मामा और महारानी : बीजेपी की मजबूरी

धर्मपाल धनखड़

राजनीति (politic) बहुमत को साथ लेकर, विरोधियों को ठिकाने लगाने का खेल है। विरोधी! विपक्षी पार्टियों के नेता हों या अपनी ही पार्टी के। सभी को ठिकाने लगाना या आवश्यकतानुसार उनका इस्तेमाल करना एक कला है। और इस कला में सिद्धहस्त हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) और गृहमंत्री अमित शाह। इन दिनों देश में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं।

इन चुनावों में विरोधी पार्टियों के नेताओं की सप्लाई लाइन काटने के काम को ईडी, आई टी और सीबीआई जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियां बाखूबी कर रही हैं। इसी के चलते विपक्षी दलों को बीजेपी से ही नहीं, केंद्रीय जांच एजेंसियों का भी मुकाबला करना पड़ रहा है। खैर अंतिम फैसला मतदाता ( voter) को करना है। वह अपने वोट से कर ही देगा। इस समय मोदी शाह के लिए अपनी ही पार्टी के दो नेता- मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह (Chief Minister Shivraj Singh चौहान और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया आंख की किरकिरी बने हुए हैं। लेकिन चाह कर भी वे उन्हें ठिकाने नहीं लगा पा रहे हैं।
एमपी में अठारह साल से सरकार की बागडोर संभाल रहे शिवराज सिंह चौहान को इस बार बीजेपी ने मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाया है। इसलिए बीजेपी ने भावी मुख्यमंत्री के रूप में सात सांसदों जिनमें तीन केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं, चुनाव मैदान में उतारे हैं। यू तो मध्यप्रदेश में अब तक करवाये गये विभिन्न सर्वेक्षणों में कांग्रेस नेता कमलनाथ भावी मुख्यमंत्री के तौर पर लोगों की पहली पसंद बताये जा रहे हैं। दूसरी पसंद आज भी शिवराज सिंह चौहान हैं। वहीं सातों सांसद जिन्हें तुरुप के इक्के बताया जा रहा हैं, भावी मुख्यमंत्री के रूप में उनका कोई नामलेवा नहीं है। चौंकाने वाली बात तो ये है कि प्रदेश के लोगों की मुख्यमंत्री के तौर पर तीसरी पसंद केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को बताया जा रहा है। व्यापम घोटाले और भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में बीजेपी के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। इस बात में किसी को कोई संदेह नहीं है।‌ बावजूद इसके बीजेपी यदि चुनाव जीतती है, तो इसका सारा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जायेगा और यदि हारती है, तो इसकी जिम्मेदारी शिवराज सिंह चौहान की होगी।
बीजेपी के सातों सितारे सांसद, अपने-अपने विधानसभा क्षेत्र में चुनाव प्रचार करने तक सीमित हैं। अपने क्षेत्र से बाहर निकलकर पार्टी के अन्य उम्मीदवारों के लिए वोट मांगने की कुव्वत उनमें नहीं है। शिवराज सिंह चौहान पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की घोर उपेक्षा के बावजूद प्रदेश भर में पार्टी प्रत्याशियों के लिए चुनाव प्रचार कर रहे हैं। वे पार्टी प्रत्याशियों के लिए स्टार प्रचारक की तरह हैं। ज्यादातर राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि शिवराज प्रदेश के अन्य नेताओं पर भारी पड़ रहे हैं। इसीलिए माना जा रहा कि वे अभी भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर नहीं हुए हैं। पार्टी में उनके विरोधियों का भी मानना है कि चुनाव में यदि बीजेपी को बहुमत मिलता है, तो शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर करना बेहद मुश्किल होगा। इसी को लेकर पार्टी में जो शिवराज विरोधी हैं, वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी नाराज़ हैं। उनकी मांग शिवराज को चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री पद से हटाकर किसी अन्य को मुख्यमंत्री बनाने की थी। लेकिन अंतिम समय में शिवराज सिंह को हटाना पार्टी के लिए नुकसानदेह हो सकता था। इससे बचने के लिए ही उन्हें हटाया नहीं गया।
इसी तरह राजस्थान में भी मोदी शाह की जोड़ी ने पूर्व मुख्यमंत्री महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया को भी ठिकाने लगाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। गौरतलब है कि वसुंधरा दो बार राज्य की मुख्यमंत्री रहीं हैं। प्रदेश में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की शह पर महारानी विरोधियों की एक लाबी सक्रिय हैं। जिसने पिछले यानी 2018 के विधानसभा चुनाव में नारा दिया था- कि मोदी तुझसे बैर नहीं, रानी तेरी खैर नहीं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि इसी नारे के चलते पार्टी को करारी हार मिली थी। इस बार शुरू से ही बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व महारानी सिंधिया को दरकिनार करके चल रहा था। जिस तरह कर्नाटक चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा को शुरू में दरकिनार किया गया और अंतिम समय में उन्हें दिखावे के लिए पार्टी का पोस्टर ब्वाय घोषित किया गया। जबकि सबको मालूम है कि पार्टी का पोस्टर ब्वाय तो एक ही है। उसके होते कोई दूसरा हीरों नहीं हो सकता। ठीक उसी तरह अंतिम समय में जब लगा कि अकेले मोदी के चेहरे पर चुनाव जीतना संभव नहीं है, तब जाकर महारानी सिंधिया और उनके समर्थकों को टिकट देकर एडजस्ट किया गया। इस पर भी महारानी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया गया। यहां भी यदि चुनाव के बाद यदि बीजेपी बहुमत में आयी तो वसुंधरा को मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर रख पाना, केंद्रीय नेतृत्व के लिए सहज नहीं होगा। यहां रानी और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मिली-जुली राजनीति बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियों के आलाकमानों पर भारी पड़ सकती है। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस आलाकमान अशोक गहलोत से ख़फ़ा है। लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री पद पर बनाये रखना आलाकमान की राजनीतिक मजबूरी रही है। सबको मालूम है कि गांधी परिवार सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाना चाहता था, लेकिन गहलोत ने उनकी योजना सिरे नहीं चढ़ने दी। चुनाव के बाद यदि राज्य में कांग्रेस को बहुमत मिलता है, तो पार्टी आलाकमान के लिए गहलोत को मुख्यमंत्री बनने से रोक पाना आसान नहीं होगा। इसी तरह यदि बीजेपी चुनाव में जीत जाती है, तो महारानी सिंधिया को मुख्यमंत्री बनने से रोकना पार्टी आलाकमान के लिए मुश्किल होगा।
यहां गौर करने लायक बात ये भी है कि कांग्रेस आलाकमान कमजोर है, इसलिए पार्टी में क्षत्रप हावी हैं और इसी का फायदा गहलोत को मिलता रहा है। लेकिन दूसरी तरफ मोदी-शाह के सामने पार्टी तो पार्टी, संघ में भी कोई बोलने वाला नहीं है। इतने पर भी शिवराज सिंह चौहान उर्फ मामा और महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया से पार पाना उनके लिए मुश्किल भले ना हो, लेकिन सहज और सरल भी नहीं होगा।

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