- महिला आरक्षण बिल पास होने के बाद राजनीतिक पार्टियों में श्रेय लेने की होड़
- आने वाले समय में बदल जाएगी राजनीति की सूरत और सीरत
- कुछ राजनीतिक दल आरक्षण के भीतर चाहते थे आरक्षण
पूरे सत्ताइस साल से लटका हुआ महिला आरक्षण विधेयक (Women’s Reservation Bill) गणेश चतुर्थी के मौके पर लोकसभा में पेश हो चुका है। गर्व और गौरव का क्षण यह रहा कि नए संसद भवन में प्रवेश के साथ ही नारी शक्ति वंदन अधिनियम (naari shakti vandan adhiniyam) पेश हुआ। यह इस नए सदन का पहला कदम था। गणेश चतुर्थी के साथ पर्यूषण महापर्व भी शुरू हुआ है।
बड़ी सौम्यता के साथ प्रधानमंत्री ने इस मौके पर अपने सांसद साथियों और साथ में देशवासियों से भी मिच्छामि दु:खडम कहा। इसके बाद सदन का माहौल और भी सकारात्मक हो गया। यकीन जानिए, महिला आरक्षण बिल पास होने के बाद आने वाले समय में राजनीति की सूरत और सीरत बदल जाएगी। क्योंकि राजनीति की हेकड़ी अब सौम्यता में तब्दील होने वाली है।
निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) के भाषणों ने प्रभावित किया। पहले दिन उन्होंने भावुकता के साथ उन सभी मनीषियों को याद किया जिन्होंने पुराने संसद भवन (जिसका नाम अब संविधान सदन हो गया है) में अपना योगदान दिया। चाहे वे मनीषी किसी भी पार्टी के रहे हों, प्रधानमंत्री ने उन्हें समान शिद्दत से याद किया।
क्या पंडित जवाहर लाल नेहरू, क्या श्रीमती इंदिरा गांधी और क्या अटल बिहारी वाजपेयी! सब का सम्मान। दूसरे दिन भी प्रधानमंत्री ने गरिमा युक्त भाषण दिया। सभी दलों के सम्मान में कुछ न कुछ कहा। सीख भी दी कि इस संसद में रहे हमारे पूर्वजों ने इसे दल हित के लिए नहीं बल्कि देश हित के लिए बनाया है। इसी भावना के साथ नए संसद भवन में प्रवेश किया गया। नए संसद भवन में जब विपक्ष के बोलने की बारी आई तो नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी शुरूआत में तो सकारात्मक ही बोले, लेकिन बाद में वे पटरी से उतर गए।
उन्होंने राजीव गांधी का नाम लेकर कह दिया कि महिलाओं के लिए सबसे पहले 33 प्रतिशत आरक्षण 1989 में वे ही लाए थे। इसके बाद ही हंगामा शुरू हो गया। सच यह है कि महिला आरक्षण विधेयक सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के कार्यकाल में 1996 में लाया गया था, लेकिन पारित नहीं हो सका। फिर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में 1998 और 1999 में यह विधेयक पेश किया गया। फिर पारित नहीं हो सका।
दरअसल, कुछ राजनीतिक दल आरक्षण के भीतर आरक्षण चाहते थे। यानी एससी, एसटी और ओबीसी महिलाओं के लिए भी आरक्षण। खैर, इसके बाद यह विधेयक 2008 में मनमोहन सिंह की सरकार में राज्यसभा में पेश हुआ। 2010 में राज्यसभा ने इसे पारित भी कर दिया और इसकी सूचना लोकसभा को दे दी गई। बाद में लोकसभा भंग होने के साथ ही यह विधेयक भी स्वत: रद्द हो गया। अब नए संसद भवन की शुरूआत के पहले दिन, पहले कार्य के रूप में यह विधेयक फिर लाया गया है। इस बार भी पारित हो गया लेकिन हर राजनीतिक दल इसका श्रेय लेने को लालायित हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात को इस रूप में कहा- ईश्वर ने सारे पुण्य कर्म करने के अवसर मेरे ही नाम लिख दिए हैं। अधीर रंजन चौधरी ने इस विधेयक का श्रेय कांग्रेस को देना चाहा। कुल मिलाकर महिला विधेयक पारित हो गया और नए संसद भवन का इतिहास और भी स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। बहरहाल, हम नए संसद भवन में तो आ गए हैं। एक तरह से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नए भवन में प्रवेश हुआ है।
अब इसकी गरिमा और गौरव को बनाए रखना इसके सदस्यों पर निर्भर है। हालांकि हंगामा पहले दिन से ही शुरू हो चुका है। होना भी चाहिए। आपत्ति उठाना, प्रश्न पूछना, यह सब संसद सदस्यों का काम ही है, लेकिन यह सब दल हित में नहीं, देश हित में होना चाहिए। केवल अपनी पार्टी को आगे रखने या इसकी प्रत्याशा में कोरा हंगामा मचाए रखना संसद प्रतिनिधियों का काम न था, न आगे कभी हो सकता है।
जहां तक महिला आरक्षण विधेयक का सवाल है, संसद का नया भवन आज कह रहा है कि मैंने अपने दरवाजे आज पूरी तरह से खोल दिए हैं। रहगुजर कोई महिला आए, तो आने दो! जैसे आवाजें चली आती हैं। या पहाड़ों से हवा आती है और उसके परों पर खुशबू शुभ संदेशे चले आते हैं। कहते हैं जिस घर में नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं। हो सकता है संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ने के बाद यहां के सदस्यों के व्यवहार में भी देवगण आ जाएँ। वैसे तो नेताओं से कोई अपेक्षा करना इस समय बेमानी है, लेकिन सकारात्मकता के इस माहौल में उनसे इतनी-सी आशा तो की ही जा सकती है!