। हमारी संवेदनाएं और प्रार्थनाएं निर्दोष पीड़ितों और उनके परिवारों के साथ हैं। हम इस कठिन समय में इसराइल के साथ एकजुटता से खड़े हैं।
7 अक्टूबर 2023 को हमास द्वारा इजरायल पर हुए हमले के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ( Prime Minister Narendra Modi) ने एक्स (ट्विटर) पर यह ट्वीट किया। आपको लगेगा कि इस ट्वीट में असामान्य बात क्या है। दरअसल, इस ट्वीट से अंतरराष्ट्रीय राजनीति ( Politic) में मोदी के इस रुख से खलबली मच गई क्योंकि उन्होंने अपने संदेश में फिलिस्तीन ( Palestine) का कहीं ज़िक्र नहीं किया। इससे पहले जब भी इस क्षेत्र पर भारत की ओर से कोई आधिकारिक बयान आता था तो उसमें फिलिस्तीनियों का ज़िक्र हमेशा होता रहा है। क्योंकि इस मसले पर भारत की नीति ‘दो राज्य समाधान’ पर टिकी हुई है। दुनिया को लगा कि भारत की नीति फिलिस्तीन के प्रति बदल गई है।
उधर, केंद्र में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने 9 अक्टूबर को अपनी वर्किंग कमेटी में प्रस्ताव पारित कर फिलिस्तीनी लोगों की जमीन, स्वशासन और आत्म-सम्मान के साथ जीवन के अधिकारों का समर्थन कर दिया। कहा गया कि सीडब्ल्यूसी तत्काल संघर्ष विराम का आह्वान करती है और वर्तमान संघर्ष को जन्म देने वाले अनिवार्य मुद्दों सहित सभी लंबित मुद्दों पर बातचीत शुरू करने का आह्वान करती है। इससे एक दिन पहले 8 अक्टूबर को पार्टी ने कहा था कि वह इजरायल के लोगों पर क्रूर हमलों की निंदा करती है। यानी मुख्य विपक्षी पार्टी ने इस मसले पर संतुलित प्रतिक्रिया दी।
मगर कांग्रेस की इस प्रतिक्रिया पर भाजपा के नेता टूट पड़े और इस बयान की खूब आलोचना की।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने तो कह दिया कि कांग्रेस, हमास की बात न करके फिलिस्तीनियों की बात कर रही है। मुझे तो लग रहा है कि कांग्रेस भारत में सरकार बनाना चाहती है या पाकिस्तान में?
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकार मानते हैं कि जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह ट्वीट किया तो उन्होंने शायद ये नहीं सोचा था कि इस बयान का ब्रिक्स, ओआईसी और शंघाई कोऑपरेशन पर क्या असर पड़ सकता है। मध्य-पूर्व में बहुपक्षीय सहयोग भारत के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वहां उसके व्यापारिक हित भी हैं और अरब देशों में बड़ी भारी संख्या में भारतीय प्रवासी रहते हैं।
मोदी के इस ट्वीट के बाद पांच दिनों तक भारत सरकार इस मसले पर बिल्कुल चुप रही। फिर आखिरकार पांचवें दिन विदेश मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी कि फिलिस्तीन और इसराइल को लेकर भारत के रुख़ में कोई बदलाव नहीं आया है और भारत, स्वतंत्र व स्वायत्त देश फिलिस्तीन की मांग के समर्थन में है।
इस बयान को देने के लिए विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची का सहारा लिया गया। उन्होंने कहा कि भारत, हमेशा से फिलिस्तीन के लोगों के लिए एक संप्रभु, स्वतंत्र देश फिलिस्तीन की स्थापना के लिए सीधी बातचीत करने की वकालत करता रहा है। एक ऐसा देश बने जिसकी अपनी सीमा हो और फिलिस्तीनी वहां सुरक्षित रह सकें, जो इजराइल के साथ भी शांति के साथ रहें।
आप सोच रहे होंगे कि यह स्पेशल रिपोर्ट भारत के पांच राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में चल रही चुनावी प्रक्रिया और घरेलू राजनीति पर है, तो ऐसे में इस रिपोर्ट में फिलिस्तीन और इजरायल को क्यों घुसेड़ दिया गया?
इसकी वजह यह है कि राजनीति में हर घटना, हर बयान, हर रणनीति के मायने होते हैं। कोई भी बड़ा नेता जो कहता है और जो हावभाव प्रदर्शित करता है उसे वह अपने नफे और विपक्षियों के नुकसान के लिए प्रयोग में लाता है।
बेशक भारत के विदेश मंत्रालय ने पांच दिनों बाद जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस ट्वीट के कारण हुए डेमेज कंट्रोल करने का प्रयास किया हो। मगर, सवाल यह उठता है कि आखिरकार इस ट्वीट को करने की जरूरत क्यों पड़ी?
राजनीति के जानकारों का कहना है कि ऐसा नहीं है कि यह ट्वीट गलती या असावधानी या जल्दबाजी में कर दिया गया हो। इजरायल पर हमास के हमले वाले दिन के समय भारत के पांच राज्यों में कभी भी विधानसभा चुनावों की घोषणा हो सकती थी (जो कि 9 अक्टूबर को हो गई) माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी का इजराइल को खुल कर समर्थन करने वाला बयान, कट्टर हिंदू वोट को पूरी तरह एकजुट कर भाजपा के समर्थन में करने की कोशिश है। यह मानने में भी कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि यह बयान पूरी तरह से व्यक्तिगत और देश की राजनीति से प्रेरित भाषा वाला था, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के रुख जैसा बिल्कुल नहीं था। कुल मिलाकर एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की गई कि इजरायल को समर्थन देना हिंदुत्व को मजबूत करना है।
चाहे जो भी हो यह देखना दिलचस्प रहेगा कि क्या विधानसभा चुनावों के क्षेत्रीय मुद्दों पर इजरायल-फिलिस्तीन मुद्दा हावी हो पायेगा? लोकसभा सरीखे केंद्रीय चुनाव में तो इस तरह के मुद्दों को भुनाया जा सकता है पर लगता नहीं कि बिल्कुल स्थानीय और जमीनी मुद्दों के सामने ये मसला थोड़ा-बहुत भी टिक पायेगा। फिलहाल तो पांचों राज्यों में सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवारों की लिस्ट जारी हो रही हैं और किसका टिकट कट गया और कौन टिकट लेने में कामयाब हो गया यही चर्चा का विषय बना हुआ है। उम्मीदवारों के दंगल में उतरने से धीरे-धीरे चुनाव की तस्वीर साफ होने लग गई है। उम्मीदवारों के सामने चुनौती, जीतना है जबकि पार्टियों के सामने जीत हासिल करने के साथ-साथ बागी उम्मीदवारों से निपटने की भी चुनौती है।
इस स्पेशल रिपोर्ट में सिलसिलेवार इन पांचों राज्यों में भाजपा, कांग्रेस व अन्य दलों की चुनावी रणनीतियों व ग्राउंड जीरो पर क्या हालात हैं, चर्चा होगी।
सनातनी परम्परा और मुहूर्त 
2 सितंबर 2023 को तमिलनाडु में डीएमके नेता और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन ने एक कार्यक्रम में कहा कि सामाजिक बुराइयों के लिए सनातन धर्म जिम्मेदार है, इसलिए इसे खत्म करना चाहिए। उन्होंने ये भी कहा कि जिस तरह डेंगू, मलेरिया और कोरोना को खत्म किया जाता है, ठीक ऐसे ही सनातन को समाज से पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए। इस पर भाजपा, डीएमके पर बुरी तरह से हमलावर हो गई।
उदयनिधि के इस बयान पर विवाद चल ही रहा था कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के पुत्र प्रियांक खड़गे ने भी ये कह दिया कि जो धर्म समानता को बढ़ावा नहीं देता है या फिर इंसान होने का सम्मान मिलना सुनिश्चित नहीं कर पाता है, वो मेरे मुताबिक धर्म ही नहीं है। भाजपा अभी तक सिर्फ डीएमके को ही घेर रही थी, वो कांग्रेस पर भी पिल पड़ी। भाजपा ने इसे बड़ा मुद्दा बना लिया और इंडिया गठबंधन को हिंदुत्व विरोधी बताया। भाजपा ने पूरे देश में यह संदेश दिया कि वह सनातनी मूल्यों में बेहद विश्वास करती है।
लेकिन पांच विधानसभा चुनावों में भाजपा ने मध्यप्रदेश के अपने 57 उम्मीदवारों की सूची पितृपक्ष के दौरान कर दी। इस लिस्ट में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित 24 मंत्रियों के नाम थे। इसी तरह भाजपा ने राजस्थान के उम्मीदवारों की भी एक लिस्ट पितृ पक्ष में जारी की। यह बेहद आश्चर्यजनक बात थी।
वजह यह है कि सनातनी परम्परा में पितृपक्ष में कोई भी शुभ काम नहीं किया जाता। हिंदू धर्म में तो विवाह से लेकर खरीददारी तक सारे काम पितृपक्ष के बाद ही किए जाते हैं। स्टालिन और प्रियांक खड़गे के बयानों के बाद जिस तरह भाजपा ने आसमान सिर पर उठाया था उससे लगा कि यह पार्टी हमेशा सनातन धर्म की बात करती है और मानती भी है। मगर पार्टी इस स्टैंड पर एक महीना भी नहीं टिक पाई और खुद सनातनी परम्पराओं का उल्लंघन कर डाला।
दूसरी तरफ, कांग्रेस ने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के विधानसभा चुनावों के लिए नवरात्रि के पहले दिन 15 अक्टूबर को क्रमश: 144, 30 और 55 उम्मीदवारों की घोषणा की। कांग्रेस ने नवरात्रि का इंतजार इसलिए किया ताकि वो हिन्दुत्व कार्ड को खुलकर खेल सके। कांग्रेस वोटरों यह विश्वास दिलाना चाहती है कि उसका विश्वास शास्त्रों और नक्षत्रों में है और वह हिन्दू धार्मिक मान्यताओं का पूरा सम्मान करती है। साथ ही नवरात्रि में लिस्ट जारी करके कांग्रेस, महिला वोटर्स को भी साधना चाहती है। कांग्रेस ने अपनी ये लिस्टें काफी समय पहले ही तैयार कर ली थीं मगर उसने शुभ मुहूर्त का इंतज़ार किया। यह भी काबिले गौर है कि मध्यप्रदेश में 2003 से लेकर 2018 तक कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों ने इससे पहले पितृपक्ष में कभी भी उम्मीदवारों की सूची जारी नहीं की थी।
छत्तीसगढ़ में मतदान का पहला चरण 7 नवंबर को ही है। यहाँ भी उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करने के लिए भी कांग्रेस ने नवरात्रि का पहला दिन चुना जबकि फाइनल सूची पर काफी पहले ही मुहर लग चुकी थी। नाम वापसी के लिए 20 अक्टूबर आखिरी तारीख थी। ऐसे में कांग्रेस के उम्मीदवारों के पास सोचने-समझने के लिए केवल पांच दिन का समय ही बचा। इससे पता चलता है कि कांग्रेस इस बार शुभ-अशुभ मुहूर्त व सनातनी परम्पराओं के प्रति कितनी सचेत है और हर कदम फूँक-फूँक कर रख रही है।
दूसरी तरफ, इस बार भाजपा में सब कुछ बदला-बदला सा नजर आ रहा है। चुनाव की तारीखों के ऐलान से पहले ही पहले सूचियां आ रही हैं। केंद्रीय मंत्रियों व सांसदों को मैदान में उतारा जा रहा है। रही सही कसर पितृपक्ष में उम्मीदवारों की सूची जारी करके पूरी दी गई है।
चर्चा में चर्च
मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथांगा ने 23 अक्टूबर को कहा कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विधानसभा चुनाव प्रचार करने मिजोरम में आएंगे तो वे उनके साथ मंच साझा नहीं करेंगे। ये बहुत बड़ा बयान है। 
गौरतलब है कि जोरमथांगा की पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) भाजपा के नेतृत्व वाले नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (एनईडीए) का हिस्सा है और केंद्र में एनडीए की सहयोगी है। हालांकि, एमएनएफ, मिजोरम में भाजपा के साथ काम नहीं करती है।
जोरमथांगा ने एक इंटरव्यू में कहा कि मिजोरम के सभी लोग ईसाई हैं। जब मणिपुर के लोगों (मैतेई) ने मणिपुर में सैकड़ों चर्च जलाए, तो वे (मिजो) इस तरह के विचार के पूरी तरह से खिलाफ थे। इस समय भाजपा के साथ सहानुभूति रखना मेरी पार्टी के लिए बड़ा नुकसान होगा। उन्होंने कहा, बेहतर होगा कि प्रधानमंत्री अकेले आएं और वह खुद मंच साझा करें और मैं अलग से मंच संभालूं। जोरमथांगा की इस घोषणा से संकेत मिलता है कि मिजोरम में भाजपा की राह आसान नहीं है। मणिपुर दंगों के कारण पूर्वोत्तर में पार्टी की साख पर प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गए हैं।
द्विध्रुवीय राजनीति की तरफ बढ़ रहा लोकतंत्र
देश में हाल फिलहाल में हुए विधानसभा चुनावों को देखें तो एक ट्रेंड साफ दिख रहा है कि किसी राज्य में कितनी ही पार्टियां मैदान में हों, मुकाबला पूरी तरह दो सबसे मजबूत दलों के बीच होता जा रहा है। पहले व दूसरे स्थान पर रहने वाले दो दलों के ही जिम्मे अधिकतम वोट आते हैं और बाकी सभी पार्टियां वोट के लिए तरसती रहती हैं। कहीं भी त्रिकोणीय मुकाबला या तीसरे दल को ज्यादा वोट पड़ते नजर नहीं आ रहे। देश में हुए पिछले 10 विधानसभा चुनावों का ट्रेंड देखा जाए तो पहले दो स्थान पर आने वाले राजनीतिक दलों को 80 परसेंट से भी ज्यादा वोट पड़ जाती है। यह बहुत बड़ा बदलाव है क्योंकि पहले यह आंकड़ा 70 परसेंट के आसपास रहता था।
मसलन
●पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में टीएमसी और भाजपा को कुल 86 परसेंट वोट पड़े। जबकि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी को खास तवज्जो नहीं मिली।
●इसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस और भाजपा को कुल 80 परसेंट वोट पड़े। जबकि जेडीएस और दूसरी कई अन्य पार्टियां भी मैदान में थीं।
●हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा को 87 परसेंट वोट पड़ा। जबकि वहां आम आदमी पार्टी व बसपा समेत दूसरे उम्मीदवार भी मैदान में थे।
●इसी प्रकार गुजरात में भी भाजपा-कांग्रेस के कुल 80 परसेंट वोट पड़े जबकि वहां आम आदमी पार्टी ने अपना पूरा जोर लगाया था।
●उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा और समाजवादी गठबंधन को 75 परसेंट वोट पड़ गए जबकि यहाँ बसपा और कांग्रेस भी चुनाव लड़ रही थीं।
एक परसेंट में ही बन-बिगड़ सकती है बात 
अगर इन पांच विधानसभा चुनावों की बात की जाए तो पिछले चुनावों में मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा के बीच हार-जीत का अंतर एक परसेंट से भी कम वोटों का रहा। तेलंगाना, छत्तीसगढ़ व मिजोरम में परसेंटेज में अंतर का आंकड़ा काफी ज्यादा रहा था। 
मध्यप्रदेश में कुल 230 सीटें हैं, मतदान 17 नवम्बर को होगा
पांच साल पहले हुए चुनाव में कांग्रेस को 114 व भाजपा को 109 सीटें मिली थीं। हालांकि वोट परसेंटेज में भाजपा थोड़ा आगे थी। भाजपा को 41.02 और कांग्रेस को 40.89 परसेंट वोट मिला था। यानी एक परसेंट से कम वोटों में ही फैसला हो गया।
भाजपा ने यहां उम्मीदवारों की जो पहली सूची जारी की थी, उनमे तीन केंद्रीय मंत्री सहित कुल सात सांसद और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के नामों ने सबको चौंका दिया है। वास्तविकता यह है कि जिन बड़े नेताओं को चुनावी मैदान में उतारा गया है, सब इस फ़ैसले से अंदरूनी तौर पर नाराज़ हैं। विजयवर्गीय का प्रकरण तो खूब उछला था।
इनमे कोई पाँच बार का तो कोई छह बार का सांसद है। इन उम्मीदवारों के उतारने के पीछे पार्टी की क्या रणनीति है यह पार्टी ने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है।
पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा था और उसे हार का सामना करना पड़ा था। इस बार भी हालात वैसे ही बने हुए हैं जिससे कांग्रेस का पलड़ा थोड़ा भारी नज़र आ रहा है। लेकिन कांग्रेस को पिछला प्रदर्शन बनाए रखना है, तो उसे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि कहीं वो अति आत्मविश्वास के जाल में ना फँस जाए। आंतरिक गुटबाजी को दूर करना भी कांग्रेस के सामने बड़ी चुनौती है।
राजस्थान में कुल 200 सीटें हैं, वोट 23 नवंबर को डाले जाएंगे
साल 2018 में हुए चुनाव में कांग्रेस ने 39.3 परसेंट वोटों के साथ 100 सीटें हासिल की थीं। भाजपा को भी 38.77 परसेंट वोट मिली थीं, लेकिन उसे केवल 73 सीटें ही मिली थीं। बसपा ने छह सीटें हासिल की थीं। यहाँ भी कांग्रेस-भाजपा में मुकाबला एक परसेंट से भी कम वोटों का रहा।
राजस्थान में प्रत्याशियों की लिस्ट जारी करने में राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी आगे है, 25 अक्टूबर तक 124 सीटों पर मुहर लग चुकी थी। जबकि कांग्रेस 100 नाम भी घोषित नहीं सकी है।
प्रदेश में राजनीति करने वाली आरएलपी, आप, बीटीपी, सीपीआईएम, सीपीएम, सपा के साथ अन्य दल कैंडिडेट के नाम घोषित करने में और भी फिसड्डी हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि आरएलपी और आप यहां पर सभी 200 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी हैं।
अगर, बात कांग्रेस की जाए तो राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सचिन पायलट के साथ रिश्ते बेहद तल्ख रहे हैं। गहलोत ने उन पर कांग्रेस सरकार को गिराने की कोशिश करने का आरोप लगाया था और उन्हें नाकारा और गद्दार भी कहा था। फिलहाल आलाकमान ने दोनों में सुलह करा दी है। सचिन पायलट ने कहा है कि हम दोनों नेता अब एकजुट हैं।
दूसरी तरफ भाजपा ने राजस्थान में अपने सबसे बड़े चेहरे वसुंधरा राजे सिंधिया को पूरे चुनावी कैम्पेन में किनारे लगा दिया है। उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा भी नहीं बनाया गया। इसके क्या परिणाम होंगे यह भी देखना दिलचस्प रहेगा।
वैसे, मध्यप्रदेश की तरह राजस्थान में भी भाजपा ने अपने 7 सांसदों राज्यवर्धन सिंह राठौड़, दीया कुमारी, बाबा बालकनाथ, हंसराज मीणा, किरोड़ी लाल मीणा, नरेंद्र कुमार और देवी पटेल को भी विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतार दिया है। राजस्थान में परम्परा रही है कि यहाँ हुए हर विधानसभा चुनाव में सरकार बदल जाती है। क्या इस बार यह इतिहास बदलेगा या भाजपा सरकार बना लेगी, यह देखना भी दिलचस्प रहेगा।
तेलंगाना में कुल 119 सीटें हैं और यहाँ 30 नवंबर को वोट डाले जाएंगे
पांच साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस, अब बीआरएस) ने 88 सीटों के साथ बड़ी जीत हासिल की थी। दूसरे स्थान पर रही कांग्रेस को केवल 19, टीडीपी को 13, असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को सात और भाजपा को एक सीट हासिल हुई थी। बीआरएस और कांग्रेस में सीधा व कांटे का मुकाबला है।
इस बार तेलंगाना में सत्ता विरोधी लहर की वजह से कांग्रेस और सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति के बीच मुकाबला बेहद कड़ा माना जा रहा है। कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत यहां लगा दी है। कांग्रेस पिछले एक साल में बहुत मजबूत हुई है, बीआरएस के कई नेता लगातार कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि कांग्रेस सत्ता में आ सकती है या फिर बहुमत के बहुत करीब जा सकती है।
अगर भाजपा की बात की जाए तो तेलंगाना में उसकी स्थिति अच्छी नहीं है। अंदरुनी कलह की वजह से पार्टी बड़े दायरे की जगह छोटे स्तर पर ही चुनाव जीतने की कोशिश में है। हालात यह हैं कि विभिन्न दलों से भाजपा में शामिल होने वाले लगभग 10 वरिष्ठ राजनेताओं ने चुनाव के लिए पार्टी की तैयारी के बारे में अपनी नाराजगी व्यक्त की है,  कुछ ने तो भाजपा छोड़ने की धमकी भी दी है। यही वजह है कि पार्टी तेलंगाना में केवल 25-30 सीटों पर ही फोकस कर रही है।
छत्तीसगढ़ विधानसभा में कुल 90 सीटें हैं
साल 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने 43.04 परसेंट वोटों के साथ 68 सीटों पर जबरदस्त जीत हासिल की थी। भाजपा को 32.92 परसेंट वोट के साथ 15 सीटें मिली थीं। बहुजन समाज पार्टी को 3.87 परसेंट वोट व दो सीटें मिली थीं। इस बार भी यहाँ कांग्रेस और भाजपा के बीच ही मुकाबला है।
देश की आजादी के बाद 1952 में मध्यप्रांत में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए। उस समय मध्यप्रांत में भोपाल, रायपुर और नागपुर शामिल थे। मध्यप्रांत की विधानसभा की सभी 184 सीटों के लिए जब उम्मीदवारों की तलाश शुरु हुई तो आदिवासी इलाक़ों में राजनीतिक दलों को बेहद निराशा का सामना करना पड़ा।
उस चुनाव में 184 में से पांच सीटें ऐसी थीं, जहां चुनाव में केवल एक ही उम्मीदवार खड़ा हुआ था। ये पांचों उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिए गए!
इस लिस्ट में दंतेवाड़ा से निर्दलीय प्रत्याशी बोडा, बीजापुर से कांग्रेस के हीरा शाह, सुकमा से निर्दलीय प्रत्याशी पीलू, केशकाल से निर्दलीय प्रत्याशी राजमन और नारायणपुर से कांग्रेस के प्रत्याशी रामेश्वर थे। जाहिर सी बात है कि उस समय इस इलाके में राजनीतिक चेतना शून्य ही थी। अब ये विधानसभा की पांचों सीटें, छत्तीसगढ़ के बस्तर में हैं और जिन सीटों पर राजनीतिक दलों कभी उम्मीदवार नहीं मिले थे, आज वहाँ राजनीतिक दलों में टिकट लेने के लिए घमासान मचा हुआ है।
छत्तीसगढ़ में विधानसभा की 90 सीटों में से 29 सीटें आदिवासियों के लिए और 10 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं।
इतनी सीटें व आबादी के कारण यहां समय-समय पर आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग होती रहती है। महत्वपूर्ण बात है कि अविभाजित मध्यप्रदेश और अब छत्तीसगढ़ के इतिहास में केवल एक ही बार कोई आदिवासी विधायक मुख्यमंत्री बन पाया है और वे थे छत्तीसगढ़ की सारंगगढ़ विधानसभा के आदिवासी विधायक नरेश चंद्र सिंह। नरेश चंद्र सिंह मार्च 1969 में केवल तेरह दिनों के लिए ही मुख्यमंत्री बने थे।
अलग छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद यहाँ आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग उठती है लेकिन ऐसा हो नहीं पाया है। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने 29 आदिवासी सीटों में से 25 पर जीती थी। इस बार भी मुख्य मुकाबला कांग्रेस व भाजपा में है।  लेकिन इस बार इन आदिवासी सीटों पर कांग्रेस, भाजपा के अलावा, हमर राज पार्टी ने भी अपने उम्मीदवार उतारे हैं।
हमर राज पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम का कहना है आदिवासी समाज बहुत दिनों तक कांग्रेस व भाजपा पार्टियों के पीछे रहा है। अब आदिवासियों ने अपना संगठन बना कर चुनाव लड़ने की पहल की है। नेताम का कहना है कि इस बार आदिवासी इलाकों में ‘पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया क़ानून’ यानी ‘पैसा’ के अधिकार छीनने, ग्राम पंचायतों की सहमति के बिना खनन के लिए सड़क बनाने, पंचायत की अनुमति के बिना खनन करने, मानवाधिकारों का हनन, लघु वनोपज की कम ख़रीद और आदिवासी अधिकार के मुद्दों पर वोट डाले जाएंगे।
यहाँ हमर राज पार्टी का जिक्र करना इसलिए जरूरी है कि अगर आदिवासी इस पार्टी की तरफ झुक गए तो वे प्रदेश में फिलहाल सरकार तो नहीं बना पाएंगे मगर वे कांग्रेस और भाजपा के समीकरणों को जरूर उलट-पलट कर देंगे। यह आशंका निर्मूल नहीं है, 2022 में भानुप्रतापपुर उपचुनाव में सर्व आदिवासी समाज ने अंतिम क्षणों में अपना उम्मीदवार उतारा था। उसे एयर कंडीशनर चुनाव चिह्न मिला था और वह 23 हज़ार से अधिक वोट ले गया!
मिज़ोरम में कुल 40 सीटें हैं। पांच साल पहले हुए चुनाव में मिज़ो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) ने 27 सीटें जीतकर सत्ता हासिल की थी। कांग्रेस को चार और बीजेपी को केवल एक सीट मिली थी।
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अभी तक ग्राउंड जीरो के आधार पर कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है, तेलंगाना में बीआरएस व कांग्रेस के बीच मुकाबला है। मिजोरम का मिजाज समझने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा। क्योंकि जोरमथांगा की नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा न करने की घोषणा का कांग्रेस पार्टी पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह देखना दिलचस्प रहेगा। मगर यह साफ है कि इसके चलते भाजपा यहां मुकाबले से आउट होती दिखाई दे रही है।
एमपीएफ की गाइडलाइन चुनाव आयोग से भी सख्त
पूर्वोत्तर में स्थित मिजोरम के चुनाव की चर्चा उत्तर भारत में बहुत कम हो पाती है। यहां का विधानसभा चुनाव बेहद अनोखा है।  पार्टी के दफ्तर या घरों पर न तो किसी पार्टी का झंडा है और न पोस्टर और न बैनर है। इसकी वजह है मिजोरम पीपुल्स फोरम (एमपीएफ) की चुनावी गाइडलाइंस। एमपीएफ की गाइडलाइंस को हर दल, हर कैंडिडेट मानता है। इसकी वजह है कि मिजोरम की ज्यादातर आबादी ईसाई है। अतः यहाँ चर्च का प्रभाव ज्यादा है। पूर्वोत्तर के सबसे बड़े ईसाई संप्रदाय मिजोरम प्रेस्बिटेरियन चर्च सिनॉड ने 2006 में एमपीएफ की स्थापना की थी। यह एक स्वतंत्र निकाय है। इसमें चर्च के बुजुर्ग, महिलाएं, वरिष्ठ नागरिक और युवा शामिल हैं। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग से ज्यादा एमपीएफ अपने सर पर लेता है। चुनाव प्रचार के नियम भी एमपीएफ तय करता है। एमपीएफ ने सभी प्रमुख पार्टियों के साथ इसे लेकर लिखित समझौता किया है। जिसके अनुसार कोई भी पॉलिटिकल पार्टी बैनर- पोस्टर, पार्टी का झंडा नहीं लगाएगी। चुनाव की घोषणा के बाद प्रत्याशी घर-घर प्रचार के लिए नहीं जाएंगे। घोषणा पत्र में वही वादे किये जायेंगे जो हकीकत में पूरे हो सकें। शहरों में रैलियां नहीं होंगी। कोई सवाल है तो प्रत्याशियों को समय बताकर एक मंच पर बुला लिया जाएगा, जहां वे जनता के सवालों का सामना करेंगे। 
मिजोरम में कोई भी दल या प्रत्याशी एमपीएफ की गाइडलाइन नहीं तोड़ सकता। एमपीएफ
के कार्यकर्ता हर वोटर, हर दल और हर प्रत्याशी पर बारीकी से नजर रखते हैं। जहां भी गाइडलाइन का उल्लंघन होता है तो एमपीएफ को तुरंत खबर हो जाती है।
हाल ही में एक महत्वपूर्ण घटना हुई। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 16 व 17 अक्टूबर को आइजोल में रोड शो व रैली की थी। एमपीएफ द्वारा शहरों में इसकी मनाही है। इसलिए एमपीएफ ने प्रदेश कांग्रेस से पूछा कि हमारे साथ किया गया समझौता क्यों तोड़ा गया? हालांकि एमपीएफ के पास किसी भी कैंडिडेट या दल के खिलाफ कार्रवाई करने की कोई संवैधानिक ताकत नहीं है। लेकिन एमपीएफ नियम तोड़ने वाले दलों को इसके कारण जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ता है और यह नाराजगी वोटों के जरिए जाहिर की जाती है।
चलते-चलते
इस स्पेशल रिपोर्ट की शुरुआत 7 अक्टूबर 2023 को हमास द्वारा इजरायल पर हुए हमले के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट से हुई थी। जिसमें उन्होंने इजरायल का पक्ष लिया था और फिलिस्तीन का कोई जिक्र नहीं किया था जो कि भारत की विदेश नीति में अभूतपूर्व मामला था। इसकी काफी आलोचना हुई।
मगर 22 अक्टूबर 2023 को सुबह 10:37 पर एक्स (ट्विटर) पर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने ट्वीट किया
‘भारत फिलिस्तीन के लोगों को मानवीय सहायता भेज रहा है। फिलिस्तीन के लोगों के लिए लगभग 6.5 टन चिकित्सा सहायता और 32 टन आपदा राहत सामग्री लेकर इंडियन एयरफोर्स का विमान सी-17 मिस्र के एल-अरिश हवाई अड्डे के लिए रवाना हो गया है।’
जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट और अरिंदम बागची के ट्वीट में विरोधाभास को समझना मुश्किल है। बिल्कुल इसी तरह मतदाताओं के मन व रुख को भी समझना मुश्किल है पता नहीं कब पलटी मार जाए!

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