जाति गणना : संघ-भाजपा की दुरंगी नीति

राजेंद्र शर्मा

जाति गणना ( Caste census)के मुद्दे पर, जो उत्तरी भारत में खासतौर पर तेजी से जोर पकड़ रहा है, भाजपा (BJP) की दशा सांप-छंछूदर वाली हो गयी है। उससे न उगलते बन रहा है और न निगलते। छत्तीसगढ़, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में चुनाव (election) के मौजूदा चक्र में, भाजपा का मुख्य मुकाबला कांग्रेस से है, जो जाति गणना का मुद्दा जोर-शोर से उठा रही है। विडंबनापूर्ण है कि इसके लिए पेश किया जा रहे मुख्य तर्क को जिस एक आसान से नारे में सूत्रबद्घ किया जा रहा है, वह पचास-साठ के दशकों में कांग्रेस के मुखर विरोधी रहे, समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने दिया था – जिसकी जितनी गिनती भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी! इस सरल से सिद्घांत को झुठलाने की बदहवास कोशिश में संघ Rss-भाजपा के शीर्ष नेता ऐसी परस्पर विरोधी बातें कह रहे हैं, जो उनकी विश्वसनीयता को ही गिराने का काम कर रही हैं।

चुनाव के मौजूदा चक्र की तारीखों के एलान से भी पहले से, खासतौर पर छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश में अपनी चुनावी सभाओं में, खुद प्रधानमंत्री मोदी (  Prime Minister Modi) को जाति-गणना की मांग के खिलाफ दो आम दलीलें देते हुए देखा गया है, जो आपस में जुड़ती भी हैं। पहली दलील तो यही है कि जाति की गणना, बांटने का काम करेगी। समझना मुश्किल नहीं है कि संघ परिवार के नेता जब ”बांटने-बंटने” की चिंता जताते हैं, तो उनका आशय किस विभाजन से होता है! जाहिर है कि जाति गणना से उनकी शिकायत यही है कि इससे ”हिंदू” बंट जाएंगे। लेकिन, जाति की सचाई के आधार पर हिंदू कहे जाने वाले तो, पहले ही बंटे हुए हैं।

दूसरों यानी गैर-हिंदू कहलाने वालों से नफरत के सहारे, हिंदू कहे जाने वालों के जाति के आधार पर बंटे होने की सचाई पर ऊपर-ऊपर से पर्दा डालकर, इस विभाजन को छुपाने की संघ-भाजपा तथा उनके सगोत्रों की कोशिशों के बावजूद, जातिगत दर्जे की सच्चाई भारतीय उपमहाद्वीप में सामान्यत: जन-जीवन को इतना ज्यादा नियंत्रित करती है कि उसे नकारना किसी भी तरह संभव नहीं है। वास्तव में इस सच्चाई को नकारना, ऊंच-नीच पर आधारित, विशेषाधिकारों-निषेधों की इस व्यवस्था को और पुख्ता करने का ही काम करता है। जाहिर है कि जाति की सचाई का इस तरह नकारा जाना, इस विभाजन में विशेषाधिकार की स्थिति-प्राप्त ऊंची जातियों के ही हित में जाता है क्योंकि यह उनके विशेषाधिकारों को ही अदृश्य कर, अजर-अमर बनाने की व्यवस्था करता है और संघ-भाजपा तथा उनके भाई-बंद, विचारधारात्मक रूप से इसी सवर्ण-विशेषाधिकारवादी या ब्राह्ममणवादी व्यवस्था के पोषक हैं।

जाति गणना के जरिए, इस विभाजन के विभिन्न घटकों के अनुपात की सचाई के सामने आने में, प्रधानमंत्री मोदी समेत उनके संघ परिवार को हिंदुओं का ”विभाजन” ही अगर दिखाई देता है तो इसीलिए कि यह गणना, जाति-विभाजन पर आधारित मौजूदा संतुलन को अस्थिर कर सकती है; उसमें बदलाव की प्रक्रियाओं को आगे बढ़ा सकती है। इसीलिए, एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा और उसके द्वारा नियंत्रित सरकार, हमेशा से हर दस साल पर होने वाली जनगणना में, जाति-जनगणना का पहलू शामिल किए जाने का विरोध करती आयी है। पिछली सदी के आखिरी दशक के आरंभ से उठी पिछड़ा वर्ग के आंदोलन की जबर्दस्त लहर में इस तबके के लिए एक हद तक शिक्षा व रोजगार में आरक्षण की व्यवस्था अपनाए जाने के बावजूद, इन आरक्षणों के आधार के रूप में जाति गणना का उसका विरोध बना ही रहा है। यहां तक कि पिछले दशक के पूर्वार्द्घ में, वर्तमान मोदी सरकार के आने से पहले राज्यों के आधार पर, सामाजिक-आर्थिक दर्जे की जो गणना की भी गयी थी, उसे भी तरह-तरह के बहानों से दफ्न ही कर दिया गया।

इसी पृष्ठभूमि में लंबे संघर्ष के बाद बिहार में, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने 2022 के जून के आरंभ में जातिगत सर्वे कराने की अधिसूचना जारी की थी। खास बात यह थी कि बिहार की विशेष परिस्थितियों में और आम तौर पर पिछड़े वर्ग के बढ़ते दबाव में तथा गठबंधन सरकार की मजबूरियों के चलते, अनिच्छापूर्वक ही सही भाजपा भी जाति सर्वे को अपना समर्थन देने के लिए तैयार हो गयी। इस तरह एक विसंगतिपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी, जहां भाजपा बिहार के स्तर पर कम से कम औपचारिक रूप से जाति गणना का समर्थन कर रही थी, जबकि देश के स्तर पर भाजपा और उसकी केंद्र सरकार, जनगणना में जाति-गणना का पहलू शामिल किए जाने का कड़ा विरोध कर रही थीं। यहां तक कि अब से मुश्किल से दो महीने पहले तक, जब बिहार के जाति सर्वे के नतीजों की घोषणा को रुकवाने में हाई कोर्ट के विफल रहने के बाद, सुप्रीम कोर्ट मेें चुनौती दी गयी थी, केंद्र सरकार द्वारा दायर किए गए मूल एफीडेविट में, राज्य के ऐसी कोई गणना करने के अधिकार को चुनौती ही दी गयी थी। लेकिन, हवा का रुख भांपकर केंद्र सरकार ने इस मामले में फौरन पल्टी मारी और एफीडेविट में संशोधन करा के, राज्य के ऐसा सर्वे कराने के अधिकार को मान्यता दे दी।

उसके बाद से बिहार में, आंशिक रूप से इस जाति सर्वे के नतीजे घोषित किए जा चुके हैं। उधर कर्नाटक तथा ओडिशा में भी कोई जाति सर्वे मौजूद होने की खबर है, जबकि आंध्र प्रदेश में भी किसी प्रकार का जाति सर्वे चल रहा बताया जाता है। और विधानसभाई चुनाव के वर्तमान चक्र में कांग्रेस के जाति सर्वे का मुद्दा प्रमुखता से उठाने के बाद, छत्तीसगढ़ व राजस्थान की कांग्रेसी सरकारें, जाति सर्वे कराने के संकल्प की घोषणा कर चुकी हैं जबकि कांग्रेस ने मध्य प्रदेश तथा तेलंगाना में भी जाति सर्वे कराने का एलान किया है।

जाति गणना की मांग के इस बढ़ते दबाव का मुकाबला करने के लिए ही प्रधानमंत्री मोदी ”जाति के आधार पर बांटने की साजिश” का झूठा हौवा खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन, खुले आम ”हिंदुओं के बंटने” की शिकायत, चुनाव के लिए सांप्रदायिक दुहाई का सहारा लिए जाने की श्रेणी में आ सकती थी या कम से कम ऐसी आलोचनाएं तो आकर्षित कर ही सकती थी। इसलिए, प्रधानमंत्री ने बड़ी चतुराई से बांटने की शिकायत को तो ज्यों का त्यों रखा, बस ”हिंदुओं” की जगह, ”गरीबों” कर दिया! इस तिकड़म से जाति सर्वे को, जिसमें गरीबों-वंचितों का ही सबसे ज्यादा हित है, गरीबों को बांटने का षडयंत्र बना दिया गया! और इसका उपदेश दिया जाने लगा कि हम तो एक ही जाति जानते हैं—गरीब। गरीब ही सबसे बड़ी जाति है। उसी को बांटने की कोशिश की जा रही है, आदि, आदि।

लेकिन, इससे कोई यह नहीं समझे कि संघ-भाजपा सिर्फ जाति के यथार्थ के ब्राह्मणवादी नकार पर ही अडिग हैं। सत्ता हासिल करने को सर्वोपरि मानने वाले संघ-भाजपा, इतने यथार्थवादी जरूर हैं कि वे जातिगत विभाजन के यथार्थ के दोहन की संभावनाओं को भी, हाथ से नहीं जाने दे सकते हैं। जाति के दो पक्ष हैं। एक आंतरिक यानी जाति विशेष के रूप में पहचान का। दूसरा, जाति व्यवस्था के अंतर्गत यानी इस व्यवस्था के दूसरे घटकों के बरक्स हैसियत या दर्जे का। इस जातिगत पहचान की राजनीति, सामाजिक यथास्थिति को जरा भी अस्थिर नहीं करती है और इसीलिए, इसको साधने में संघ-भाजपा ने खूब महारत हासिल कर ली है। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि नरेंद्र मोदी एक ही सांस में ‘एक ही जाति—गरीब, ही मानने’ का भी दावा करते हैं और उसी सांस में इसका झूठा रोना भी रोते हैं कि ‘मैं क्योंकि ओबीसी हूं, इसलिए विरोधी मुझे गालियां देते हैं!’ अगर एक ओबीसी को प्रधानमंत्री होकर भी गालियां खानी पड़ती हैं, तब तो और भी जरूरी है कि जाति गणना कराकर, जातियों की वास्तविक स्थिति सामने लायी जाए, ताकि ठोस आधार पर उनके हालात में बदलाव के लिए कदम उठाए जा सकें!

लेकिन, मोदी सरकार को जनगणना में जाति का पहलू शामिल करना मंजूर नहीं है। पिछली सदी के तीस के दशक की जनगणना में आखिरी बार, जाति गणना को शामिल किया गया था। यानी अनुसूचित जातियों व जनजातियों को छोड़ दें तो, जातिगत गिनती और अनुपात के हमारे आंकड़े, सौ साल से भी ज्यादा पुराने हैं। इसके बावजूद, 2021 की देरी से होने वाली जनगणना में, वर्तमान सरकार के इस पहलू को शामिल करने के अब तक कोई संकेत नहीं हैं। इन हालात में बढ़ती संख्या में राज्यों में जाति गणना की मांग उठ रही है। मौजूदा कानून के अनुसार, जनगणना चूंकि केंद्र के ही अधिकार क्षेत्र में आती है, राज्य सरकारें जाति सर्वे या ऐसे ही दूसरे नामों से ही, इस तरह की गणना करा सकती हैं। बिहार के उदाहरण से स्पष्ट है कि राज्यों के स्तर पर जाति-गणना न सिर्फ संभव है बल्कि कई कामों के लिए जरूरी भी हो सकती है। फिर भी, राज्य स्तर पर ऐसी गणना की अपनी गंभीर सीमाएं हैं। प्रामाणिक जाति गणना, जनगणना के हिस्से के तौर पर ही हो सकती है और उसी से विभिन्न सामाजिक संस्तरों की वास्तविक सामाजिक-आर्थिक स्थिति की, अपेक्षाकृत पूरी तथा तुलनात्मक तस्वीर सामने आ सकती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जाति गणना की मांग का बढ़ता हुआ दबाव, खुद अपने राजनीतिक हितों के लिए ही, संघ-भाजपा को भी इसके लिए मजबूर करेगा कि वे अमित शाह की इस तरह की चतुर जुमलेबाजी से आगे बढ़ें कि ‘भाजपा ने तो जाति गणना का कभी विरोध नहीं किया’ और अगली जनगणना में जाति-गणना को शामिल किए जाने का रास्ता साफ हो।

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